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क्या भारत के मुसलमानों को आरक्षण की जरूरत है?

जस्टिस रंगनाथ मिश्रा कमेटी और सच्चर कमेटी दोनों ने भारत में कई दशकों में मुस्लिम समुदाय के धीरे-धीरे मुख्यधारा के हाशिए पर चले जाने का ब्योरा दिया है.

बुरहान माजिद
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>भारतीय मुसलमानों के संदर्भ में क्या है संविधान का ढ़ाचा </p></div>
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भारतीय मुसलमानों के संदर्भ में क्या है संविधान का ढ़ाचा

फोटो:क्विंट हिंदी

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भारत जोड़ो न्याय यात्रा (Bharat Jodo Nyay Yatra) के दौरान 5 फरवरी को झारखंड के रांची में एक जनसभा को संबोधित करते हुए कांग्रेस नेता राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने आरक्षण पर 50 फीसद की सीमा पर बहस को फिर से हवा दे दी.

राहुल गांधी ने कहा, “अगर INDIA ब्लॉक सत्ता में आता है, तो वह आरक्षण पर 50 फीसद की सीमा को हटा देगा और सुनिश्चित करेगा कि दलितों, आदिवासियों, OBC को उनके अधिकार मिलें.” हालांकि, राहुल ने धार्मिक अल्पसंख्यक समूहों का जिक्र नहीं किया, लेकिन उनके बयान ने विधायी निकायों, सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में धार्मिक अल्पसंख्यक समूहों के लिए आरक्षण कोटा होने की लंबे समय से चली आ रही बहस को फिर से ताजा कर दिया.

नवंबर 2022 में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (EWS) के लिए केंद्र सरकार के 10 फीसद आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) के समर्थन के साथ, यह साफ है कि 50 फीसद की ऊपरी सीमा अंतिम नहीं है, जो भारत के सबसे बड़े मगर सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े धार्मिक अल्पसंख्यक समूह- मुसलमानों- के लिए आरक्षण में कोटा के विस्तार की पुष्टि करती है.

ध्यान देने वाली बात यह है कि, अन्य दलीलों के अलावा, मुसलमानों के लिए आरक्षण के विस्तार का इस आधार पर जोरदार विरोध किया जाता है कि अदालत ने पहले से ही संविधान के तहत कोटा के लिए 50 फीसद की सीमा तय कर रखी है.

बड़ी संख्या में अध्ययन रिपोर्टों के साथ-साथ सरकार की रिपोर्टों ने सकारात्मक कदम उठाने की वकालत की है, जिसमें मुसलमानों की नुमाइंदगी के लिए कोटा भी शामिल है.

उदाहरण के लिए, एक सरकारी रिपोर्ट जो 2007 में राष्ट्रीय धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक आयोग द्वारा प्रस्तुत की गई थी, ने संविधान के तहत जाति-आधारित कोटा के अलावा मुस्लिम समुदाय के लिए एक अलग आरक्षण कोटा का प्रस्ताव दिया है. इसी तरह का एक प्रस्ताव 2006 की ऐतिहासिक सच्चर कमेटी रिपोर्ट (Sachar Committee Report.) में भी पेश किया गया था.

हालांकि, इसमें साफ तौर से आरक्षण कोटा की सिफारिश नहीं की गई है, मगर रिपोर्ट में मुस्लिम समुदाय के लिए सरकार की तरफ से सकारात्मक कदम उठाने का सुझाव दिया गया है. वैसे, भारत का संवैधानिक रूप से अनिवार्य सकारात्मक कार्रवाई कोटा जाति-आधारित समूहों तक ही सीमित है.

जस्टिस रंगनाथ मिश्रा कमेटी और सच्चर कमेटी दोनों ने आजाद भारत में कई दशकों में मुस्लिम समुदाय के धीरे-धीरे मुख्यधारा के हाशिए पर चले जाने का ब्योरा दिया है. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट बताती है कि मुस्लिम IPS अधिकारियों की हिस्सेदारी मोटे तौर पर लगभग चार फीसद, IAS अधिकारियों की तीन फीसद और IFS अधिकारियों की दो फीसद से भी कम है. ध्यान देने वाली बात यह है कि 1983 में गोपाल सिंह कमेटी की रिपोर्ट में भी मुस्लिम नुमाइंदगी की लगभग यही तस्वीर पेश की गई थी, जो दर्शाती है कि 1983 और 2006 के बीच कुछ भी नहीं बदला. अफसोसनाक यह है कि 2006 के बाद से कुछ भी नहीं बदला है. मौजूदा समय में लोकसभा (संसद का निचला सदन) में कुल 545 सांसदों में से केवल 26 में मुस्लिम हैं, और सत्तारूढ़ दल जिसके पास सदन में पूर्ण बहुमत है उनमें एक भी मुस्लिम सांसद शामिल नहीं है.

मुस्लिम सब-कोटा के रूप में उम्मीद की एक किरण

इस साफ तौर से परेशान करने वाली स्थिति के बीच, कुछ राज्यों में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) श्रेणी के भीतर मुस्लिम सब-कोटा उम्मीद की एक किरण है. मुस्लिम समुदाय की वाजिब मांगों और 1980 में दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिशों के बाद, मुस्लिम जाति समूहों का एक छोटा हिस्सा OBC कैटेगरी में शामिल किया गया.

चूंकि सभी क्षेत्रों में मुसलमानों की नुमाइंदगी बहुत खराब रही है, इसलिए कुछ राज्यों ने शिक्षा संस्थानों और सरकारी नौकरियों में नुमाइंदगी बढ़ाने के लिए बढ़े हुए OBC कोटा के भीतर मुस्लिम समुदाय के लिए सब-कोटा तय करके एक अतिरिक्त उपाय किया है.

केरल और आंध्र प्रदेश राज्य में यह सब-कोटा दिया गया है. कर्नाटक में भी मुसलमानों के लिए 4 फीसद का ऐसा ही सब-कोटा था, जिसे पिछले साल की शुरुआत में राज्य में भारतीय जनता पार्टी (BJP) की सरकार के दौरान खत्म कर दिया गया. दिलचस्प बात यह है कि बिहार और तमिलनाडु राज्यों ने लगभग पूरे मुस्लिम समुदाय को पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों में वर्गीकृत कर उन्हें आरक्षण का फायदा दिया है. पश्चिम बंगाल राज्य में भी ऐसा ही फ्रेमवर्क है. हालांकि 2011 में UPA सरकार द्वारा पहली बार अखिल भारतीय स्तर पर मुस्लिम समुदाय के लिए सब-कोटा की कोशिश की गई थी, लेकिन अदालत द्वारा इसे खारिज कर दिया गया, जिससे सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के बीच का फासला और लंबा हो गया.

जैसा कि कुछ राज्यों में सीमित सब-कोटा लागू है, ऐसा माना जाता है कि इसने मुस्लिम OBC को नुमाइंदगी बढ़ाने में कुछ मदद की है क्योंकि ऐसा नहीं होने पर उन्हें अपने हिंदू समकक्षों के साथ मुकाबला करना मुश्किल होता. इससे भी बड़ी बात यह कि हाशिए पर मौजूद धार्मिक समूहों के आरक्षण का इस आधार पर भी विरोध किया गया है कि यह धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का उल्लंघन करता है, जिस पर अदालतों ने विरोधाभासी रूप से सहमति जताई है. जबकि सच्चाई यह है कि एक धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक राज्य को धर्म-आधारित भेदभाव से खतरे में पड़े समूहों को आश्वस्त करने की जरूरत है कि वह उनके मुख्यधारा में शामिल करने के पक्ष में है.

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मुस्लिम और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS)

संविधान (103वां संशोधन) अधिनियम, 2019 द्वारा आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) को अलग से 10 फीसद आरक्षण कोटा देते हुए यह तर्क दिया गया है कि इस कोटे से मुस्लिम समुदाय को भी फायदा होगा. पिछले साल सुप्रीम कोर्ट के सामने कर्नाटक द्वारा 4 फीसद के मुस्लिम सब-कोटा को खत्म करने को चुनौती देने वाली याचिकाओं की शुरुआती सुनवाई के दौरान सरकार के बचाव में यह तर्क प्रमुखता से रखा गया था.

हालांकि EWS श्रेणी के तहत आर्थिक मानदंडों की ऊपरी सीमा, जो 8 लाख रुपये है, और मुसलमानों की बेहद खराब आर्थिक दशा को देखते हुए, किसी को गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि मुस्लिम समुदाय बहुसंख्यक समुदाय के अपने समकक्षों के साथ मुकाबला करने में सक्षम होगा या नहीं.

ब्रिटिश शासन में भारत के धार्मिक अल्पसंख्यकों को सकारात्मक कदमों का फायदा मिलता था. 1997 में Asian Survey में प्रकाशित एक पेपर ‘ए न्यू डिमांड फॉर मुस्लिम रिजर्वेशन इन इंडिया’ में थियोडोर राइट ने लिखा है, “ब्रिटिश सरकार के अधिकारियों ने 1909 में विधानसभाओं और 1926 में अलग निर्वाचन क्षेत्रों में मुसलमानों के लिए सीटें आरक्षित की थीं, और उनकी 24 फीसद आबादी की नुमाइंदगी के लिए सिविल सर्विस में 25 फीसद का कोटा तय किया गया था.”

मुसलमानों के आरक्षण का सवाल संविधान सभा की बहसों (CAD) में भी प्रमुखता से उठा. जोया हसन अपनी किताब ‘पॉलिटिक्स ऑफ इंक्लूजन: कास्ट, माइनॉरिटीज, एंड अफर्मेटिव एक्शन’ में लिखती हैं, “दिसंबर 1946 और अगस्त 1947 के बीच CAD की बैठकों में अल्पसंख्यकों के डर और आशंकाओं को दूर करने के संभावित उपाय के तौर पर आरक्षण पर बात हुई थी.” हालांकि, बाद की घटनाओं, खासतौर से देश के बंटवारे और संविधान सभा के कुछ सदस्यों के कड़े विरोध के चलते, मुस्लिम नेतृत्व को सामाजिक अधिकारों और सुरक्षा की मांग को सांस्कृतिक और धार्मिक अधिकारों में बदलना पड़ा.

सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन के हैरान कर देने वाले खराब स्तर वाले पूरे मुस्लिम समुदाय को किसी भी अन्य सामाजिक समूह की तरह एक पिछड़ा ‘सामाजिक समूह’ (social group) माना जाना चाहिए. इसके हिसाब से शिक्षा संस्थानों में दाखिले, सरकारी नौकरी और राजनीतिक नुमाइंदगी के मामले में ‘सामाजिक समूह’ के लिए एक अलग कोटा तय किया जाना चाहिए, जिसमें मुसलमानों के बीच क्रीमी लेयर नियम और जाति/वर्ग भेदभाव के आधार पर अंतर हो.

इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ और अन्य (1992) मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा “पिछड़ा वर्गों” को तय किए जाने के बारे में दिए गए विस्तृत दिशानिर्देश एक मार्गदर्शक फ्रेमवर्क का काम कर सकते हैं. ऐसे समय में जबकि कुछ देश जातीय और धार्मिक अल्पसंख्यकों को समायोजित करने के लिए सत्ता में साझेदारी व्यवस्था पर विचार-विमर्श कर रहे हैं, एक संवैधानिक लोकतंत्र मुस्लिम समुदाय के पक्ष में कम से कम आरक्षण की पेशकश तो कर ही सकता है.

(NALSAR यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ, हैदराबाद में डॉक्टरेट के फेलो बुरहान माजिद भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों के संवैधानिक समायोजन पर काम कर रहे हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यह लेखक के अपने विचार हैं. द क्विंट इनके लिए जिम्मेदार नहीं है.]

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