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SC-ST एक्ट VIDEO | दलितों के गुस्से के कारण और 2019 चुनावों पर असर

एससी-एसटी एक्ट में संशोधन के खिलाफ दलित संगठन देशभर में  ‘भारत बंद’ कर रहे हैं

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एससी-एसटी एक्ट में संशोधन के खिलाफ देशभर के दलित संगठनों ने विरोध प्रदर्शन किया. चुनाव के आखिरी साल में विरोध प्रदर्शनों को बड़े राजनीतिक मायने होते हैं. इस मामले में केंद्र सरकार के रवैये को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं.

क्विंट ने इस पूरे मामले पर समाजशास्त्री दिलीप सी मंडल से खास बातचीत की. दिलीप मंडल का कहना है:

सुप्रीम कोर्ट ने एक्ट का पैनापन खत्म कर दिया है. केंद्र सरकार ने भी इस मामले में कई गलतियां कीं. सरकार अध्यादेश के जरिये कोर्ट के संशोधन को हटा देना चाहिए था. रिव्यू पिटीशन के बाद सुप्रीम कोर्ट अपने ही फैसले में भला बदलाव कैसे करेगी?
दिलीप सी मंडल, समाजशास्त्री

दलित विषयों पर लगातार लिखने और अपनी राय देने वाले दिलीप मंडल कहते हैं:

एससी-एसटी एक्ट को देश के करीब 37 करोड़ लोगों को जुल्म से बचाने के लिए बनाया गया था. इस एक्ट को केंद्र की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में डिफेंड किया जाना चाहिए था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
दिलीप सी मंडल, समाजशास्त्री

'सरकार का इरादा ईमानदार नहीं था'

क्विंट के एडिटोरियल डायरेक्टर संजय पुगलिया के मुताबिक

सरकार की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर करने में देरी हुई. एक्ट में फेरबदल के खिलाफ दलित आंदोलन में जैसा गुस्सा दिख रहा है, वो आंख खोलने वाला है. साफ है कि विरोध प्रदर्शन को आंकने में सरकार की तरफ से चूक हुई है. वो इस गुस्से को भांप नहीं पाई.
संजय पुगलिया, एडिटोरियल डायरेक्टर, क्विंट
  • बिहार के पटना में भारत बंद के दौरान हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (सेक्युलर) के कार्यकर्ताओं ने रोकी ट्रेन

    (फोटो: पीटीआई)

हिंसा कितनी जायज?

दलित आंदोलन में देश के कई हिस्सों से हिंसा और आगजनी की भी खबरें आ रही हैं. क्या ऐसी हिंसा को जायज ठहराया जा सकता है? इस सवाल पर दिलीप सी मंडल ने कहा कि ‘अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी. लेकिन ये सही है कि दलितों में गुस्सा बहुत ज्यादा है उनपर कितनी मुश्किल आई है इसी से पता चलता है. लेकिन इन सबके बावजूद हिंसा नहीं होनी चाहिए.’

संजय पुगलिया कहते हैं:

21वीं सदी में दलितों पर मूंछे न रखने, घोड़ी पर न चढ़ने, कार पर न चलने जैसी पाबंदियां नहीं लगा सकते. ऐसी खबरें जब आती हैं तो दलित समुदाय में बैचेनी पैदा होती है.
संजय पुगलिया, एडिटोरियल डायरेक्टर, क्विंट
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क्या चाहते हैं दलित?

दिलीप सी मंडल के मुताबिक, दलितों का ये मौजूदा आंदोलन शहरी आंदोलन है. इसे अच्छी तरह से समझने की जरूरत है. संदेश साफ है कि नई पीढ़ी पुराने मिजाज में चलने वाली नहीं है.

टॉप ब्यूरोक्रेसी, मीडिया, यूनिवर्सिटी, बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों में दलित और ओबीसी की भागीदारी नहीं होने से भी असंतोष है. राष्ट्र निर्माण में दलित भी हिस्सेदार हैं और सवर्णों की जिम्मेदारी है कि उन्हें भी हाथ बंटाने का मौका दें
दिलीप सी मंडल, समाजशास्त्री
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चुनाव पर क्या होगा असर?

संजय पुगलिया कहते हैं:

अगले चुनाव के लिए बहुत बड़ा दलित कैडर खड़ा हो गया है, अब ये विपक्षी पार्टियों पर निर्भर है कि कैसे वो इस कैडर को अपने साथ लेकर आती हैं. 
संजय पुगलिया, एडिटोरियल डायरेक्टर, क्विंट

दिलीप मंडल का कहना है:

उत्तर प्रदेश और बिहार में इसका राजनीतिक नुकसान बीजेपी को उठाना पड़ेगा. उसके सामने बड़ी मुश्किल खड़ी होने वाली है. अब सरकार को रिव्यू पेटिशन की बजाय ऑर्डिनेंस लाना चाहिए था या कानून बनाना चाहिए था जो मौका गंवा दिया गया है.
दिलीप सी मंडल, समाजशास्त्री

साफ है कि पिछले कई महीनों से दलितों को हिंदूवाद की छतरी के नीचे लाकर अपने वोटबैंक में तब्दील करने की बीजेपी की कोशिशों को इस ‘भारत बंद’ से झटका लगा है. आने वाले दिनों में देश की राजनीतिक फिजाओं में इसका असर साफ दिखेगा.

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