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आरबीआई और सरकार के बीच अभी जो टकराव चल रहा है, उसने मुझे 33 साल पहले 1986 की एक घटना की याद दिला दी है. उस वक्त एस वेंकिटरमणन वित्त सचिव थे और सरकार के पास पर्याप्त फंड नहीं था. इसके बाद उन्होंने सरकार की आमदनी बढ़ाने के लिए दो संभावित रास्ते तलाशे. इसमें से एक एसएलआर में बढ़ोतरी का पारंपरिक रास्ता था, जिससे रिजर्व बैंक को सरकार को सस्ता कर्ज देना पड़ता.
दूसरा, आरबीआई के मुनाफे का एक हिस्सा सरकार को ट्रांसफर करवाना था. यही वेंकिटरमणन 1991 में रिजर्व बैंक के गवर्नर के रूप में देश को बचाने के लिए आगे आए.
1986 में आर एन मल्होत्रा आरबीआई गवर्नर थे, जो इससे पहले 1982 से 1985 तक वित्त सचिव रह चुके थे. उन्होंने वेंकिटरमणन के प्रस्ताव के जवाब में एक लंबा उपदेशात्मक नोट लिखा और दोनों ही उपायों को खारिज कर दिया. मल्होत्रा ने कहा कि एसएलआर बढ़ाने पर महंगाई दर में बढ़ोतरी होगी. साथ ही, इससे बैंकों के पास मीडियम और बड़े उद्योगों को कर्ज देने के लिए कम पैसा बचेगा, जिन्होंने बड़ी निवेश योजनाएं बना रखी हैं और जिन्हें वर्किंग कैपिटल लोन की भी जरूरत है.
इतना ही नहीं, वेंकिटरमणन के जख्म पर नमक छिड़कते हुए उन्होंने कहा कि अगर वह आरबीआई का प्रॉफिट ट्रांसफर कर भी देते हैं तो यह रिजर्व बैंक के सरकार को उधार देने की तरह होगा. इसका अर्थव्यवस्था पर बुरा असर होगा और आरबीआई के रिजर्व को ‘सरकारी संसाधन बढ़ाने का जरिया’ नहीं माना जाना चाहिए.
इतना ही नहीं, मल्होत्रा ने इसकी जानकारी प्रधानमंत्री को सीधे देने का फैसला किया, लेकिन आखिरी लम्हों में वह मीटिंग कैंसल हो गई. ऐसे में उन्हें मजबूरन वित्त मंत्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष के सामने अपनी बात रखनी पड़ी. वेंकिटरमणन इस मामले के तूल पकड़ने से नाराज थे और मामला टल गया, लेकिन यह जंग खत्म नहीं हुई थी.
1988 में जब सरकारी खजाने की हालत खराब हुई तो वेंकिटरमणन ने फिर से आरबीआई रिजर्व से ट्रांसफर का मुद्दा उठाया. 1988 में अर्थव्यवस्था की हालत काफी खराब थी और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के लिए निजी तौर पर भी वह बुरा वक्त था. देश में भयानक सूखा पड़ा था. इसलिए सरकार को बड़े पैमाने पर चीनी और खाने के तेल का आयात करना पड़ा. इन दोनों का फूड बास्केट में बड़ा वेटेज था. चीनी और खाने के तेल के आयात के लिए सरकार को छोटी अवधि का कर्ज लेना पड़ा, जिसमें तेजी से बढ़ोतरी हो रही थी.
उधर राजनीतिक मोर्चे पर राजीव गांधी की ओरिजिनल टीम बिखर गई थी. उनके तीन करीबी- अरुण नेहरू, अरुण सिंह और वीपी सिंह सरकार छोड़ चुके थे. बोफोर्स घोटाले का मामला गर्म था. राजीव पर निजी तौर पर रिश्वत लेने के आरोप लगे थे. कांग्रेस कुछ राज्यों में चुनाव भी हार गई थी. राजीव गंभीर मुश्किलों का सामना कर रहे थे. सरकार को जितनी आमदनी हो रही थी, उससे कहीं ज्यादा पैसों की जरूरत थी.
सरकार को शिकायत इस बात से थी कि रिजर्व बैंक शुरू से उसे 210 करोड़ रुपये ट्रांसफर करता आ रहा था. उसके मुताबिक, आखिर आरबीआई सरकारी संस्थान था, फिर वह मुनाफे को अपने पास रखने की जिद पर क्यों अड़ा था. सरकार का मानना था कि आरबीआई ने वह मुनाफा उसके प्रतिनिधि के तौर पर काम करके ही कमाया था.
वह रिजर्व बैंक के ग्रॉस प्रॉफिट का तय हिस्सा सरकार को ट्रांसफर करने के खिलाफ थे. उन्होंने कहा कि यह बहुत खराब आइडिया है और इससे स्टैट्यूटरी फंड एलोकेशन में काफी कमी आएगी, लेकिन वेंकिटरमणन भी कम होशियार नहीं थे. उन्होंने प्रवासी भारतीयों से कर्ज लिया और उसकी देनदारी आरबीआई पर ट्रांसफर कर दी. इसका नतीजा वही हुआ, जो उनके पहले सुझाव पर अमल का होता.
इसके बाद मामला दिसंबर 1990 में वेंकिटरमणन के आरबीआई गवर्नर बनने तक ठंडा पड़ा रहा. रिजर्व बैंक का बॉस बनने पर सबसे पहले उन्होंने रिजर्व के मामले में मल्होत्रा की पॉलिसी बदली. आरबीआई ने सरकार को तुरंत 350 करोड़ रुपये ट्रांसफर किए. उसके बाद से ट्रांसफर की गई रकम लगातार बढ़ती गई है और 2015 में यह रिकॉर्ड 63,000 करोड़ रुपये पहुंच गई थी. उसके बाद से काफी अरसा गुजर गया है, लेकिन यह जंग अभी तक खत्म नहीं हुई है. बस, अब इससे उर्जित पटेल का नाम जुड़ गया है.
(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 10 Nov 2018,07:27 PM IST