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दिवंगत केंद्रीय मंत्री और लोक जनशक्ति पार्टी के संस्थापक रामविलास पासवान जीवनभर खुद को वजनदार बनाए रखने में कामयाबे रहे. उन्होंने कभी भी अखिल भारतीय स्तर पर दलित नेता होने की अपनी महत्वाकांक्षा को आगे नहीं किया और 1989 के बाद से हर चुनाव में जीत हासिल करने वालों के साथ रहे. अलग-अलग राजनीतिक रुझाने वाले छह प्रधानमंत्रियों के साथ उन्होंने अपने लिए कैबिनेट में जगह हासिल की.
दिवंगत मंत्री के लिए तारीफों से भरे असाधारण रूप से लंबे ट्वीट में मोदी ने पासवान के निधन को ‘व्यक्तिगत नुकसान’ बताया और कहा कि उन्होंने जो रिक्त स्थान बनाया है “उसे कभी भरा नहीं जा सकेगा.“
इस विडंबना को भी लोग भूल नहीं सकते कि गुजरात में 2002 के सांप्रदायिक दंगों के विरोध में, जब मोदी मुख्यमंत्री थे, उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार छोड़ दी थी.
ऐसे लोग कहते हैं कि मोदी किसी को तनिक भी माफ नहीं करते. लेकिन इस वक्त, महाभारत के अर्जुन की तरह प्रधानमंत्री की पूरी नज़र बिहार में जीत और प्रदेश में बीजेपी के पहले मुख्यमंत्री को नियुक्त करने पर टिकी हुई है.
अपने दिवंगत मंत्री के लिए उनकी यह श्रद्धांजलि बताती है कि मृत्यु के बाद भी पासवान बीजेपी की रणनीति में महत्वपूर्ण कारक होने जा रहे ह
पासवान के उत्तराधिकारी और अब एलजेपी प्रमुख चिराग ने इस बात को नहीं छिपाया कि वे राज्य में बीजेपी के सहयोगी जेडीयू और नीतीश की जगह लेना चाहते हैं. जेडीयू जिन सीटों पर चुनाव लड़ रही है उन सभी जगहों पर उम्मीदवार वे दे रहे हैं. उन्हें उम्मीद है कि नीतीश की संख्या घटेगी और वे उनसे मुख्यमंत्री की पद छीन लेंगे. यह आश्चर्य की बात नहीं है कि इनमें से कई उम्मीदवार वे लोग हैं जो बीजेपी से आए हैं.
इनमें से सबसे महत्वपूर्ण राजेंद्र सिंह हैं जो लंबे समय से आरएसएस के वफादार रहे हैं. यहां तक कि कुछ साल पहले तक बीजेपी की जीत होने की सूरत में उन्हें भावी मुख्यमंत्री के तौर पर भी देखा जाता था.
हालांकि बिहार में लगातार बनी सरकारों में एलजेपी की कोई अहम भूमिका नहीं रही है और ऐसा इसलिए क्योंकि उसे कभी इतनी सीट नहीं मिली कि वह स्थिति में फर्क ला सके. पार्टी के साथ वफादारी से पासवान दलित जुड़े रहे हैं जो राज्य की आबादी में तकरीबन 7-8 प्रतिशत हैं.
हाजीपुर क्षेत्र में बड़ी संख्या में पासवान हैं जहां इस परिवार की पकड़ है लेकिन वे पूरे बिहार में फैले हुए हैं और कड़े मुकाबलों में उनकी भूमिका अहम हो जाती है.
कई सालों से पासवान ने अपने फायरब्रांड भाषणों और दलित हितैषी राजनीति के जरिए खुद को उनकी आवाज़ के तौर पर राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया. जैसे भीम राव अंबेडकर के लिए भारत रत्न अवार्ड की मांग और एससी-एसटी ट्राइब्स (प्रिवेन्शन ऑफ एट्रोसिटीज़ एक्ट 1989) के लिए संघर्ष.
अपने स्वभाव से इतर उदारता के साथ प्रशंसा करते हुए मोदी ने सबसे पहले अपने लिए अंक जुटा लिए हैं. इससे पता चलता है कि वे समझते हैं कि बिहार की राजनीति में छोटा, मगर महत्वपूर्ण स्थान पासवान रखते हैं.
दाह संस्कार खत्म होने की औपचारिकता के बाद चिराग वापस अपने रूप में लौटेंगे और अभियान में मजबूती से जुड़ जाएंगे.
पासवान के निधन के बाद जो पार्टी खुद को एक बंधन में पाती है वह है जेडीयू. नीतीश और उनके साथियों को सावधानी से काम करना होगा. कुशासन और अधूरे वादों को लेकर चिराग मुख्यमंत्री के खिलाफ अभियान जारी रखेंगे, नीतीश को इन हमलों से बचने के लिए खुद अपने शब्द ढूंढ़ने होंगे.
वे पासवान की आलोचना नहीं कर सकते क्योंकि मृत्यु के बाद बुरा नहीं बोला जाता. लेकिन क्या वे राज्य के एक लोकप्रिय दलित नेता के शोक संतप्त बेटे की चाबुक सह पाएंगे?
बिहार में चुनाव कोई स्पष्ट नतीजे लेकर आता नहीं दिख रहा है और शायद चुनाव परिणाम उतने स्पष्ट रूप से सामने न आएं. ऐसा लगता है कि असल खेल चुनाव के बाद शुरू होगा जब राजनीतिक दल नयी सरकार बनाने की कवायद शुरू करेगी और इसके लिए अप्रत्याशित रूप से संभावनएं तलाशेंगी.
पासवान ने अपने बेटे चिराग के लिए मजबूत विरासत छोड़ी है जिस पर वे इमारत बना सकते हैं. चिराग पहले ही खुद योग्य उत्तराधिकारी के रूप में दिखा चुके हैं. एलजेपी को अधिक से अधिक प्रासंगिक बनाने के लिए तमाम पैंतरेबाजियां उन्होंने की हैं.
अपने पिता की तरह उन्होंने भी खुद को अधिक वजनदार बनाया है लेकिन उनकी वास्तविक परीक्षा अब शुरू होती है. अपने पिता की गैरमौजूदगी में अधिक से अधिक सीटें जीतकर और जितना संभव हो इस फायदे का लाभ उठाकर वे अपनी पार्टी के लिए सुरक्षित भविष्य खोज सकते हैं.
(लेखिका दिल्ली में रहने वाली वरिष्ठ पत्रकार हैं. ये लेखिका के अपने विचार हैं और इससे क्विंट का सरोकार नहीं है.)
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