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“आवाज आई-
तुम्हारी आवाज ही क्यों?
मेरी क्यों नहीं?
अगर मेरी नहीं तो तेरी नहीं.
तेरी नहीं तो किसी की नहीं”
(इसी किताब से)
भाषा व शब्दों का भंडार अपनी जगह और साहित्य व संवेदना की समझ अपनी जगह. कहानियों के भीतर कहानी और विचार के भीतर विचार वाली पुस्तक ‘रेत समाधि’ में साहित्यिक समाधि लगानी होगी. डूबना होगा संवेदना और सरोकार के रेतीले-समन्दर में. और शायद इतना ही काफी है इस गाथाई सिसकियों और अकुलाहट को समझने के लिए.
यह कहानी है मुक्ति की- और है ‘नहीं’ की, या कहे प्रतिरोध की- वृद्ध हो चुके स्त्री के प्रतिरोध की, युवा स्त्री के प्रतिरोध की. प्रतिरोध का रंग-रूप इतना प्रचंड कि गांधी के तीन बन्दरों के विचार को एक सिरे से उलटते हुए हैं. उनके विचार कि ‘न देखेंगे, न सुनेंगे, न बोलेंगे के बदले चुना कि जो देखेंगे सुनेंगे, वो बोलेंगे’. लैंगिक बाइनरी में धंसे-फंसे समाज और सत्ता को धता बताते एक ट्रांसजेंडर पात्र रोजी की पीड़ा और उसका प्रतिरोध भी है इसमें. मजहब, अल्लाह-ईश्वर और इसके ठेकेदारों को लताड़ते हुए वह कहती है- “हमारी गिनती न मुस्लमीन, किरस्तान में न यहूदी, पारसी, हिन्दू में, न आदमी-औरत में, हमारा नाम नहीं लेना, हमें पहचानना नहीं...हमें असल क्या, तसव्वुर से ही गायब रखना चाहते हैं”.
यह बाइनरी से बाहर निकल कर लैंगिक विषमता और इसकी बहुलता की सहज और स्वाभाविक स्वीकारोक्ति की घोषणा भी है उस समाज के विरुद्ध जिसमें “शोरशराबे का गुणगान करनेवाले चुप-शांत को मकबरा कहते हैं. कोई नदी को गीला, रेगिस्तान को सूखा कहते हैं. बेसाख्ता हड़पते झपटते को मरदे-मर्दा कहते हैं. और नेकबख्त औरत उसे जो नुचे पिटे और जब्त करें”.
लेखिका का दावा है और जो उनके लेखन में झलकता-छलकता भी है कि “गाथा की कोई मुख्यधारा जरुरी नहीं. उसे छूट है कि भागे, बहे, नदी, झील, नए-नए सोते में”. यह किताब वाकई एक गाथा है जो शैली, कथ्य, शिल्प सब कुछ में मुख्यधारा के लेखन की दीवार को ढाहती-लांघती नजर आती है.
रचना में दैनिक बोलचाल के भदेश शब्दों का चयन और निर्माण व्याकरणीय सुचिता के बोझ से मुक्त है. एक प्रकार से यह लोकभाषा का विश्व-अवतार है. लेखिका ने शब्दों को सड़कों से उठाकर साहित्य के संसद तक पहुंचाया है. यह लाजवाब है. हिंदी साहित्य में जैसे बोला जाता है वैसे लिखा कभी-कभी ही गया है, और जब लिखा गया तो वह कालजयी ही हुआ; चाहे प्रेमचंद की रचना हो या रेणु की. ‘रेत-समाधि’ बोले गए में उस गंभीर दर्शन को खोजता है जो लिखे गए में आमतौर पर नहीं होता. अनगिनत ऐसे शब्द किताब में सजीव रूप से मचलते-टहलते दिखते हैं.
ये सुंदर भी हैं और अपने कहन में दमदार भी. जैसे- जिसलिए, दंदफंद, टिन्नाई, नहनाह, खफाती, फंफाती, पींपियाती, फटेला, तना गई, उमगना, गपाष्टक, ठिलठिलाहत, बेहंस, लटालह, चुमकारने, गमकीली, कागाफूसी आदि शब्द लेखन के लिए शायद ही उपयुक्त माने जाते रहें हैं, लेकिन लेखिका ने आश्चर्यजनक रूप से अनगढ़ माने जानेवालों शब्दों से गगनभेदी गाथा लिखी है, जिसने हिंदी साहित्य लेखन में एक नई परम्परा का निर्माण किया है. इस आख्यान ने भाव की सत्ता को शब्द की सत्ता से ऊपर खड़ा किया.
हिंदी लेखन शैली के परंपरागत दुर्गम और अजेय किलों को नेस्तनाबूद करने के अलावा किताब ने समाज, राजनीति, मजहब, कला, संस्कृति को भी छुआ ही नहीं, बल्कि जहां-जहां छुआ, वहां निर्ममता से छुआ. हालांकि कई जगह बच-बचाकर हुए छुवन का भी अहसास होता है.
अंग्रेजी की बीमारी से ग्रसित समाज और सत्ता में अपनी-अपनी भाषा और बोलियों को लेकर जो हीन ग्रंथि है उसपर लेखिका की यह पंक्ति उन्हें औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त करने की कोशिश है, न कि अंग्रेजी की आलोचना करना या फिर इसकी जरुरत को नकारना. जिस भाषा में पले-बढ़े, जिसमें सपने देखे, जिसमें प्रेम किया, जिसमें रोया, जिसमें हंसा तो उस भाषा को बोलने में यह संकोच, मानसिक गुलामी नहीं तो और क्या है! मुक्त मस्तिष्क के लिए मूल भाषा का कोई विकल्प नहीं होता.
स्त्री किरदारों और उनकी संवेदनाओं के बहाने समाज, मजहब, सत्ता सब की संवेदनहीनता को उजागर करती हुई इस किताब ने एक तरह से आमजन की बेचैनी और छटपटाहट को भी बखूबी रखा. लेखिका के शब्दों में अगर स्त्री के संघर्षों को देखें तो यह है- “पीठ को घिसता, रेत बनाता. वो उसमें धंसती, रेत और फैलती. उस पर चला जा सकता है. वो चल सकती है, चलती चले. नंगे पांव. हवा चले, रेत फिसले. वो उसमें धंसे...”. यह पीठ घिसना...रेत में चलना, धंसना क्या हमारी और आपकी कहानी नहीं है! मर्दों की कहानी, नामर्दों की कहानी, बच्चों की कहानी, बूढ़ों की कहानी, मजदूरों की कहानी, किसानों की कहानी, और न जाने किस-किस की कहानी. जिस-जिस के भीतर स्त्री है उन सबकी कहानी. सरहद बदलने से इनमें से किसकी तकदीर बदलती है?
अंतिम पन्नों में विभाजन की त्रासदी को झकझोरती किताब राष्ट्र और कौम की सरहदों की कृत्रिमता और अमानवीयता को दिखाती है और लिखती है- “हमारी किसे पड़ी, हम हैं ही नहीं, और हैं नहीं तो अपने हक हुकूक क्या, और हैं नहीं तो पासपोर्ट क्यों, ऐसे ही बॉर्डर आर और पार”.
मजहब और इसकी हिंसा व सत्ता और इसकी साजिश में उलझे हुए लोगों की लाचारगी के बारे में वे लिखती हैं-
आज जो है वह कल नहीं है, कल को बनाए रखने में आज बेहाल है. इस बेहाली-बदहाली में ‘भूमिकाओं का एक तरह से हरण-अपहरण’ हो गया है, जो जिस भूमिका में है वह उसकी असली भूमिका नहीं है, बनावटीपन का साम्राज्य है चारों तरफ.
वह लिखती हैं- “एक वक्त था, कहते हैं, जब सब निर्धारित था, ...मगर अब तो सारी प्रकृति गफलत में है....बूंद कब आएगी वो समय तय नहीं, आ के रुकना भूल जाएगी या कि झपक मार के आंख बंद कर लेगी और फिर पलकें झपकाना भूल जाएगी, ये नहीं पता...”. बाजारवाद और मुक्त अर्थव्यवस्था से पैदा हुई अस्थिरता और असुरक्षा से लोग हताश हैं. इन्हें लगता है इनकी सुरक्षा केवल सरकारी होने में हैं. “सरकारी विभाग सबकी तड़प और तलब..”.
निजी होते संस्थानों में कुछ भी निजी नहीं और इसलिए “..चपरासी, कांस्टेबल, टाइप बाबू, ड्राइवर, माली, कुछ बना दो, पर सरकारी दफ्तर में...”. सत्ता और अर्थव्यवस्था से बदले हुए सामाजिक मूल्यों और रिश्तों के बीच जी रहे लोग और उनकी कश्मकश का आख्यान है यह किताब.
जगमगाती-जागती, भागती-हांफती सभ्यता और उसमें घुट रहे लोगों की कथा भी है यह किताब. स्त्री, वृद्ध स्त्री दुख और वेदना, स्मृति और विस्मृति का प्रतीक ही तो है. और यही किताब की केन्द्रीय विषय वस्तु है. इसका पढ़ा जाना खुद को पढ़े जाना है.
(स्तंभकार केयूर पाठक रैफल्स यूनिवर्सिटी, नीमराना में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं और धीरज तिवारी बीएचयू में समाजविज्ञान विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां लिखे विचार लेखकों के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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Published: 24 Jul 2022,10:43 PM IST