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हिन्दी में सन्मार्ग अखबार कोलकाता से प्रकाशित होता है, करीब दो महीने पहले पूर्व जब मुझे आरक्षण पर वाद-विवाद में शरीक होने का निमंत्रण मिला तो कुछ हैरानी हुईं. दिल्ली में बड़े मीडिया हाउस तमाम वार्षिक कार्यक्रम कराते रहते हैं, जिसमे दुनिया से ताकतवर लोगों को आमंत्रित करते हैं, भारत के गणमान्य तो वक्ता और अतिथि बनकर विद्वता झाड़ने आते हैं. विषय वस्तु ऐसा होता है जो उनके पसंद का हो या उन विषयों को चुनते हैं, जो बहुजन समाज से लेना देना नही होता. किसान, असंगठित कामगार, बेरोजगारी, मंहगाई आदि को भी विषय में शामिल नहीं करते.
वाद- विवाद से विपक्ष को भी समझ आएगा कि हजारों साल से जिसके साथ अन्याय हुआ है, उनको न्याय देने की बात है और जब तक सबको मुख्यधारा से नही जोड़ा जाएगा, तब तक देश तरक्की नहीं कर सकता और गुलामी का मुख्य कारण यही था हम जातियों में बंटे थे.
वाद- विवाद में दोनों पक्षों को बराबर का मौका मिले. बहुसंख्यक श्रोता जरूर आरक्षण के विपक्ष में ज्यादा थे और स्वाभाविक है कि जो जिस जाति से आता है उसका जान- पहचान और दोस्ती उसी में होगी. पत्रकारिता की दुनिया में और कथित सवर्ण ही हैं. शिक्षित होने का अवसर इन्हीं को पहले मिला, सदियों से सामाजिक पूंजी, जिसके पास है बुद्धिजीवी और शिक्षित भी वहीं होंगे. जैसा समाज वैसे ही भागेदारी होगी.
चंद घुड़सवार देश जीत लेते थे और कारण कभी बताया जाता था कि धोखे से किया या अंदर के भेदिया जिम्मेदार थे, कभी कहना एक राजा दूसरे से आपस में लड़ रहे थे, यह तो अन्य देशों और समाजों में होता रहा. असली कारण था 3 फीसदी क्षत्रिय ही की जिम्मेदारी थी, बाकि एससी, एसटी और ओबीसी के लोग तमाशबीन बने रहते थे.
अगर सब पत्थर उठा लेते तो चंद हजार आक्रमणकारी भाग खड़े होते. क्या यह आरक्षण नहीं था जिसके वजह देश का बेड़ा गर्क हुआ. सरकारी आरक्षण के पहले जो जाति के आधार पर था उसका नतीजा देखा कि देश गुलाम रहा, दूसरे तरह से आरक्षण के असर को देखा जाए, जिसकी शुरुआत बहुत देर से हुई, सन 1902 में कोलापुर के महाराजा क्षत्रपति शिवाजी महाराज ने किया.
उत्तर भारत में आरक्षण बहुत बाद में आया और तुलना करें कि जिसने विकास ज्यादा किया? उत्तर भारत के लोग नौकरी करने वहीं जा रहे हैं, जहां आरक्षण पहले आया और प्रतिशत भी ज्यादा रहा, ट्रावनकोर रियासत में सरकारी नौकरियों में आरक्षण का आंदोलन 1891 में शुरू हुआ जो बाद में जाकर मिला.
केरल , तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र उत्तर भारत के राज्य कई गुना ज्यादा तरक्की कर चुके हैं, आरक्षण के विरोधी कुछ बातों से बहुत क्षुब्ध रहते हैं, जैसे कि मेरिट की अवहेलना. इनके लिए मेरिट का मतलब रट्टा लगाकर परीक्षा में उगल देना. इस मेरिट को अंग्रेजों ने गढ़ी थी कि भारतीयों को कैसे तोता बनाकर राज करें.
मेरिट में ईमानदारी, समझदारी, मेहनत करने की छमता, मानवता और निष्ठा आदि को शामिल को करके देखा जाना चाहिए एक अजीब तर्क दिया जाता है कि आरक्षण के कारण टैलेंट विदेश भाग जाता है, विदेश जाकर पैसा ही तो कमाने का उद्वेश्य है और कारण आरक्षण को बता दिया जाता है. बिल गेट्स ड्रॉप आउट है न कोई पूंजी और फॉर्मल शिक्षा फिर भी विंडो सॉफ्ट बनाकर दुनिया का सबीर अमीर बना.
जकरबर्ग जब शिक्षा ले रहे थे, तभी फेसबुक बना डाला, एलन मस्क बचपन में स्कूल जाने से नफरत करते थे और वो भी ड्रॉप आउट हैं. अधिकतर दुनिया के उदाहरण ऐसे ही हैं, लेकिन भारत न कुछ कर पाने का कारण आरक्षण बताया जाता है. उद्योग जगत में कोई आरक्षण नहीं है तब क्यों नहीं नई तकनीक खोज पाते हैं, बैंक कर्ज और आईपीओ के पैसे से ही बड़े व्यापारी बने हैं,
अब तो सरकारी संपत्ति को औने पौने दाम पर खरीदकर मालदार बन रहे, कभी इंपोर्ट ड्यूटी में घपला तो कभी शेयर मार्केट के जरिए और बिजली चोरी कर हेरा फेरी आम बात है. शत- प्रतिशत वैज्ञानिक, प्रोफेसर, कुलपति अनारक्षित से ही हैं तो क्यों नही नई खोज और तकनीक का अविष्कार कर पाते.
न कर पाने की स्थिति में दोष आरक्षण को, विदेश जाते हैं तो शिक्षित रोजगार के अलावा क्या हो पाते. एकाध उच्च स्तर पर पहुंच जाते हैं तो फिर क्या डंका पीटने लगते हैं. देखो विदेश में जाकर कमाल कर लिया, अरे बई, यहां कौन रोक रहा है करने को, कभी वो अमेरिका, यूरोप भी तो ऐसे थे, चीन का उदाहरण क्यों लेते हैं कि वो 1980 तक भारत के समकक्ष था.
आरक्षण से नौकरी पाने वाले ही तो स्कूटर, कार , बाइक, कपड़ा, सीमेंट, लोहा आदि तमाम वस्तुएं खरीदते हैं, तभी तो उत्पादन बढ़ेगा. क्या 15% आबादी की क्रय शक्ति से देश की जीडीपी बड़ी होगी. आरक्षण का विरोध करने वाले सोचे कि उनके लिए ही फायदा है कि सबको आगे बढ़ने का मौका मिलेगा.
बड़े व्यापारी, शिक्षण संस्था, उद्योग , हॉस्पिटल, सिविल एविएशन, सर्विस क्षेत्र सवर्ण समाज के पास हैं, अगर ये निस्पक्षता से देखें तो आरक्षण से हानि नहीं बल्कि लाभ इनका भी है और देश का भी, सन्मार्ग अखबार और मीडिया हाउस को सीखना चाहिए.
(लेखक डॉ उदित राज परिसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष, पूर्व लोकसभा सदस्य और वर्तमान में कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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