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तमिल एक्टर और ‘सुपरस्टार’ रजनीकांत (Rajinikanth) ने हाल ही में लखनऊ में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) से मुलाकात की. मुलाकात के दौरान रजनीकांत ने मुख्यमंत्री के पांव छूकर उनका आशीर्वाद लिया.
‘सुपरस्टार’ के इस कदम से सोशल मीडिया पर हंगामा मचा हुआ है. लोग सवाल कर रहे हैं और बचाव भी कर रहे हैं कि 72 साल के अभिनेता को 51 साल के राजनेता के पैरों पर क्यों गिरना पड़ा.
रजनीकांत ने खुद बताया कि वह जब भी किसी संन्यासी या योगी से मिलते हैं तो उनके पांव छूते हैं, भले ही वे उनसे छोटे क्यों न हों. लेकिन तब भी योगी आदित्यनाथ असल मायनों में धार्मिक भिक्षु नहीं हैं.
उत्तर प्रदेश में योगी की बेहद पावरफुल पोजीशन है और उन पर कट्टरपंथी हिंदुत्व की राजनीति करने का आरोप लगाया जाता है, जो राज्य में अल्पसंख्यकों की जिंदगी और कामकाज को मुश्किल बनाती है.
उन्होंने कई बार कहा है कि उनके राजनीतिक गुरु लोकप्रिय अभिनेता और दक्षिणपंथी पत्रिका तुगलक (Thuglak) के संस्थापक चो रामास्वामी (Cho Ramaswamy) थे. चो रामास्वामी को कथित तौर पर चेन्नई में संघ परिवार का राजनीतिक नुमाइंदा माना जाता था.
इसके अलावा रजनीकांत जब चुनावी राजनीति में उतरने का इरादा बना रहे थे, तो उन्होंने अपनी विचारधारा को ‘आध्यात्मिक राजनीति’ (spiritual politics) के रूप में पेश किया, जो उनकी खुद की 2002 की बॉक्स-ऑफिस फ्लॉप फिल्म बाबा (Baba) की याद दिलाती है.
हालांकि उन्होंने अपनी खराब सेहत का हवाला देते हुए कभी इस पर अमल नहीं किया. लेकिन तब भी साफ निशानियों के बावजूद रजनीकांत को सीधे तौर पर दक्षिणपंथ समर्थक करार आसान नहीं है.
फिल्मों में रजनीकांत का राजनीतिक रुख हाल के दशकों में उनके दक्षिणपंथी झुकाव के बिल्कुल उलट रहा है.
70 के दशक के अंत से लेकर 80 के दशक तक, रजनीकांत और कमल हासन ने तमिल जनता की परस्पर विरोधी ख्वाहिशों की नुमाइंदगी की है.
रजनीकांत ने हमेशा बहुजन कामकाजी वर्ग के हीरो की भूमिका निभाई– जो सांवले रंग का, मदार्ना और रफ-टफ था. कमल हासन ने ज्यादातर अभिजात्य वर्ग के संभ्रांत ब्राह्मण नायक की भूमिका निभाई– जो गोरा था, संस्कारी था, अंग्रेजी बोलता था और यहां तक कि कभी-कभी उसमें स्त्री गुणों की झलक भी मिलती थी.
दूसरी तरफ कमल हासन के किरदार या तो ठीक इसी व्यवस्था की नुमाइंदगी करते हैं या बहुत हुआ तो इसी अधिकारसंपन्न परिवार से बगावत करने वाले शख्स की भूमिका निभाते हैं.
ऐसे में कोई अचंभे की बात नहीं थी कि कमल हासन की फिल्में ‘खास जनता’ (कुलीन) के लिए बनाई मानी जाती थीं, जबकि रजनीकांत की फिल्में ‘आम जनता’ (बहुजन) के लिए बनाई गई मानी जाती थीं.
उनकी ‘आम जनता’ और ‘खास जनता’ की भूमिकाओं के बीच यह फर्क 90 के दशक की शुरुआत तक जारी रहा.
रजनीकांत की ‘आम जनता’ वाली फिल्मों के जबरदस्त बॉक्स-ऑफिस कलेक्शन को देखकर कमल हासन ने 90 के दशक में अपनी भूमिका में थोड़ा बदलाव किया.
अपनी थेवर मगन (1992) या थेवर पुत्र की रिलीज के साथ उन्होंने असरदार मध्यवर्ती जातियों की ख्वाहिशों को पेश किया और एक पूरे नए बाजार तक पहुंचने में कामयाब हुए.
इसके फायदे को देखते हुए रजनीकांत ने भी इस स्ट्रेटजी पर अमल किया और यजमान (1993) जैसी फिल्में बनाईं, जो ताकतवर मध्यवर्ती जमींदार जातियों को पसंद आईं.
रजनीकांत तब से संतुलन बनाने में जुटे हैं– वो बदल-बदलकर ऐसी भूमिकाएं चुन रहे हैं जो वर्किंग क्लास यानी कामकाजी वर्ग को पसंद आती हैं, जैसे कि उज़ैप्पली (Uzhaippali, 1993, फैक्ट्री वर्कर), या वे जो सामंती वर्ग को पसंद आती हैं – जैसे कि अरुणाचलम (Arunachalam, 1997) या पदैयप्पा (Padaiyappa, 1999).
कई बार उनकी भूमिकाएं एक ही फिल्म में वर्किंग क्लास के नायक और सामंती वंशज में बदल जाती हैं, जैसा कि मुथु (Muthu, 1995) और लिंगा (Lingaa, 2014) में देखा गया.
यहां तक कि वीरा (Veera, 1994) जैसी दुर्लभ फिल्म में भी उन्होंने एक ऐसे बहुजन की भूमिका निभाई है जो ब्राह्मण प्रेमिका को रिझाने के लिए सिर्फ ब्राह्मण होने का दिखावा करता है. दर्शक फिर भी उस किरदार की बहुजन पृष्ठभूमि से वाकिफ रहते हैं. उन्होंने कोई हिंदुत्व-तुष्टिकरण वाली भूमिका भी नहीं की है.
यहां तक कि श्री राघवेंद्रर (1985) में भी टाइटल रोल में वह बड़े करीने से अपनी निजी मान्यताओं को पेश करते हैं और इसे बढ़ा-चढ़ाकर नहीं दिखाते हैं.
हाल के सालों में रजनीकांत ने पा रंजीत की– कबाली (Kabali, 2016) और काला (Kaala, 2018) फिल्मों में जमीन से उठकर तरक्की करने वाले हीरो की भूमिकाएं निभाई हैं.
सिनेमा में ऐसे दलित हीरो पूरी तरह नया रुझान है. और इन फिल्मों में सुपरस्टार की मौजूदगी ने अंबेडकरवादी फिल्म निर्माताओं की उग्र जाति-विरोधी राजनीति को दर्शकों के बड़े वर्ग तक ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
इस उलझन को और बढ़ाने के लिए वह 1996 के चुनाव में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम-तमिल मनीला कांग्रेस गठबंधन का पुरजोर समर्थन करते हैं और तत्कालीन मुख्यमंत्री जे जयललिता के खिलाफ अभियान चलाते हैं– जिससे DMK-TMC गठबंधन की जीत होती है.
लेकिन 21 साल बाद वह 1996 में गठबंधन को दिए अपने समर्थन को ‘राजनीतिक दुर्घटना’ करार देते हैं.
रजनीकांत के इन राजनीतिक पैंतरों को देखते हुए केवल दो नतीजे निकाले जा सकते हैं:
वह या तो राजनीतिक रूप से बहुत समझदार शख्स हैं जो बॉक्स-ऑफिस के लिए रणनीतिक रूप से जिस राजनीति का समर्थन करता है, असल जिंदगी में अपनी सोच को उससे अलग रखता है.
दूसरी संभावना यह है कि वह राजनीतिक रूप से नौसिखिया हैं जो आसानी से भुलावे का शिकार हो जाते हैं और उनका पहले का रुख बदल जाता है. और शायद हम उनके राजनीतिक रुख को कुछ ज्यादा ही गंभीरता से लेकर खुद को बिना मतलब भ्रमित कर रहे हैं.
अगर हम चुनावी राजनीति में जाने और फिर कदम पीछे खींच लेने की उनकी कई कोशिशों को करीब से देखें, तो अचंभा होता है कि क्या वह सचमुच सिर्फ एक राजनीतिक नौसिखिए ही हैं.
(राजेश राजमणि चेन्नई के एक लेखक और फिल्म निर्माता हैं, जो अपनी ‘The Discreet Charm of the Savarnas’ और ‘Haiku Love’ के लिए जाने जाते हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @rajamanirajesh)
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