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भड़काऊ और हिंसा के आह्वान वाले भाषणों पर असमंजस की स्थिति में संघ और भागवत?

भागवत भड़काने वाले बयानों पर सफाई देते हैं, जो संघ के नेटवर्क का हिस्सा नहीं हैं पर इसके इकोसिस्टम से जुड़े हुए हैं.

नीलांजन मुखोपाध्याय
नजरिया
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<div class="paragraphs"><p>भड़काऊ और हिंसा के आह्वान वाले भाषणों पर असमंजस की स्थिति में संघ और भागवत?</p></div>
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भड़काऊ और हिंसा के आह्वान वाले भाषणों पर असमंजस की स्थिति में संघ और भागवत?

द क्विंट 

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अगर हिंदी फिल्मों के मशहूर विलेन अजीत के डायलॉग्स और जोक्स को याद करें, जो असल में झूठ ही था, तो एक फिल्म में उनका किरदार अपने वफादार रॉबर्ट से अपने विरोधी को लिक्विड ऑक्सीजन में डाल देने के लिए कहता है. ये डायलॉग है कि लिक्विड उसे जीने नहीं देगा और ऑक्सीजन उसे मरने नहीं देगा.

ये जोक मेरे दिमाग में हर बार आता है, जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरसंघचालक मोहन भागवत (Mohan Bhagwat) उन लोगों के भड़काने वाले बयानों या एक्शन पर सफाई देते हैं, जो वैसे तो संघ के नेटवर्क का हिस्सा नहीं हैं पर एक सहजीवी के तौर पर इसके इकोसिस्टम से जुड़े हुए हैं.

आएसएस चीफ की स्थिति बहुत साफ है कि ऐसे लोगों की हिंदुत्व के विचार में आस्था भागवत को इन्हें छोड़ने नहीं देती और इनके बयानों और एक्शन से पैदा हुआ अनुचित राजनीतिक व्यवहार उन्हें इन लोगों का साथ देने से भी रोकता है, कम से कम सार्वजनिक रूप से तो जरूर.

गोडसे से हुई शुरुआत

मोहन भागवत के लिए ये असमंजस की स्थिति गोडसे से शुरू होती है. ये पिछले 74 सालों से बार बार होता आ रहा है. गोडसे को कभी उन्होंने स्पष्ट रूप से अपना नहीं माना, लेकिन कई बार संघ परिवार के अलग-अलग नेता, यहां तक कि भारतीय जनता पार्टी के सांसद भी गोडसे का महिमामंडन करते नजर आए हैं.

यही दुविधा की स्थिति 6 फरवरी को लोकमत मीडिया ग्रुप द्वारा नागपुर में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान भी दिखी. यहां भागवत ने ‘Hindutva and National Integration’ विषय पर बात की. अखबार के नागपुर एडिशन की गोल्डन जुबली पर ये भागवत की लेक्चर सीरीज का हिस्सा था.

इस टॉपिक को फ्रेम ही इसी तरह किया गया था कि भागवत के लिए मुश्किल था कि वो हरिद्वार और रायपुर की धर्म संसद में नस्लीय संहार के भड़काने वाले बयानों की पृष्ठभूमि में हिंदुत्व पर लगे बांटनेवाले विचारों के आरोपों का जवाब न दें.

इन सभाओं में वक्ताओं को ये कहते हुए देखा गया कि वो सनातनी हिंदुओं का आह्वान कर उन्हें हिंदू राष्ट्र के लिए खुद को तैयार करने के लिए कह रहे थे. यहां नाथूराम गोडसे की प्रशंसा भी की गई और साथ ही राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को देशद्रोही तक कहा गया.

कई असहज सवाल

भागवत के काम को और ज्यादा मुश्किल कर दिया मेजबान ग्रुप के चेयरमैन और पूर्व सांसद विजय दरदा ने. उन्होंने कुछ ऐसे सवाल जमा करके रखे थे जो कई लोग आरएसएस प्रमुख से पूछना चाहते थे, जब उन्होंने ये जाना कि ये इवेंट उनके ऑर्गनाइजेशन ने रखा है.

इन सवालों में कई मुद्दों को शामिल किया गया था जिसमें संघ परिवार पर ये आरोप भी शामिल थे कि उन्होंने ऐसे लोगों पर चुप्पी साधी या एक तरह से उनका हौसला बढ़ाया, जो असहिष्णुता फैलाने के लिए जिम्मेदार रहे हैं. इसके अलावा राष्ट्रवादी नेताओं का सेलेक्टिव उपयोग और बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के साथ श्री लाल बहादुर शास्त्री नेशनल संस्कृत यूनिवर्सिटी, दिल्ली में न्यू हिंदुइज्म स्पेसिफिक पोस्टग्रेजुएट कोर्सेज को शुरू करने का मुद्दा भी इसमें शामिल था, जिसमें कथित तौर पर बौद्ध और जैन धर्म को हिंदुत्व का हिस्सा बताया गया.

दरदा ने ये भी कहा कि कई लोग जिन्होंने इस फंक्शन के बारे में जाना, वो चाहते थे कि भागवत तथाकथित लव जिहाद और अंतर्धामिक शादियों को रोकने के लिए कानूनों की जरूरत जैसे मुद्दों पर बोलें. साथ ही उन्होंने ये सवाल भी उठाया कि क्यों उन्होंने खुद या आरएसएस में उनके सहयोगियों ने हरिद्वार और रायपुर में हुई बैठकों को लेकर तुरंत कोई बयान जारी नहीं किया.

एक 'विकासशील' विचार के तौर पर हिंदुत्व

यहां भागवत ने जोर देकर कहा कि ये इवेंट न सिर्फ सवालों का जवाब देने के लिए एक अनुपयुक्त फोरम है, बल्कि यहां ये जानना भी जरूरी है कि सवाल कौन कर रहा है और इसके पीछे मंशा क्या है? उन्होंने कहा कि जवाब, इसी के हिसाब से दिए जाएंगे. सवाल पूछने वाले की पहचान और उसका उद्देश्य जानने के बाद.

भागवत को अपने लेक्चर का शीर्षक भी ठीक नहीं लगा. उन्होंने कहा, इसका शीर्षक ‘Hindutva and National Integration’ न होकर ‘Hindutva is National Integration’ होना चाहिए. ये ज्यादा फिट होता. उन्होंने ये संकेत दिए कि आरएसएस के विचार में हिंदुत्व में जोड़ने और साथ लाने की क्षमता है और ये बांटने वाला नहीं है जैसा हाल में हुई घटनाओं के जरिए दिखाया गया.

अगर सवालों को लेकर इस बात को छोड़ दिया जाए तो पहली बात स्पष्ट रूप से उन्होंने ये कही कि हिंदुत्व एक इज्म नहीं, न ही विचार है. यही बात भागवत ने साल 2018 में दिल्ली में अपनी तीन दिन की एक लेक्चर सीरीज में भी कही थी.

भागवत के अनुसार, लोगों को व्यक्तिगत रूप से एक विचार की कल्पना के साथ खुद को व्यवस्थित करना होता है और हिंदुत्व ऐसा नहीं है. वो लोग जो इसमें यकीन करते हैं अपनी क्षमता के अनुसार अपने अनुभव से इसे विकसित करते हैं और बदलाव लेकर आते हैं.

आरएसएस प्रमुख के इन बातों पर जोर देने से एक महत्वपूर्ण सवाल ये पैदा होता है कि क्या इस पर बहस नहीं की जानी चाहिए कि जिन लोगों ने रायपुर और हरिद्वार में नस्लीय संहार की बात की, उन्होंने भी अपने पिछले साढ़े तीन दशकों में हिंदू राष्ट्रवादी आंदोलन जिसे राम जन्मभूमि विवाद के बाद एक जमीन मिली, उसके अनुभव के आधार पर हिंदुत्व के विचार को विकसित किया या बदला?

आरएसएस के लिए एक कैच-22 सिचुएशन

साल 2018 में अपने पहले पब्लिक इंटरैक्शन से ही भागवत अपने संबोधनों को ज्यादातर सामान्य बनाने की कोशिश करते हैं और ज्यादा डिटेल में नहीं जाते. उदाहरण के लिए, वैसे तो उन्होंने कई बार ऐसा कहा है कि हिंदुत्व, तब हिंदुत्व नहीं रहेगा जब इसमें मुसलमानों के लिए कोई जगह न हो, लेकिन वो मुस्लिम समुदाय को निरंतर निशाना बनाए जाने और निंदा करने जैसी बातों को रोकने या कम करने में भी असफल रहे हैं.

बहुसंख्कों द्वारा व्यापार में शामिल मुसलमानों के बहिष्कार, बीफ खाने या ले जाने के संदेह पर लिंचिंग जैसी बातों को लेकर भागवत ने कभी कोई सफाई नहीं दी. सोचिए, उन्होंने आरएसएस के लाखों स्वयंसेवकों से क्या एक्शन लेने के लिए कहा जिससे ये सुनिश्चित हो सके कि इस तरह के हमले आगे नहीं होंगे?
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यहां तक कि हाल में हुई धर्म संसदों पर भी उन्होंने अपने भाषण में बहुत संभलकर बोलते हुए कहा, वो सबकुछ जो हिंदुत्व का नाम लेकर किया जा रहा है, वो हिंदुत्व नहीं है. उन्होंने बहुत ही विनम्रता से आक्रामक वर्ग से कहा, अगर आप किसी से असहमत भी होते हैं तो ये भी मित्रतापूर्ण तरीके से करें. यही हिंदुत्व की प्रकृति है.

क्या ये एक अनकही स्वीकृति है कि इस तरह की बातें करने वाले भी हिंदुत्व के विचार के वोटर हैं, भले ही आरएसएस के मेनफ्रेम का हिस्सा न हों.

अगर इस तरह की हिंसात्मक बातों की आलोचना न करके हमेशा इस पर पर्दा डाला जाए तो ये एक कैच 22 सिचुएशन की तरफ इशारा करता है और आरएसएस का नेतृत्व हर मौके पर ऐसी स्थिति में खुद को पाता है.

हैरान करने वाली बात है कि दोनों धर्म संसदों के मुद्दे को इस तरह नजरअंदाज कर दिया गया और आरएसएस के नेताओं ने अच्छा खासा समय अपने पसंदीदा थीम को समझाने में दिया. थीम ये कि रिलीजन धर्म नहीं है और हमारे देश में वैसे कई धर्म हैं, लेकिन सभी में हिंदू स्वभाव है.

एकता और विविधता का अर्थ

भागवत के शब्दों में वही दोहराव दिखा जो बातें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने करीब एक दशक पहले मुझसे एक इंटरव्यू के दौरान कही थीं. ये इंटरव्यू उनकी बायोग्राफी को लेकर रिसर्च से जुड़ा था.

भागवत ने कहा, पूजा और धार्मिक अनुष्ठानों की प्रैक्टिस या रिवाज अलग अलग हो सकते हैं, लेकिन इसे देश से अलग नहीं किया जा सकता, न ही परंपरा से.

भागवत के लिए हिंदुत्व एक फुल स्टॉप नहीं है. ये कोई धर्म नहीं और न ही इसे किसी धार्मिक संस्कार में बांधा जा सकता है. लेकिन फिर कोई ये पूछ सकता है कि तब कुछ खास धार्मिक संस्कारों, रीति रिवाजों और परंपराओं को लेकर इतना जोर क्यों?

अपने नागपुर संबोधन में आरएसएस प्रमुख एक बार फिर पहले की अपनी एक अवधारणा पर लौटे. इसमें उन्होंने “unity in diversity” के राष्ट्रीय सिद्धांत में शब्दों को उलट दिया. जैसा कि पहले भागवत ने जोर देते हुए ये कहा था कि हमारी एकता ही विविधता को सक्षम करती है और इसका कोई दूसरा रास्ता नहीं है.

ऊपरी तौर पर देखें तो ये एक ऐसा सीधा दावा लगता है जो किसी की विशिष्टता को रेखांकित करने की प्रचलित धारणा पर आधारित है. इस तर्क के पीछे ये समझ है कि एकता सांस्कृतिक समानता में अंतर्निहित है जो अलग अलग विचारधारा और धर्म से होने के बाद भी रहती है.

भागवत ने आगे कहा कि आरएसएस समरूपता या बराबरी को जरूरी नहीं मानता है. उन्होंने कहा, अंतर होने का मतलब ये नहीं है कि एक व्यक्ति अलग या बंटा हुआ है.

हालांकि उन्होंने सवाल नहीं लिए. तो ये सवाल भी रह ही गया कि क्यों अलग तरह की सोच हमारे नजरिए में भिन्नता की निशानी है और क्यों इस शासन से सवाल करने वाले लोगों को इस तरह दिखाया जाता है कि वो राष्ट्र हित के खिलाफ हैं?

आरएसएस प्रमुख ने दावा किया कि सांस्कृतिक समानता कुछ और नहीं हिंदुत्व है और इसलिए हिंदू राष्ट्र बनाने की बात नहीं है, क्योंकि वो है.

समान वंश परंपरा को लेकर हिंदुत्व की जिद

भागवत के अनुसार, भारत के सभी लोग एक कॉमन रिलेशनशिप और बंधु भाव से जुड़े हैं और ये भारत भक्ति की भावना, संस्कृति और पूर्वज गौरव से आती है. इन सभी बातों का आधार, देश के प्रति आस्था, इस बात पर आधारित है कि सभी भारत माता के बच्चे हैं, जिसका अर्थ है कि देश के साथ रिश्ता संवैधानिक नहीं, सांस्कृतिक है.

सांस्कृतिक समानता को लोगों को एक करने वाली, जोड़ने वाली बात के रूप में देखना सैद्धांतिक तौर पर ठीक लगता है, लेकिन जब धर्म को संस्कृति बताया जाता है और वो भी तब जब अलग अलग कई धर्म इसका हिस्सा हों, तब ये दिक्कतें पैदा करने लगता है.

वहीं, पूर्वजों में गौरव ढूंढना ज्यादा मुश्किलें पैदा कर सकता है क्योंकि, अलग अलग धाराओं का इस पर अलग अलग नजरिया है कि वो क्या है जो समान वंशावली का निर्माण करता है. सबसे महत्वपूर्ण यह कि क्या ये सिर्फ ऐतिहासिक है या फिर ये उम्मीद भी की जानी चाहिए कि सभी भारतीय उन बातों पर भी गर्व करेंगे, जिन्हें पौराणिक कहा जाता है. जैसा कि पीएम नरेंद्र मोदी ने कहा है, हर किसी को हमारे विचारों और हमारे आदर्शों का सम्मान करना चाहिए.

संविधान में हिंदुत्व

ये सच है कि अल्लामा इकबाल (Alamma Iqbal) ने राम को जिंदगी की रूह और रूहानियत की शान कहा था और उन्हें इमाम ए हिंद की उपाधि दी. लेकिन सभी मुस्लिम नागरिकों से इस भक्ति की उम्मीद करना, क्योंकि बहुसंख्यक ऐसा करते हैं, संविधान के तहत नहीं आता.

हालांकि ये भागवत के लिए तर्कसंगत है. वो जोर देकर कहते हैं कि नागरिकता सिर्फ एक लीगल रिलेशनशिप है जबकि सांस्कृतिक संबंध जो है, वो सबसे बड़ा है. वो विवादास्पद रूप से ये भी बहस करते रहे हैं कि संविधान में जिस भावना को व्यक्त किया गया है, वो हिंदुत्व है और जो कुछ भी इसमें लिखा है जिसकी वजह से इसे भारत के पवित्र ग्रंथ की तरह देखा जाता, वो हिंदुत्व की वजह से ही है.

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