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कुछ हफ्ते पहले ऐलान किया गया था कि पर्वतारोही संतोष यादव राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के विजयादशमी उत्सव में खास मेहमान होंगी. इसी से यह अनुमान लगाया गया कि क्या लगभग एक सदी पुराना यह संगठन किसी दूसरी परंपरा को तोड़ेगा. ऐसा सोचने की वजह थी. ऐसा पहली बार हुआ था कि आरएसएस (RSS) ने एक महिला को मेहमान बनने का न्योता दिया था.
इस कार्यक्रम में सरसंघचालक मोहन भागवत ने इन विचारों पर विराम लगा दिया. उन्होंने साफ कहा कि व्यक्तित्व निर्माण (व्यक्तिगत विकास) का कार्यक्रम आरएसएस और राष्ट्र सेविका समिति- उससे संबंधित महिला संगठन- "अलग-अलग" चलाते रहेंगे.
राष्ट्र सेविका समिति की स्थापना 1936 में लक्ष्मीबाई केलकर ने की थी. उनके पति की मृत्यु गई थी और उनका बेटा एक स्वयंसेवक था. तब से अब तक 2400 शहरों, कस्बों, बस्तियों और गांवों में इसकी लगभग 3,000 शाखाएं चलती हैं और इसकी सदस्यों यानी सेविकाओं की संख्या लगभग 55,000 है.
आरएसएस में महिलाओं की कोई भूमिका नहीं है और सेविका समिति आरएसएस की महिला शाखा नहीं है. इसके बावजूद भागवत ने कहा, "बाकी सभी कार्य पुरुष और महिलाएं संयुक्त रूप से करते हैं." उन्होंने कहा कि यह भारतीय परंपरा का हिस्सा है, फिर भी "इसे भुला दिया गया और मातृ शक्ति की सीमाएं तय कर दी गई हैं."
हालांकि, भागवत ने दावा किया कि अब महिलाओं को सशक्त बनाया जा रहा है और संघ परिवार और उनसे प्रभावित संगठनों के भीतर उनकी भूमिका बड़ी हो रही है. उन्होंने कहा कि एक सर्वेक्षण में भी यह बदलाव नजर आया है. अलबत्ता, इस अध्ययन के निष्कर्षों की प्रकृति विवादास्पद है. आरएसएस से जुड़े पुणे के एक संगठन दृष्टि स्त्री अध्ययन प्रबोधन केंद्र (डीएसएपीके) ने 2017 में यह अध्ययन किया था.
जाहिर है, संतोष यादव को राजनीतिक संदेश देने के लिए बुलाया गया था. संदेश यह था कि महिलाएं अब आरएसएस और उसकी गतिविधियों के छोर पर नहीं रहेंगी. यह बीजेपी और उसके दूसरे सहयोगियों की सोच को दर्शाने की कोशिश थी कि राजनीति में अधिक से अधिक लैंगिक समानता होनी चाहिए और समय के साथ महिलाओं की सार्वजनिक भूमिका को बढ़ाए जाने की जरूरत है. मुख्य अतिथि का चुनाव संकेत देता था कि इस मुद्दे पर आरएसएस में खुलापन है.
लेकिन यहां हम डीएसएपीके के अध्ययन को न भूलें. 2017 में इसकी रिपोर्ट में दावा किया गया था कि शादीशुदा महिलाएं अपार प्रसन्न होती हैं, जबकि लिव-इन रिलेशनशिप रखने वाली औरतें कम संतुष्ट दिखाई देती हैं. सर्वे में यह भी कहा गया था कि जिन महिलाओं ने भौतिक संसार को त्याग दिया था या जो गहन आध्यात्मिक थीं, वे सबसे खुश थीं.
स्टडी में यह भी दावा किया गया था कि महिला की वैवाहिक स्थिति से उसके रोजगार की स्थिति भी निर्धारित होती है. यह भी कहा गया था कि तलाकशुदा महिलाओं के शादीशुदा महिलाओं की तुलना में काम करने की अधिक उम्मीद थी.
खास तौर से कहा गया था कि शादीशुदा महिलाओं के मुकाबले गैर शादीशुदा औरतों के अस्पताल में भर्ती होने की अधिक आशंका होती है. इससे इस बात की तरफ इशारा किया गया था कि शादी औरतों को स्वस्थ बनाती है और उनके बीमार पड़ने की आशंका कम होती है.
महिलाओं को लेकर आरएसएस का जो नजरिया है, वह बताता है कि पिछले 90 सालों से संगठन की सोच जस की तस है. 1930 के दशक में संगठन में इस बात पर बहस छिड़ी थी कि क्या महिलाओं को संगठन में शामिल किया जाए.
जाहिर है, इससे इनकार किया गया और फिर सेविका समिति बनाई गई क्योंकि आरएसएस वाले ब्रह्मचर्य का पालन करते थे, इसीलिए प्रचारकों के साथ औरतों के घुलने-मिलने को गैर मुनासिब माना जाता था.
शुरुआत से ही आरएसएस पितासत्ता की मानसिकता रखता था, और इस सोच में कोई बदलाव नहीं हुआ है. इसीलिए संतोष यादव को न्यौता देने या महिला उम्मीदवारों को ज्यादा संख्या में चुनावी मैदान में उतारने जैसे कदम महज दिखावा हैं.
जब आरएसएस की स्थापना हुई थी, तब से वह हिंदुओं की आपसी फूट का शिकार रहा है, चूंकि हिंदू समाज में ढेरों दरारें रही हैं. हालांकि हिंदुत्व के पैरोकार विनायक दामोदर सावरकर चाहते थे कि इन रुकावटों को तोड़ा जाए.
1920 के दशक के अंत में रत्नागिरी में खुली नजरबंदी में रहते हुए, उन्होंने 'अछूतों' (जैसा कि उस समय अनुसूचित जाति के सदस्यों को कहा जाता था) के लिए मंदिरों में दाखिले के लिए अभियान चलाया. यह बात और है कि आरएसएस के चार्टर में यह अभियान लंबे समय तक बरकरार नहीं रहा.
हालांकि आरएसएस-बीजेपी ने सोची-समझी रणनीति के तहत संगठन के ढांचे में पिछड़ों को शामिल करने की कोशिश की लेकिन अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है. बीजेपी के सांसदों और विधायकों में उच्च जाति के लोगों की ही बहुतायत है.
भागवत ने अपने भाषण में इसका जिक्र भी किया था. लाजमी है, वे इस बात से वाकिफ हैं कि जातिगत विभाजन हिंदू एकता के रास्ते का रोड़ा है. मोहन भागतव का कहना है, "भारतीय संविधान ने राजनीतिक और आर्थिक समानता का निर्माण किया लेकिन सामाजिक समानता के बिना वास्तविक और स्थिर परिवर्तन संभव नहीं है."
उन्होंने यह भी कहा कि 'नियम' (उन्होंने 'आरक्षण' शब्द का इस्तेमाल नहीं किया था, जिस पर संघ परिवार ने अलग-अलग प्रतिक्रियाएं दीं) "इस उद्देश्य (सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए) को प्राप्त करने के लिए बनाए गए थे."
सरसंघचालक की इस टिप्पणी से आप बहकावे में आ सकते हैं कि "असमानता का मूल कारण हमारे दिमाग, सामाजिक कंडीशनिंग और आदत में है" और यह भी कि "जब तक कि मंदिर, नदियां-तालाब-कुएं और श्मशान सभी हिंदुओं के लिए नहीं खोले जाते, तब तक समानता की बात करना मृगतृष्णा के जैसा है.“
हालांकि यह विचार सिर्फ इसलिए जताया गया क्योंकि जातियों का वर्गीकरण प्रतिगामी है, न कि पूरी जाति व्यवस्था पर चोट करने का इरादा था जो स्वतः लोगों को उनकी विशिष्ट सामाजिक भूमिकाओं और पेशों के आधार पर बांटती है.
जब तक त्वचा या उपनाम में मौजूद जगजाहिर चिन्हों को हटाया नहीं जाता, तब तक हिंदू समाज में गैरबराबरी कायम रहेगी.
इसीलिए आरएसएस से बार-बार यह पूछा जाता है कि क्या उसने अपनी सोच बदलने के बारे में सोचा है. लेकिन क्या संगठन उन तौर-तरीकों में बदलाव किए बिना खुद को संवार सकता है, जिनके चलते वह और उससे जुड़े संगठन मुसलमानों के खिलाफ मौजूदा सामाजिक पूर्वाग्रहों को और गहरा करते हैं?
जैसा कि संघ परिवार लंबे समय से दलील देता है. यह एक इस्लामिक साजिश है जो अंततः हिंदुओं को "अपने ही देश में अल्पसंख्यक" बना देगी. बदलते समय के साथ इस फेहरिस्त में कई दूसरी साजिशों के नाम जोड़े गए जैसे 'लव जिहाद'.
शीर्ष नेताओं ने कभी ऐसे आपत्तिजनक बयान नहीं दिए, लेकिन उनके भाषणों का यही भावार्थ है. भागवत के भाषण से यही संदेश मिलता है और उन लोगों को उकसाता है जो इस इकोसिस्टम का हिस्सा हैं.
(लेखक, NCR में रहने वाले लेखक और पत्रकार हैं. उनकी हालिया पुस्तक द डिमोलिशन एंड द वर्डिक्ट: अयोध्या एंड द प्रोजेक्ट टू रिकॉन्फिगर इंडिया है. उनकी अन्य पुस्तकों में द आरएसएस: आइकॉन्स ऑफ द इंडियन राइट और नरेंद्र मोदी: द मैन, द टाइम्स शामिल हैं. वह @NilanjanUdwin पर ट्वीट करते हैं. इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करत है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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