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ये एक हैरान करने वाली बात है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की शीर्ष निर्णायक इकाई की तीन दिन की बैठक में, जो हाल के चुनावों के बाद 5 में से 4 राज्यों में बीजेपी (BJP) के शानदार प्रदर्शन के नतीजों के ठीक एक दिन बाद हुई, उसमें आरएसएस ने खुद की पीठ नहीं थपथपाई, न ही अपनी प्रशंसा की, बल्कि एक बार फिर विक्टिम बनने का सहारा लिया.
क्या ये इस बात का ताजा उदाहरण है कि संघ परिवार के पास अपनी ताकत और लोकप्रिय समर्थन को बढ़ाने के लिए बार बार खुद को पीड़ित के रूप दिखाने वाले शब्दाडंबरों के अलावा कुछ और नहीं?
इस सवाल को पूछने की वजह एक लक्षण है, जो एक मेडिकल कंडीशन या कहें कि एक तरह का सिड्रोंम भी है और वो है हाल में RSS की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा (ABPS) की अहमदाबाद के बाहरी इलाके में रखी गई एक बैठक.
ये बैठक लोगों से खचाखच भरी थी जिसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और दूसरी संबद्ध संस्थाओं के हजारों पूर्णकालिक कार्यकर्ता शामिल थे. ये 36 संघ परिवार संगठनों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जिन्होंने इस सत्र में हिस्सा लिया. इतने बड़े स्तर पर हो रही बैठक तीन साल बाद हुई थी. साल 2020 और 2021 में इससे बहुत छोटे सत्रों का आयोजन किया गया था.
हाल में हुई यह बैठक इस ओर भी इशारा करती है कि हो सकता है आरएसएस नियमित संचालन में वापस आ जाए.
विक्टिम कार्ड खेलना आरएसएस, इससे संबद्ध संगठनों और इसके नेताओं की पुरानी चाल रही है क्योंकि, इसकी स्थापना हिंदू समाज को मजबूत करने के लिए की गई थी. आरएसएस का बुनियादी आधार ये है कि समुदाय कमजोर हो गया है, जबकि दूसरे धार्मिक समूह (यहां मुस्लिम पढ़ें) उच्च हो गए हैं.
सबसे पहले भेदभाव को खत्म करने और धार्मिक पहचान के आधार पर एक होने का आह्वान किया गया, जिससे समुदाय फिर से दृढ़ रूप से अपनी बात रख सके. वहीं सालों से हिंदू समाज के खिलाफ साजिशों की लिस्ट को बढ़ाते जाना, एक लगातार चलने वाले प्रोजेक्ट की तरह बन गया है.
हाल के चुनावों में बीजेपी को मिली आसान जीत के बावजूद, पार्टी को जातिगत दरारों का डर सताता रहा, जो अयोध्या विवाद के जरिए मेहनत से लाई गई हिंदू एकता को कमजोर कर रहा है. ये कैम्पेन के हर स्तर पर सामने आया.
इसका नतीजा ये हुआ कि आरएसएस की बैठक में इस बात को लेकर भी डर सामने आया कि जैसे-जैसे सेंसस ईयर नजदीक आ रहा है, उसके स्वयंसेवक या वॉलेंटियर्स निगरानी में रहेंगे और ऐसा एक खास समूह (यहां आदिवासी पढ़ें) को भड़काने वाली घटनाओं के डर को देखते हुए किया जाएगा क्योंकि, इन लोगों में ऐसी बातें फैलाई जा रही हैं कि वो हिंदू नहीं हैं.
बड़ी ही सावधानी से तैयार की गई इस वार्षिक रिपोर्ट जिसे अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में लिया गया और जिसे इसके प्रमुखों से भी विधिवत मंजूरी मिल गई है, में आरएसएस नेतृत्व ने इन चिंताओं पर ध्यान दिलाया:
हिंदू समाज बढ़ चुके राजनीतिक वैमनस्य और धार्मिक कट्टरपन का सामना कर रहा है.
विरोधी शक्तियां भारत की पहचान, एकता और अखंडता की भावना को नहीं समझ रही हैं और समाज में एक विद्वेषपूर्ण वातावरण बना रही हैं.
हिंदुत्व के विचार के खिलाफ सुनियोजित साजिशों के तहत कई तरह के आरोप लगाए गए हैं.
दुर्भावनापूर्ण एजेंडे को देश और विदेश में बुद्धिजीवी रूप देकर इसके तहत चलाया जा रहा है.
देश में डर पैदा करने वाले धार्मिक कट्टरपन ने एक बार फिर कई जगहों पर अपना सिर उठाया है.
छोटी-छोटी वजहों से हिंसा भड़क रही है और ये संविधान और धार्मिक स्वतंत्रता का नाम लेकर किया जा रहा है.
यहां विस्तृत योजनाएं हैं, जो एक खास समुदाय ने सरकारी मशीनरी में प्रवेश करने के लिए बनाई हैं.
देश के अलग-अलग हिस्सों में योजनाबद्ध तरीके से हिंदुओं का धर्मांतरण हो रहा है.
हालांकि इस चुनौती का लंबा इतिहास रहा है, लेकिन कई समूहों के लिए अब धर्मांतरण के नये तरीकों को अपना लिया गया है.
महत्वपूर्ण ढंग से कर्नाटक का जिक्र भी यहां किया गया, जहां भारत और हिंदू समाज के खिलाफ भयावह योजनाएं चलाई जा रही हैं. ये शायद इस बात की तरफ इशारा करता है कि आरएसएस इस बात को लेकर बहुत ज्यादा निश्चित नहीं है कि राज्य में चुनावी मूड बीजेपी के पक्ष में है या नहीं. जैसा हाल में उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के चुनावों में हुआ.
वहीं अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक के लिए जो जगह चुनी गई, इस पर भी ध्यान देने की जरूरत है. इसी साल नवंबर-दिसंबर में गुजरात में विधानसभा चुनाव होने हैं और तीन दिन का ये सत्र ठीक उसी समय पड़ा जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दो रोड शो के साथ बीजेपी के चुनावी कैम्पेन की शुरुआत की.
दत्तात्रेय होसाबले के आरएसएस के 15वें जनरल सेक्रेटरी या सरकार्यवाह नियुक्त होने को एक डेवलपमेंट के तौर पर देखा जाता रहा है जिसके बाद हिंदू राष्ट्रवादी इकोसिस्टम में बीजेपी का प्रभुत्व बढ़ा है. वहीं होसाबले के सरकार्यवाह बनने के ठीक एक साल बाद अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक को साल 1998 के बाद पहली बार अहमदाबाद में रखा जाना, ये किसी महत्वपूर्ण वजह के बिना नहीं हो सकता.
ये वह मीटिंग थी जहां आरएसएस ने अपने संस्थापक डॉ. हेडगेवार के जन्म शताब्दी उत्सव की शुरूआत की और गर्व से कहो हम हिंदू हैं, के नारे को एक बार लोकप्रिय बनाया. वो नारा जो हिंदू पहचान को मुख्यधारा में गर्व महसूस करने का अधिकार देता है.
दशकों से बीजेपी और आरएसएस के बीच बढ़ती एकजुटता के बावजूद आरएसएस, बीजेपी के लिए एक अंतरात्मा की रक्षा करने वाला और एक नीति सुधारक के तौर पर रहा है. हालांकि कभी वैचारिक स्त्रोत माना जाने वाला संगठन धीरे-धीरे इस भूमिका को त्याग रहा है और ये साल 2014 से हो रहा है.
ऐसे कई घटनाक्रम हुए हैं, जब आरएसएस के नेताओं ने सरकार और प्रधानमंत्री को समर्थन दिया है. ये वार्षिक रिपोर्ट में भी साफ नजर आया, आर्थिक प्रस्ताव में भी और यहां तक कि ABPS की मीटिंग में होसाबले के संबोधन में भी.
उदाहरण के लिए, आरएसएस ने देश में बेरोजगारी को लेकर अपनी चिंता जाहिर की, साथ ही ये भी कहा कि एक ऐसा वातावरण बनाने की जरूरत है जो उद्यमिता को बढ़ावा दे और ये सुनिश्चित करे कि लोग, खास करके युवा, बस नौकरी पाने की मानसिकता से बाहर निकलें.
हाल की परिस्थितियों को देखते हुए निश्चित रूप से ये पूछना जरूरी हो जाता है कि क्या विश्वगुरू बनना लोगों की रोजगार से जुड़ी चिंताओं का समाधान देगा, उनकी सुरक्षा को बढ़ाएगा और मुश्किलों को कम करेगा.
जिन दस्तावेजों को एबीपीएस की बैठक में लिया गया वो एक बार फिर दिखाते हैं कि आरएसएस, बीजेपी के इको चैंबर का ही एक साथ रहने वाला सदस्य है.
इसमें तीन प्राथमिक चुनौतियों की बात कही गई है, इसमें पहली चुनौती है बच्चों का शैक्षणिक नुकसान, व्यस्कों की नौकरियों का जाना और अपने घर की रोजी रोटी कमाने वालों की मौत के बाद पैदा हुई अनिश्चितताएं.
हाल के चुनाव नतीजों ने ये दिखाया है कि बीजपी ने इस बात को सुनिश्चित करने में सफलता हासिल की है कि लोगों ने अपनी भौतिक स्थितियों के आधार पर वोट नहीं किया, बल्कि उन्हें बीजेपी और मोदी के सभ्यता के कथन का हिस्सेदार बनाया गया.
आरएसएस भी इस फायदा पहुंचाने वाली स्थिति में साथ हो गया है और इसका परिणाम ये हुआ है कि इसने काल्पनिक साजिश वाले सिद्धांतों पर जोर देने को चुना है.
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