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राम मंदिर: विजयघोष खुशहाली का रास्ता नहीं, फिर भारत के लिए आगे की राह क्या है?

सिर्फ राम के प्रति लोगों का जुनून अगले दशक तक भारत को मध्यम आय वाला देश बनने में मदद नहीं करने वाला है.

सुतानु गुरु
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>Ayodhya Ram Mandir</p></div>
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Ayodhya Ram Mandir

(Photo- PTI)

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व्यूज, क्लिक-बेट्स और एकतरफा वैचारिक झुकाव की वजह से हम अक्सर इतिहास के लंबे कालखंड की सच्चाई की उपेक्षा करते हैं. मानव इतिहास में सबसे लंबे समय तक ऐसी सभ्यताएं (पेगन सिविलाइजेशन) फलती फूलती रही थीं जो एक देवता को पूजने की बजाए प्रकृति की पूजा करती थीं. आज के जलवायु परिवर्तन के दौर और 'हरित' आजीविका खोजते इस युग में वही पुरानी सभ्यताएं हमें प्रकृति के साथ मिलकर रहने के बारे में बहुत कुछ सिखाती हैं. पेगन सिविलाइजेशन के लोग पेड़ों, ग्रहों, पानी, आग, जंगलों, जानवरों और बहुत कुछ की पूजा करते थे.

(अनुवादक की तरफ से नोट: दरअसल पश्चिम में पेगन सिविलाइजेशन उन सभ्यताओं को कहा जाता था जो प्राचीन धर्म के अनुयायी थे और कई देवताओं की पूजा करते थे. ये ईसाई धर्म, यहूदी धर्म और इस्लाम जैसे अन्य इब्राहीम धर्मों में विश्वास नहीं करते थे. इस स्टोरी में इसके लिए बहुदेववाद शब्द का भी प्रयोग किया गया है.)

उन सभ्यताओं के लोगों को सामुदायिक और सामाजिक भलाई के मूल्यों का एहसास मार्क्सवादियों की ओर से इस विचार के भष्ट्र किए जाने के काफी पहले हो गया था.

एडम स्मिथ और जॉन स्टुअर्ट मिल की ओर से व्यक्तिगत स्वतंत्रता का सिद्धांत दिए जाने से बहुत पहले उन सभ्यताओं के लोगों ने इसकी अहमियत समझ ली थी. फिर भी, मिस्र से शुरू होकर, माया, इंकास, एज़्टेक, मेसोपोटामियाई, सुमेरियन, असीरियन, यूनानी और रोमन जैसी पेगन सिविलाइजेशन का अस्तित्व दुनिया से खत्म हो गया.

लेकिन सही मायने में देखें तो इकलौता पेगन सिविलाइजेशन जो अब भी जिंदा है, वह है भारत. आप इसे सनातन धर्म कहें या हिंदू धर्म या जो भी कहें, लेकिन यह अब भी अस्तित्व में है.

अयोध्या में राम की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा लेखक के लिए हिंदुत्व या धार्मिकता के प्रदर्शन से ज्यादा एक संदेश है कि बहुदेववाद का विचार मजबूती से लौट आया है. लेखक हिंदू है और बहुदेववाद में विश्वास रखता है. लेखक के लिए अयोध्या का यह समारोह हिंदू सभ्यता के पुनर्जागरण का प्रतीक है. 500 साल पुराना संघर्ष जो, आज राम की जन्मस्थली में वापसी के साथ खत्म हुआ. ये कुछ ऐसा है जिसके लिए हर असली हिंदू जश्न मना रहा है.

अब तक तो सब अच्छा है. बहुदेववादी हिंदुओं ने अपनी सभ्यता की विरासत को फिर से हासिल कर लिया है,  लेकिन अब आगे क्या?

सिर्फ राम के जुनून से नहीं हो सकेगी भारत की मदद

आइए कुछ ऐसी बातों पर गौर करें जिनके लिए हिंदुओं को अपने अतीत पर वाकई में गर्व हो सकता है. इसमें अव्वल तो विज्ञान के क्षेत्र में दूरदर्शिता है. मसलन चिकित्सा, खगोल विज्ञान, बीजगणित, और ऐसे बहुत से विषयों के लिए स्वीकार्यता. दूसरी बात ये ही हमारा इतिहास खुले विचारों वाला रहा है. इतिहास में भारत न केवल नए विचारों, दर्शन और तथ्यों को लेकर खुले विचारों वाला रहा है, बल्कि उन लोगों के लिए भी अपने विचार खुले रखे हैं जो सांस्कृतिक तौर पर हमसे अलग थे.

तीसरा, सबसे महत्वपूर्ण पहलू विविधता और असहमतियों को कबूलने की हिंदुओं की क्षमता रही है. यहां तक कि एक कट्टर नास्तिक भी हिंदू होने का दावा कर सकता है. अब, ये ऐसे साधन हैं जिनकी भारत को और भी ज्यादा दरकार है क्योंकि यह बेहद गरीब तीसरी दुनिया की अर्थव्यवस्था से मध्यम आय वाली अर्थव्यवस्था में तब्दील हो रहा है.

लेकिन सिर्फ राम के प्रति लोगों का जुनून अगले दशक तक भारत को मध्यम आय वाला देश बनने में मदद नहीं करने वाला है. हिंदुओं को आर्थिक विकास और प्रगति पर ध्यान देने की जरूरत है. किसी भी मामले में दोनों बातें एक दूसरे से एकदम पृथक नहीं हैं. मौजूदा सरकार ने वह किया है जो दशकों पहले किया जाना चाहिए था और इसके लिए उसे श्रेय जाता है. इस सरकार ने यह सुनिश्चित किया है कि जाति और पंथ की परवाह किए बिना नागरिकों के पास पीने का पानी, शौचालय, बिजली, स्वच्छ खाना पकाने के ईंधन, सभ्य बुनियादी ढांचे, कंक्रीट के घर और बैंक खाते हों.

लेखक के हिसाब से पिछली सरकारों की सबसे बड़ी नाकामयाबी 'हिंदूओं' की उपेक्षा नहीं रही है. उनकी गलती थी कि उन्होंने  'धर्मनिरपेक्षता' के फितूर में नागरिकों की इन बुनियादी जरूरतों की अनदेखी की. यहां तक कि मौजूदा शासन और उसकी कई नीतियों का एक आलोचक भी इन बदलावों से सहमत होगा. लेकिन जब जीवन की गुणवत्ता और जीवन स्तर की बात आती है, तो भारतीय अभी भी अन्य एशियाई देशों से मीलों पीछे हैं, जिन्होंने भारत की तुलना में बहुत बाद में उपनिवेशवाद से छुटकारा पाया.

यूरोप और उत्तरी अमेरिका को भूल जाइए. भारत के लिए तब भी बहुत अच्छा होगा अगर अगले दस सालों में औसत भारतीयों का जीवन स्तर थाईलैंड, वियतनाम, इंडोनेशिया और मलेशिया के औसत नागरिक के बराबर हो जाए. इन अगले दस सालों में भारतीय अर्थव्यवस्था 10 ट्रिलियन डॉलर की जीडीपी मील के पत्थर के करीब पहुंच रही होगी.

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विजयघोष और खुशहाली के रास्ते अलग-अलग हैं

राजनीतिक अर्थव्यवस्था का कोई भी छात्र जानता है कि आर्थिक उत्पादन और इंफ्रास्ट्रक्चर के संदर्भ में सतत विकास केवल तभी संभव है जब निजी निवेशक पर्याप्त रूप से यह आश्वस्त महसूस करे कि उन्हें बिजनेस के लिए सुरक्षित और स्थाई माहौल मिलेगा. जब विवादों और असहमतियों को काफी हद तक शांतिपूर्ण तरीके से निपटाया जाता है और बातचीत की जाती है, तब जाकर निवेश आता है. महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु में अक्सर कड़वे, वैचारिक रूप से विभाजनकारी विवाद और असहमति देखी जाती है, फिर भी वे भारी मात्रा में निवेश ले आते हैं.

इसकी तुलना बिहार और पश्चिम बंगाल से करें, जहां कोई भी समझदार निवेशक या उद्यमी जाने से पहले कई बार सोचता है. इसकी वजह हिंसा और इसके लगातार खतरे हैं. निवेश न होने, लगातार बेरोजगारी और गरीबी के जाल से बाहर निकलना गरीब राज्यों और कई इलाकों के लिए अब भी संभव है. पिछले दो दशकों में ओडिशा और मध्य प्रदेश ने यह कर दिखाया है.

सभ्यता के फिर से जागृत होने के इस समय में हिंदुओं को इस बुनियादी सबक को आत्मसात करना चाहिए.

न विजयघोष और न अपनी पहचान का भड़काऊ प्रदर्शन भारत को खुशहाली के रास्ते पर ले जाएगा. उदारता और मतभेदों को दूर करने से ही यह तय होगा कि भारत को एप्पल, गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, अमेजॉन, बोइंग, एयरबस, मेटा, एलजी, सैमसंग, टोयोटा, सोनी, फॉक्सकॉन, बायर्न म्यूनिख, वोक्सवैगन और सिंगापुर, संयुक्त अरब अमीरात, कुवैत से ज्यादा से ज्यादा निवेश हासिल हो.

इन कंपनियों को आकर्षित करने के लिए और भी ज्यादा कोशिशें करने से राम का महत्व किसी भी तरह से कम नहीं होगा. वास्तव में लेखक यह कहने की हिम्मत करता है कि भगवान राम भी इसकी मंजूरी देंगे.

लेकिन एक और महत्वपूर्ण पहलू है जिसपर ध्यान देन की दरकार है. ये भारत के दूसरे सबसे बड़े बहुसंख्यक यानी मुस्लिम आबादी का रवैया और मानसिकता है. लेखक इससे निराश हैं कि बड़ी संख्या में शिक्षित और कथित रूप से उदारवादी मुसलमान इस बात पर अफसोस जता रहे हैं मंदिर बनने के बाद दोयम दर्जे के नागरिक के रूप में उनकी स्थिति पर मुहर लग गयी है.

निश्चित रूप से भारत में मुसलमानों के खिलाफ पूर्वाग्रह मौजूद है, लेकिन यह कहना कि वे सरकार और समाज द्वारा प्रायोजित व्यवस्थित भेदभाव के शिकार हैं, खतरनाक है. बात लंबी न खींचे इसलिए लेखक उन डेटा के खजाने को यहां पेश नहीं कर रहा है, जो उनके झूठ को उजागर करती है. लेकिन सोचने वाली बात है कि अगर मुसलमानों को भारत में इतनी ही तकलीफ दी जा रही है तो बांग्लादेश, म्यांमार और अफगानिस्तान के मुसलमान इस देश में बसने के लिए इतने उत्सुक क्यों हैं?

यदि हिंदुओं को उदार और शालीन होने की आवश्यकता है, तो मुसलमानों को भी उदार और शालीन होने की आवश्यकता है. इस बात को स्वीकार करें कि इस्लामी आक्रमणकारियों ने हिंदू धर्म जुड़े स्मारकों को तबाह कर दिया था, लेकिन वे दिन चले गए हैं. यह भविष्य की तरफ देखने का वक्त है.

मेरे हिसाब से केवल उस भविष्य की बात की जानी चाहिए जहां औसत भारत की प्रति व्यक्ति आय 5000 डॉलर प्रति वर्ष हो- चाहे वो हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, सिख, जैन या बौद्ध, जिस भी समुदाय से हो. अभी प्रति व्यक्ति आय 2500 डॉलर से कम है. भगवान राम इस उपलब्धि की उतनी ही सराहना करेंगे जितना की वह अपने नाम पर गाए जाने वाले सुंदर भजनों की सराहना करते हैं.

(सुतानु गुरु सी-वोटर फाउंडेशन के कार्यकारी निदेशक हैं. यह एक ओपनियन आर्टिकल है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

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