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नोट कर लीजिए- 2 अप्रैल का दिन भारतीय राजनीति में बेहद अहम बनने जा रहा है. दलित संगठनों ने भारत बंद का आह्वान किया था. लगा था कि शायद ये एक रुटीन राजनीतिक गतिविधि हो, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
देश के कई शहरों में बड़े प्रदर्शन हुए, पुलिस से मुठभेड़ हुई, हिंसा भी हुई, जो नहीं होनी चाहिए. हिंसक झड़प भी हुई और कुछ मौतें भी. दर्जनों शहरों में सैकड़ों हजारों दलित विरोध प्रदर्शन करने उतरे. इस आयोजन का क्रेडिट मेनस्ट्रीम पार्टियों को (या उनकी 'साजिश' को) देना गलत होगा. इस भारत बंद के कुछ साफ मैसेज हैं:
बीजेपी का दलित को लुभाने का व्यापक प्लान काम नहीं आ रहा. सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने SC/ST कानून को कमजोर करने का फैसला लिया. दलित नाराज हुए. उनको लगा कि अब कोई ज्यादती हो, तो पुलिस में केस दर्ज कराना मुश्किल हो जाएगा.
सरकार को बात समझ में आई और उसने तुरंत ऐलान किया वो कोर्ट से कहेगी कि वो अपना फैसला बदले. 2 अप्रैल को वो कोर्ट गई, लेकिन तब तक आंदोलन तो सड़कों पर था. दलितों को सरकार की नीयत पर भरोसा नहीं. उन्हें लगता है कि सरकार को इतनी फिक्र थी, तो केस की सुनवाई के दौरान उसने जमकर जिरह क्यों नहीं की?
ये घटना एक ट्रिगर है. दलितों की नाराजगी के कारण बहुत सारे हैं और गहरे हैं. राष्ट्रीय स्तर पर हम जिन घटनाओं को रुटीन या छोटी मानते हैं, वो देशभर के दलितों को बेचैन और नाराज कर रही हैं.
2 अप्रैल का बंद शहरी है. ये दलित सरकार की बख्शीश या सरकारी नौकरी के उस चक्र से बाहर जा चुका है, जहां उसके मां-बाप फंसे हुए थे. ये याचना या खैरात की राजनीति के बाद का दौर है, जहां उसे असली बराबरी और इज्जत चाहिए. उसकी ये तलाश अब तेज हुई है. इसका राजनीतिक और चुनावी एक्सप्रेशन होगा और मजबूती से होगा.
चुनावी साल में भीमराव अंबेडकर के नाम में उनके पिता 'रामजी' का नाम जोड़ने की यूपी में एक कोशिश हुई है. एक खास तरह के हिंदुत्व के खिलाफ बगावत करने वाले अंबेडकर को हिंदुत्व से जोड़ने की इस कोशिश पर ज्यादातर दलित और उत्तेजित होंगे, चिढ़ेंगे. ये कदम बताता है कि इसमें चालाकी कम, मूर्खता ज्यादा है.
भारत बंद की कामयाबी ये बताती है कि चुनावी साल में एक मोटिवेटेड कैडर तैयार है. देश की बड़ी विपक्षी पार्टियों की यही- कैडर और वैकल्पिक अजेंडा- एक बड़ी कमी है. शायद काफी लोग हैं, जो कैडर बन रहे हैं और वैकल्पिक नैरटिव खोज रहे हैं. इस अचानक खड़े हुए कैडर का किस को नुकसान और किसको फायदा होगा, ये समझा जा सकता है.
दलितों का ये नया उभार अगर आप किसानों, बेरोजगार युवाओं और मुसलमानों के साथ रखकर देखें, तो ये साफ हो जाएगा कि सत्तारूढ़ दल के सामने ये चार बड़ी चुनौतियां असली हैं. इन चार चुनौतियों को कम करके आंकना बड़ी गलती होगी.
भारत बंद के दौरान जो हिंसा हुई, उसके चलते प्रोपेगंडा मीडिया देश में प्रतिरोध की राजनीति की हकीकत को झुठलाएगा. उसे गुंडागर्दी और बदमाशी बताएगा. सरकार के रणनीतिकार अगर इस बात को सही मानेंगे, तो खुद को ही गुमराह करेंगे.
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Published: 02 Apr 2018,07:04 PM IST