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आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के इस बयान का मतलब क्या है कि जहां भारतीय सेना को युद्ध के लिए तैयार होने में सात महीने लगते हैं (वह यहां दिसंबर 2001 में संसद पर हमले के बाद 'ऑपरेशन पराक्रम' का जिक्र कर रहे थे), लेकिन वह अपने स्वयंसेवकों को तीन से चार दिन में तैनात कर सकते हैं.
क्या इसका मतलब यह है कि सेना को स्वयंसेवकों और आरएसएस से यह ड्रिल सीखनी चाहिए? क्या इस बयान में ऐसा भी कोई संकेत था कि वक्त आने पर वॉलेंटियर के तौर पर (संविधान में संशोधन के बाद) उन्हें सीमा पर तैनात किया जा सकता है? भागवत के बयान में एक रणनीतिक संदेश छिपा है, जिसे समझने की जरूरत है.
स्वयंसेवक की छवि निस्वार्थ भावना से काम और अनुशासन का पालन करने वाले की रही है, जो देशभर में बीजेपी के चुनाव प्रचार में बड़ी भूमिका अदा करते आए हैं. स्वयंसेवकों में भले ही कई गुण हों, लेकिन उन्हें और आरएसएस को देश की सेना से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है.
भारतीय सेना गैर-राजनीतिक, धर्मनिरपेक्ष और पेशेवर है. किसी भी युद्ध में जीत के लिए ये जरूरी गुण माने जाते हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि भारतीय सेना पर राजनीतिक नियंत्रण है. दुनिया के बहुत कम देशों के पास ऐसी सेना है.
भारतीय सेना की सबसे बड़ी खूबी इसका धर्मनिरपेक्ष चरित्र है, जो इसकी आत्मा में रचा-बसा हुआ है. आरएसएस को समझना चाहिए कि धर्मनिरपेक्ष होने का मतलब जितना हिंदू जाट या गोरखा होना है, उतना ही भारतीय होना भी है.
आरएसएस हिंदू राष्ट्रवादी संगठन है, जिसे गैर-हिंदू आदर्शों और परंपराओं का सम्मान करना चाहिए. भारतीय सेना में ऐसी रेजिमेंट भी हैं, जिनमें एक ही बटालियन में हिंदू और मुस्लिम कंपनियां होती हैं और जो मिलकर दुश्मन का मुकाबला करती हैं.
देश के अलग-अलग क्षेत्रों से आए स्पेशल फोर्सेज का जो योगदान रहा है, वह हमारे देश में धर्मनिरपेक्ष मिलिट्री ऑपरेशंस की मिसाल है. वहीं, बीजेपी सांसद विनय कटियार जैसे लोगों के बयान से देश की एकता और सेना के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को नुकसान पहुंच रहा है.
कटियार ने कहा था:
ध्यान दें कि आरएसएस ने कटियार के बयान को गलत नहीं बताया है.
ट्रेनिंग कैसी होनी चाहिए, आरएसएस भारतीय सेना से यह भी सीख सकता है. सियाचिन और नियंत्रण रेखा पर जवानों को किस तरह के हालात का सामना करना पड़ता है और कैसे वो मुश्किल हालात में सजग रहकर देश की रक्षा करते हैं, अगर स्वयंसेवकों को कुछ समय तक यह दिखाया जाए, तो उन्हें यह बात समझ में आएगी. वैसे भी भागवत ने कहा ही है कि संविधान में संशोधन हो, तो स्वयंसेवकों को सीमा पर तैनात किया जा सकता है.
उन्होंने दावा किया कि आरएसएस ने युद्ध के दौरान सेना की मदद की थी. उनके मुताबिक, तब स्वयंसेवक कम्युनिकेशन लाइन की निगरानी कर रहे थे. भागवत भी सेना की मदद कर सकते हैं. वह अपने दोस्त, आरएसएस प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सेना के आधुनिकीकरण के लिए रक्षा बजट बढ़ाने को कह सकते हैं. अगर आधुनिक हथियार और उपकरण होते तो नियंत्रण रेखा पर कई सैनिकों की जिंदगी बच गई होती. भागवत साहब, आप मेरी बात सुन रहे हैं ना?
देश के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती यह है कि उसे सीमापार से जम्मू-कश्मीर के अंदरूनी इलाकों में बार-बार हमलों का सामना करना पड़ रहा है. हमने वॉलेंटियर्स का खुफिया ऑपरेशंस के लिए एक देशव्यापी नेटवर्क नहीं बनाया है. हमारे देश के नेता बार-बार पड़ोसी देश को मुंहतोड़ जवाब देने की बात करते हैं. इसमें उससे मदद मिल सकती है. इस मामले में हम कम से कम 30 साल की देरी कर चुके हैं. कम से कम अब तो हमें यह काम कर लेना चाहिए. आरएसएस के स्वयंसेवक भी इस नेटवर्क का हिस्सा हो सकते हैं.
आरएसएस प्रचारक और स्वयंसेवक सेना के मूल सिद्धांतों और परंपराओं से बहुत कुछ सीख सकते हैं, लेकिन पहले उन्हें यह साबित करना होगा कि वे हिंदू होने के साथ धर्मनिरपेक्ष भी हो सकते हैं. यह राष्ट्रहित में उनका योगदान होगा और भागवत साहब, इसके लिए संविधान में संशोधन करने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी.
(रिटायर्ड मेजर जनरल अशोक के मेहता डिफेंस प्लानिंग स्टाफ के संस्थापक सदस्य हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 14 Feb 2018,06:13 PM IST