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बहुजन उत्थान का झूठा सपना दिखा BSP दलितों को बनाती रही सवर्णों का सामाजिक दुश्मन

दलित दशकों से बीएसपी के साथ इस आशा से जुटे रहे कि एक दिन वे सत्ता के मालिक होंगे, पर ऐसा हुआ नहीं

डॉ. उदित राज
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>कांशीराम ने 1984 में बहुजन समाज पार्टी की शुरुआत की थी.</p></div>
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कांशीराम ने 1984 में बहुजन समाज पार्टी की शुरुआत की थी.

(फोटो: ट्विटर)

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किसी शब्द या धारणा का आविर्भाव प्रायः अस्पष्ट और धुंधला होता है. माना जाता है कि 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' की बात सबसे पहले भगवान गौतम बुद्ध ने की थी. समयांतराल में इसका प्रयोग होता रहा है लेकिन कालांतर में कांशी राम जी (kanshi ram) ने इसका उपयोग राजनीति में खूब किया. बहुजन का आशय है- बहुसंख्यक समाज, जो अभाव की ज़िंदगी जीते रहे. सत्ता का लालच कहा जाए या समझ की कमी, जिसके कारण बहुजन से सर्वजन हो गया. सर्वजन का मतलब कि उनका भी भला हो जिनका भला पहले से होता आ रहा है. सर्वजन का मतलब बहुजन का त्याग हो जाना. जब अमीर-गरीब और ऊंच-नीच सब एक दृष्टि से देखे जाएं तो बहुजन का मतलब खत्म हो जाता है.

तीन दशक बीएसपी से जुड़े रहने के बाद भी दलित पीछे

भारतीय समाज जातियों का है और उसी के अनुसार सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति का निर्माण हुआ है. कुछ अपवाद को छोड़ दिया जाए तो जाति ही इंगित करती है कि उससे जुड़े वर्ग की क्या दशा है? कुछ अपवादों को लेकर कथित उच्च जाति के लोगों का तर्क भी गढ़ा जाता रहता है कि अब तो सब बराबर हैं और पिछड़े और अगड़े जैसा कुछ नहीं होना चाहिए.

इंसान आशा में ज्यादा जीता है, यथार्थता में कम. दलित समाज की आबादी 16% है, जो न अकेले चुनाव में जीत सकते हैं और न ही अकेले किसी को हरा सकते हैं.

 

इनमें हजारों उप जातियां हैं और सामाजिक रूप से ये एक-दूसरे उतनी ही दूरी पर हैं जितना और वर्गों से. इस आबादी को गोलबंद करने के लिए कोई न कोई आशा की किरण तो दिखानी ही पड़ेगी. राजनीति में यह करना भी पड़ता है. दलितों के साथ आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यक को जब एक करके दिखाया गया तो इनमें आत्मविश्वास पैदा हुआ और ये मजबूती से खड़े हुए.

दलित दशकों से बीएसपी (BSP) के साथ जुटे रहे और इस आशा से कि एक दिन वे सत्ता के मालिक होंगे. चतुराईवश या अल्प दृष्टिकोण रखने की वजह से स्वजाति को और भावनात्मक बनाया ताकि उम्र बीत जाए लेकिन नेतृत्व में खोट नजर न दिखे. यही कारण है करीब तीन दशक दलित बीएसपी से जुड़े रहने के बाद स्वजाति अभी भी पीछे है.
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RSS की तरह ही BSP ने जगाया बदले का भाव

भारतीय समाज तर्क से नहीं भावना से कहीं ज्यादा संचालित होता है. आरएसएस और बीजेपी मुसलमान को सामने रखकर हिंदू को इकट्ठा करने में सफल रहे और उसी तरह सवर्ण अत्याचार और शोषण की बात करके बीएसपी ने दलितों और पिछड़ों को संगठित किया. इसमें भावना का ज्वार और बदले का भाव कहीं ज्यादा ही था.

इस पार्टी ने सवर्णों को सामाजिक तौर पर दुश्मन और कांग्रेस को राजनैतिक दुश्मन बना दिया. इसके बाद फिर क्या पूछना, कि लोग एक जुट हो गए और पार्टी की हर गलत और सही बात की सुध उन्हें कहां रही. कांगेस में जो दलित थे उनको चमचा कहकर इतना बदनाम और घृणित बना दिया कि वो नफरत के शिकार हो गए, भले ही उन्होंने अपने वर्ग के उत्थान का काम किया हो.

मंच पर एक ही व्यक्ति की कुर्सी वाली पार्टी बन गई BSP

भारतीय समाज जातियों का है. बौद्धिक बेईमानी के कारण इस सत्य को कम लोग स्वीकारते हैं. कहेंगे कि जाति तो बीते दिनों की बात है और पढ़े लिखे लोग कहां इस सब को मानते हैं. जाति से ज्यादा सत्य कुछ नहीं है और कौन पार्टी ऐसी नहीं है जो जातीय समीकरण पर बिना ध्यान दिए टिकट देती हो. बहुजन का नारा गलत नहीं था, लेकिन उस स्थिति की प्राप्ति के लिए जाति निषेध की बात की जानी चाहिए थी.

इसके विपरीत जाति आधारित बैठकें और सभाएं की गईं और स्पष्ट रूप से कहा गया कि लोग अपनी-अपनी जाति को गोलबंद करें. जिसने ऐसा किया उसे शुरुआत में महत्व दिया, लेकिन जब टिकट, पद और प्रतिष्ठा देने की बात आई तो पैसा और उपजाति सब कुछ मायने रखने लगा. मंच पर एक ही व्यक्ति की कुर्सी लगने लगी.

ऐसे में तो कथित सवर्ण आधारित पार्टियां बेहतर दिखीं जो मंच पर यथासंभव सबको जगह तो देती थीं. वहां अपने बड़े नेताओं से मिलने में छोटे कार्यकर्ताओं को मुश्किल तो नहीं होती थी और संयमित भाषा का भी इस्तेमाल किया जाता था. बसपा में सम्मान के नाम से लोगों को इकट्ठा किया गया और वही नहीं रहा तो बहुजन समाज का निर्माण करने की प्रक्रिया कहींं नहीं दिखती.

यह समाज हजारों वर्ष से टुकड़ों में बंटा हुआ है. उसे एक करने के बजाय जाति आधारित गोलबंदी करने के लिए प्रेरित किया गया. कुछ बहुजन चिंतक यहां तक कहने लगे कि कास्ट आइडेंटिटी मनुवाद की काट नहीं है. अपना जातिवाद दूसरे जातिवाद का समाधान नहीं हो सकता.

चुनाव प्रचार के दौरान अपने समर्थकों के साथ कांशीराम साइकिल पर जाते थे. 

(फोटो: bspindia.org)

पांच साल कुछ न करना, फिर भी वोट और नोट चाहिए

डा. अंबेडकर आज होते तो कांग्रेस के समर्थन में खड़े होते. जब वो संघर्ष कर रहे थे तो हिन्दुत्व ताकतें ना के बराबर थी. उन परिस्थितियों में उन्होंने कहा था कि दलितों की अपनी पार्टी होनी चाहिए. अंग्रेजी राज में दलितों को बहुत कुछ मिल चुका था और देश आजाद होने के बाद गांधीजी और नेहरू जी की समाजवादी और उदारवादी सोच के कारण बाबा साहेब डा. अंबेडकर को न केवल संविधान बनाने का मौका मिला, बल्कि वह कानून मंत्री भी बने.

दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यक और महिलाओं के लिए संविधान में प्रदत्त तमाम अधिकार की वह चिंता करते. कांग्रेस ने ही शिक्षा, सरकारी नौकरी और तमाम क्षेत्रों में दलितों की भागीदारी सुनिश्चित की. क्षेत्रीय पार्टियों ने राज्यों में शासन किया लेकिन कौन से ऐसे कल्याणकारी कार्य किए, जिनको याद किया जाए.

तथाकथित बहुजनी कांग्रेस की निंदा करते रहते हैं. इनसे पूछा जाए कि आलोचना के सिवाय किसी भी मुद्दे को लेकर कितने आंदोलन किए? पांच साल कुछ न करना, फिर भी वोट और नोट चाहिए. वर्तमान परिस्थिति में दलितों को संविधान, आरक्षण और बाबा साहेब की विरासत बचाने के लिए एकजुट हो जाना चाहिए. सर्व विदित है कि संविधान का विरोध आरएसएस ने किया था और 12 दिसंबर 1949 को बाबा साहेब का पुतला दहन किया.

बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय के मार्ग पर चलते रहें. जब तक जाति व्यवस्था है तब तक निचले पायदान पर रहने वालों को अन्य नेता नहीं मानेंगे. यह विडंबना है कि मुस्लिम को अन्य समाज नेतृत्व स्वीकार नहीं करेगा, और यही स्थिति दलित-आदिवासियों की है. राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस ही इनके लिए एकमात्र विकल्प है.

(डॉ. उदित राज पूर्व सांसद व असंगठित कामगार एवं कर्मचारी कांग्रेस तथा अनुसूचित जाति/ जनजाति संगठनों के अखिल भारतीय परिसंघ जैसे संगठनों के राष्ट्रीय चेयरमैन हैं. ये एक ओपिनियन आर्टिकल है और इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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