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दक्षिणपंथी संगठनों, खासकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे संबंधित संगठनों की राजनीति के बारे में लिखते हुए भारतीय पत्रकारों और लेखकों में एक किस्म की बेचैनी रहती थी. बेचैनी की वजह थी इन संगठनों में गोपनीयता का माहौल, जो तमाम मुद्दों को उलझाए रखता था. 1980 के दशक के मध्य से इन संगठनों की सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियां तेज हुईं और पत्रकारों का ध्यान उनकी ओर आकर्षित होना शुरू हुआ.
बातचीत का माहौल 'आपसी सद्भावना' से भरा हुआ था, क्योंकि इस दौरान न सिर्फ मोहन भागवत को सुनने का मौका मिला, बल्कि उनसे चुभते हुए सवाल भी किये गए. अच्छी बात ये रही कि उन्होंने हर सवाल का जवाब दिया. हालांकि ज्यादातर पत्रकारों का मानना था कि 'राजनीतिक विषयों' से जुड़े कड़वे सवालों के जवाब को RSS प्रमुख ने चतुराई के साथ 'सांस्कृतिक जामा' पहना दिया.
एक मेहमान ने बताया कि मंगलवार को 'बंद दरवाजे के भीतर' बातचीत हुई. ये कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं थी. हालांकि मेहमानों को इस बात की इजाजत थी कि वो “बाद में कभी अपने लेखन में इस बातचीत का जिक्र कर सकते हैं.” हालांकि उनसे ये भी कहा गया कि भागवत की कही गई कोई भी बात उनके निजी विचार नहीं हैं और उनका इस्तेमाल 'बैकग्राउंड मटेरियल' के रूप में किया सकता है.
खासकर ये कहा गया कि ये बातचीत चाथम हाउस नियमों के अनुरूप हुई है. लेकिन ज्यादातर मेहमानों के लिए इस मामले में कुछ हद तक ढील थी कि उन्हें भागवत की सोच और विचारों को सुनने-जानने का मौका मिला.
एक तरह से RSS का ये 'ग्लास्नोस्ट' भागवत की पहल थी. ये पहल तीन दिनों के अपने भाषण सीरीज के करीब सालभर बाद उठाई गई. पिछली बार राष्ट्रीय राजधानी में लुटियंस जोन के कुछ चुनिन्दा लोगों को आमंत्रित किया गया था. इनमें कम से कम एक श्रोता का कहना था कि सितम्बर 2018 में हुए भाषण की तुलना में इस बार थोड़ी विविधता थी. दूसरे सत्र में सवाल-जवाब के दौरान भागवत सहज थे. करीब एक घंटे तक चले पहले सत्र में सिर्फ सरसंघचालक का भाषण हुआ.
इससे पहले 2016 में भी भागवत ने प्रिंट मीडिया के कुछ चुनिंदा पत्रकारों के साथ बंद दरवाजे के भीतर बातचीत की थी. उस वक्त भी ताकीद की गई थी कि बातचीत कमरे के बाहर नहीं जानी चाहिए. लेकिन कम से कम एक पत्रकार ने RSS का निर्देश मानने से इंकार कर दिया था और बातचीत के मुद्दे लोगों के सामने आ गए. देखना है कि “बाद के किसी समय” बातचीत के बारे में बताने के निर्देश की कोई पत्रकार किस प्रकार प्रकार व्याख्या करता है – चंद घंटों बाद या कुछ दिनों बाद.
लेकिन जैसा एक मेहमान ने कहा, ये देखते हुए कि भागवत ने पुराने निर्देश दोहराए हैं, “भविष्य में बातचीत की संभावना को जोखिम में नहीं डालना चाहिए.” जिन अहम बातों पर जोर दिया गया, उनमें पहला था कि RSS “राजनीतिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक संगठन है.” दूसरी बात थी कि 99.9 फीसदी भारतीय मूल रूप से हिन्दू हैं. सिर्फ 0.1 प्रतिशत मुस्लिम विदेशी मुस्लिमों के वंशज हैं. बाकी सभी मुस्लिम “मूल रूप से हिन्दू थे, जिन्होंने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया.” तीसरी महत्त्वपूर्ण बात थी कि उन्होंने ट्विटर को लेकर 'सावधानी बरतने' को कहा, ताकि कोई दूसरा व्यक्ति उनके नाम पर इस प्लेटफॉर्म का दुरुपयोग न करे.
मंगलवार को हुई मुलाकात का माहौल अमेरिकी विदेश विभाग के अधिकारी वॉल्टर एंडरसन के अनुभव के बिलकुल विपरीत था. एंडरसन दो पुस्तकों के सहलेखक थे – 1980 के दशक के मध्य में लिखी गई “The Brother In Saffron” और 2018 में लिखी गई “RSS: A View to the Inside”. दूसरी किताब विवादों में घिर गई थी.
सहलेखक श्रीधर दामले ने आरोप लगाया कि पुस्तक की जो रूपरेखा तय की गई थी, वो उससे भटक गई. प्रकाशन के बाद पुस्तक के प्रचार से भी वो दूर रहे. किताब में एंडरसन के कमेंट संघ की एक झलक दिखाते हैं, जिसका अनुवाद है, “RSS को समझना बेहद मुश्किल है और गलतफहमी होना बेहद आसान है.”
एंडरसन 1960 के शुरुआती दिनों समय में दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र थे, जब कपिल सिब्बल जुबली हॉल में रहते थे. वहीं उनकी मुलाकात RSS नेता एकनाथ रानाडे से हुई. कई बार मिलने के बाद उन्होंने एमएस गोलवलकर के साथ उनकी मुलाकात कराई.
एंडरसन की नागपुर यात्रा बड़ी रोचक और नाटकीय रही – संघ के एक कार्यकर्ता का जिम्मा अमेरिकी नागरिक को स्टेशन तक पहुंचाने का था. वहां उनका परिचय एक और शख्स से कराया गया (दामले का दावा है कि एंडरसन का परिचय उनसे कराया गया था). वो उन्हें बॉम्बे ले गए, जहां दोनों रातभर के लिए रुके.
अगले दिन RSS का एक दूसरा कार्यकर्ता एंडरसन को लेकर नागपुर गया. नागपुर में गोलवलकर के साथ एक छोटी मुलाकात के बाद उन्हें अगली सुबह साढ़े छह बजे लौटने को कहा गया. उन्हें एक संघ प्रचारक से मांगी गई साइकिल दी गई.
एंडरसन ने पिछले साल एक पत्रकार को कहा, “मुझे लगता है कि ये मेरी जांच हो रही थी, जबकि मैं खुद लौट सकता था. मुझे लगा कि ये प्राचीन हिन्दू परम्परा है, जिसमें एक लड़की को शतरंज खेलने के लिए कहा जाता था, ताकि ये तय किया जा सके कि उसमें शादी करने योग्य बुद्धिमत्ता है या नहीं.”
मंगलवार की मुलाकात के दौरान ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. लेकिन RSS को उम्मीद है कि तुरंत बैठक के बारे में जानकारी न देने के उनके निर्देश का सम्मान किया जाएगा. काफी हद तक ये भरोसा वर्तमान समय में सत्ता में बैठी राजनीतिक ताकत के कारण भी है. बताया जाता है कि भागवत ने ये भी कहा कि पत्रकार उनसे मिलने और उन्हें सुनने के इच्छुक नहीं थे.
बताया जाता है कि उन्होंने पत्रकारों के बारे में ये कहा, “अगर दस साल पहले ये बैठक बुलाई जाती, तो इनमें से कई लोग नहीं आते.”
नागपुर का नेतृत्व जानता है कि जिस संगठन में प्रवेश के लिए लिंग और धर्म के आधार पर दरवाजे बंद रहते हैं, उसे भाईचारा के रास्ते में एक रुकावट के रूप में देखा जाता है. भागवत निश्चित रूप से इस मान्यता को तोड़ना चाहते हैं, जिसकी शुरुआत उन्होंने पिछले साल दी गई अपनी बयानों से की है – “हिन्दू राष्ट्र का अर्थ यह नहीं कि यहां मुस्लिम समुदाय के लिए कोई जगह नहीं है” और अगर “मुस्लिम दूर हो गए” तो हिन्दुत्व के मायने नहीं रह जाएंगे.
निश्चित रूप से उन्होंने इस मौके का इस्तेमाल RSS का इतिहास और सोच बताने के लिए किया. सबसे अहम बात है कि सरसंघचालक ने RSS की आरम्भिक वैश्विक नजरिये के बारे में रोचक बातें बताई. उन्होंने कहा कि उनका संगठन 'अनेकता में एकता' में विश्वास रखता है, न कि 'एकता में अनेकता' में, जो संघ परिवार संचालित सरकार के पहले की सरकारों का नारा था.
अन्य विषयों के अलावा उन्होंने जिन सवालों के जवाब दिये उनमें, NRC, कश्मीर, महिला, समलैंगिकता, राम मंदिर (हालांकि उन्होंने इस मुद्दे के कानूनी और राजनीतिक पहलुओं का जिक्र नहीं किया, सिर्फ इतना कहा कि राम जन्मभूमि से जुड़ी आस्था के साथ कोई समझौता नहीं किया जाएगा). लिंचिंग के सवाल पर वो रक्षात्मक दिखे, फिर भी उन्होंने शुद्ध राजनीतिक जवाब देते हुए कहा कि कानून को अपना काम करने देना चाहिए.
विश्लेषण का समापन करते हुए एक पत्रकार ने कहा, ''भागवत ये संदेश देने में कामयाब रहे कि हालांकि RSS अब भी आंशिक रूप से गोपनीयता बरतता रहेगा, लेकिन अब वो अपनी वास्तविक राजनीतिक जरूरतें पूरी करने में सक्षम हो गया है.''
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