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चलिए, एक ऐसी बात करें जिससे सब वाकिफ हैं: रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन (Russian President Vladimir Putin) एक दबंग तानाशाह हैं जो आज यूक्रेन पर चढ़ाई कर रहे हैं. वह अपने हठ के आगे बेबस हैं. उनसे पहले के राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन सोवियत संघ के विघटन के अवशेषों से निकले थे और राजाओं की तरह सरकार चलाते थे (येल्तसिन इस बात के लिए बदनाम थे कि उन्होंने रूसी सेना को संसद में बमबारी करने और घुसने को कहा था).
रूस कभी एक लोकतांत्रिक देश नहीं रहा, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उनका प्रशासन तंत्र अनैतिक था- वह दूसरी व्यवस्थाओं से अलग था, और यह फर्क शायद सिर्फ रूसियों के लिए मायने रखता था (या उन्हें इस फर्क होने से कोई फर्क नहीं पड़ता था), लेकिन पश्चिम ने हमेशा रूस को एक अलग ही रंग में पेश किया- निर्दयी और निष्ठुर- रॉकी सीरिज के कैरेक्टर ईवान ड्रैगो जैसा. अमेरिकी राष्ट्रपति और हॉलीवुड के एक्टर रोनाल्ड रीगन तो सोवियत संघ को ‘एक दुष्ट साम्राज्य’ कहा करते थे.
पश्चिम के दोहरे नजरिए के हिसाब से रूसी लोग हमेशा से विलेन रहे हैं और पुतिन उस कल्पना का साकार रूप हैं. यह स्पष्ट रूप से एक अति-सरलीकृत, सुविधाजनक और निर्मित धारणा है, जो जितना प्रकट करती है, उतना ही छिपाती भी है. 'पश्चिम' के हाथों पर खून के धब्बे हैं, लेकिन वह उसे बेहतरीन ढंग से ढंकना जानता है.
कॉरपोरेट के रंग में रंगने वाले पश्चिमी मीडिया की रुचि कभी आजादी, छानबीन और जांच पड़ताल में हुआ करती थी- भले थोड़ी ही- लेकिन वह नदारद हो चुकी है.
हां, ‘पश्चिम’ की किस्सागोई असरदार जरूर हुई है। वह लोकतंत्र की दुहाई दिए जा रहा है (हालांकि जब आप पश्चिम एशिया, लैटिन अमेरिका, अफ्रीका या एशियाई महाद्वीप के उन देशों की हालत देखें, तो एकदम अलग परिदृश्य देखने को मिलता है. यह बात और है कि इस पर ज्यादातर लोगों ने आंखें मूंदी हुई हैं, या कम से कम उसे अनदेखा कर रहे हैं)।.
लेकिन भारत को उन यादों को टटोलना चाहिए जब शीत युद्ध के दिनों में वह सोवियत संघ का खास दोस्त हुआ करता था.
1971 में पाकिस्तान अमेरिका का सहयोगी था, जबकि भारत सोवियत कैंप में हुआ करता था. तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (जो जल्द ही बांग्लादेश बनने वाला था) में अमेरिकी कॉन्सुल जनरल आर्चर के ब्लड पाक सेना की करतूतों की रिपोर्ट भेजा करते थे. भारत में अमेरिकी राजदूत केनेथ बी कीटिंग ने निक्सन और किसिंजर की जोड़ी को व्यक्तिगत रूप से 'नरसंहार के मामले' की जानकारियां दी थीं (इन बहादुर राजनयिकों को उनकी अपनी सरकार ने सच बोलने की वजह से 'पागल', 'देशद्रोही' वगैरह कहा था).
खुद अमेरिकी विदेश विभाग ने पुष्टि की थी कि पाकिस्तान ने दो लाख हत्याओं (बाद की बांग्लादेश सरकार ने इस आंकड़े को 30 लाख बताया था), सामूहिक बलात्कार और लूट के युद्ध अपराध किए थे, फिर भी अमेरिका फिर भी आंखें मूंदे रहा, उसने खुलेआम नरसंहार के अपराधियों का साथ दिया, उन्हें हथियार दिए, उनसे नहीं कहा कि वे शांति की बहाली करें या नरसंहार रोकें. उसने नहीं कहा कि वे चुनावी नतीजों या इच्छा का सम्मान करें. न ही उन पर किसी किस्म के प्रतिबंध लगाए जिसका राग आजकल खूब अलापा जा रहा है.
चौंकाने वाली बात यह है कि अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन ने तब कहा था कि भारतीय को 'सामूहिक अकाल' झेलना चाहिए और उनके मसखरे चाकर कहलाने वाले हेनरी किसिंजर ने 'मरते हुए बंगालियों' के लिए 'खून बहाने वालों’ का मजाक उड़ाया था.
अमेरिका बराबर झूठ बेचता है और दुनिया उसे खरीदती है. उसने उम्माह (मुस्लिम वर्ल्ड) पर बार-बार यह आरोप लगाया है कि वह धार्मिक रूप से उन्मादी और आतंक को पोषित करने वाला है. इस जोरदार झूठ में यह बात दब गई कि इन चरमपंथियों को पैदा किसने किया. इस जहर को बोने के बाद उसकी विषबेल में कौन खाद पानी डालता रहा. यह सब अमेरिका ने खुद किया. पर कौन नहीं जानता कि तालिबान ने 1980 के दशक में सीआईए-आईएसआई के गठबंधन से जन्म लिया और आईएसआईएस सद्दाम हुसैन की अपमानित इराकी सेना की ही उपज है जिसे खदेड़ दिया गया था.
दूसरी तरफ ईरान, जिसका 9/11 या अल कायदा, आईएसआईएस, बोको हराम, आदि की पैदाइश से कोई सीधा संबंध नहीं, वह 'नंबर वन ग्लोबल टेरर स्पॉन्सर' कहा जाता है.
इसका मतलब यह नहीं कि अपराध के लिए किसी भी पक्ष को बेदाग करार दिया जाए. दरअसल यह समझने की जरूरत है कि सिर्फ चुनींदा मामलों को उजागर करने से तस्वीर बहुत धुंधली दिखती है. असंतुलन भी कायम होता है. जैसे जब ग्लोबल न्यूक्लियर प्रोलिफलरेशन एजेंसी अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) ने बार-बार इस बात की पुष्टि की कि ईरान परमाणु संधि की सारी प्रतिबद्धताओं को पूरा कर रहा है (और बाकी के सभी पी5+1 सदस्य भी) तो एकतरफा पलटवार के लिए अमेरिका को कोई सजा क्यों नहीं दी गई? इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि ईरान को आज भी क्यों बदनाम और प्रतिबंधित किया जा रहा है?
ब्रिटेन में प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन राजनीतिक रूप से निरीह हो चुके हैं. उन्होंने यूक्रेन संकट के बारे में कहा है कि यह "1945 के बाद यूरोप में सबसे बड़ा युद्ध" है. यानी तीसरे विश्व युद्ध की चेतावनी दी जा रही है. लेकिन पुतिन को सोवियत संघ और अपने केजीबी के दिनों की स्मृतियां तो होंगी ही. वह उन्हीं रणनीतियों का इस्तेमाल यूक्रेन में कर रहे हैं. हां, सोचा जा सकता है कि रूसियों के बीच उनकी लोकप्रियता की क्या वजह है, भले ही इससे उलट प्रचार किया जा रहा है.
अब पश्चिमी अवधारणा और सच्चाई के बीच के फासले को समझना है तो मिखाइल गोर्बाचोव के अकेलेपन में झांक कर देखें. पश्चिम में उनकी कितनी भी इज्जत क्यों न हो, लेकिन रूसियों को वह फूटी आंख नहीं भाते. वह मास्को के बाहर एक पुराने से घर में रहते हैं. गोर्बाचोव एक ताकतवर नेता की धुंधली सी छाया है, जिस पर एक साम्राज्य के पतन का आरोप है. रूस जिस पर शर्मिन्दा है और वह सोवियत युग के ऐसे नेता हैं, जिनसे सबसे ज्यादा नफरत की जाती है. पुतिन ने इससे सबक लिया है और ऐसा कदम उठाया है, जो जनता को पसंद आए. पश्चिम भी तो अपने फायदे के लिए ऐसा ही करता है. इसीलिए आरोप लगाए जाएं तो सभी पर लगाए जाएं.
यह वह समय था, जब सोवियत संघ इटली और तुर्की में तैनात ज्यूपिटर बैलिस्टिक मिसाइलों से आहत होकर, अपने जख्म सहला रहा था. इन मिसाइलों से उस पर निशाना साधने का इरादा था. इसीलिए सोवियत संघ कास्त्रों के इस अनुरोध पर रजामंद हो गया कि न्यूक्लियर मिसाइलों को क्यूबा में तैनात किया जाए ताकि अमेरिका के हमले को रोका जा सके (हालांकि अमेरिका ने क्रीमिया जैसी कई कोशिशें की थीं, वह भी मुनरो सिद्धांत की अनदेखी करते हुए)।
अपनी सरहद से सिर्फ 140 किलोमीटर दूर ‘दुश्मन’ की मौजूदगी से अमेरिका घबरा गया. उसने क्यूबा पर हमला करने की योजनाएं बनाईं और ‘नाकाबंदी’ लगा दी (यानी ओप्लान 316 और 312)। रूस अमेरिकी पलटवार के बारे में बखूबी जानता है.
इस समय पुतिन निकिता ख्रुश्चेव की उस टिप्पणी को जो बायडेन पर चस्पां कर सकते हैं. ख्रुश्चेव ने क्यूबा संकट के समय कहा था कि “मैं जानता हूं कि कैनेडी की कोई पुख्ता पृष्ठभूमि नहीं है, और उनके पास इतना साहस भी नहीं है कि किसी गंभीर चुनौती का सामना कर सकें.” उस दौर में भी युद्ध की मुनादी की गई थी. विश्व तीसरे महायुद्ध के कगार पर खड़ा था और बातचीत चल रही थी. लगता नहीं कि इतिहास दोहराया जा रहा है.
उस समय संकट टालने के लिए समझौते किए गए. क्यूबा से मिसाइलें हटाई जाएंगी, और तय हुआ कि अमेरिका क्यूबा पर हमला नहीं करेगा. इसी के साथ इटली और तुर्की से अमेरिकी मिसाइलें भी हटा दी गईं, आज भी हालात वैसे ही हैं. नाटो के ‘दुश्मन’ को सरहद से दूर करने की कोशिश की गई है जिसके चलते पुतिन के आक्रामक रवैये को बढ़ावा मिला है.
क्यूबा मिसाइल संकट के समय अमेरिका ने जिस तरह घुटने टेके, उसका किस्सा इतिहास में दफन हो गया- उसके तमाम गुपचुप सौदों की तरह, उसने यह झूठ इस तरह बेचा कि सोवियत संघ उससे पहले पीछे हटा.
तो, जो एक के लिए सही है, वह दूसरे के लिए गलत कैसे हो सकता है. क्यूबा मिसाइल संकट की तुलना यूक्रेन संकट से की जा सकती है, लेकिन आज के दौर में इसे सिद्धांततः गलत ठहराया जा रहा है. अमेरिका दुनिया के सामने सच्चाई का अपना आइना रखता है, और इतिहास पर अपना मुलम्मा चढ़ाता है. रूस की वही तस्वीर रची गई है. ठीक वैसे ही, जैसे ईरान को सारी दुनिया जालिम मानती है, और जैसे 1971 में भारत की छवि गढ़ी गई थी.
(रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल भूपिंदर सिंह अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह और पुडुचेरी के पूर्व लेफ्टिनेंट गवर्नर रह चुके हैं. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 24 Feb 2022,12:02 PM IST