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सोशल मीडिया पर एक पोस्ट पढ़ने को मिली. इसमें एक पिता लिखते हैं कि एयरो स्पेस इंजीनियरिंग में आईएससी बेंगलुरु से पीएचडी कर रहे बेटे समन्वय सत्य नारायण स्वामी की कथा और पूजा अर्चना कर रहे हैं. विज्ञान हो या धर्म, दोनों में उसकी आस्था देखते ही बनती है!
वैज्ञानिक चेतना या किसी तकनीक को चलाने में प्रशिक्षित होने में फर्क है. आमतौर पर यह मान लिया जाता है कि जो आधुनितम तकनीक के जरिये काम करते हैं, वे वैज्ञानिक चेतना से लैस होंगे. डाक्टर अगर किसी तकनीक के जरिये और प्रशिक्षण से प्राप्त अनुभवों के अनुसार मनुष्य के शरीर के अंगों के लिए सलाह देता या उसकी सर्जरी करता है, तो इसका मतलब ये नहीं है कि वह वैज्ञानिक चेतना से भी लैस है. वैज्ञानिक चेतना समाज और जीवन की सभी क्रियाओं और गतिविधियों में सक्रिय दिखती है. वैज्ञानिक चेतना केवल शारीरिक जटिलताओं या शारीरिक व्याधियों को समझने तक ही सीमित नहीं होती है.
समाज का बड़ा हिस्सा विज्ञान का इस्तेमाल कर सुविधाएं महसूस करता है, लेकिन वह वैज्ञानिक चेतना से मुक्त रहना चाहता है. वैज्ञानिक चेतना का संबंध केवल तकनीक का विकास और किसी अविष्कार भर नहीं होता है. बल्कि वह किसी के भी आम जीवन में दिनभर के क्रियाकलापों और सक्रियताओं से जुड़ा होता है. घर में गंदगी हो रही है, तो उसका स्रोत क्या है और उस स्रोत से निपटने के क्या उपाय हो सकता है, इस तरह की तार्किकता वैज्ञानिक चेतना का आधार बनती है.
भारत में वैज्ञानिक चेतना का प्रसार क्यों नहीं हो सका? मेरी इस खोज में सबसे पहले देहरादून के एक मित्र से मदद मिली. वे हिंदी के लेखक हैं. भारत सरकार की सेवा से निवृत हैं. वे एक संस्था में काम करते थे, जिसे विज्ञान से संबंधित माना जाता है. वे वरिष्ठ वैज्ञानिक के पद से रिटायर हुए हैं. उन्होंने जीवन के उतार-चढ़ाव के अनुभवों का वर्णन करने के दौरान ही बताया कि वे विज्ञान के छात्र नहीं थे. लेकिन उन्हें उस जमाने में यह कहा गया कि अगर वे विज्ञान की डिग्री ले लें तो उन्हें तत्काल नौकरी मिल सकती है. उन्होंने ऐसा ही किया.
वे विज्ञान की किताबों पर आधारित परीक्षा में उतीर्ण हो गए. उन्हें तत्काल विज्ञान की नौकरी मिल गई. इस उदाहरण से यह समझा जा सकता है कि किताबों को रटकर परीक्षाओं में सफल हो जाना, परीक्षा व्यवस्था की सफलता हो सकती है, लेकिन इससे यह नहीं दावा किया जा सकता है कि किताबों को याद करके कोई वैज्ञानिक चेतना का धारक बन सकता है.
मेरे एक मित्र बता रहे थे कि उनका एक सहपाठी किसी किताब को चित्र की तरह अपनी आंखों में उतार लेता था. वह विज्ञान के विषयों में होने वाली प्रैक्टिकल की परीक्षा में अपनी चेतना और तार्किकता का इस्तेमाल नहीं करता था, बल्कि आंखों में उतारी गई तस्वीरों के सहारे प्रैक्टिकल की परीक्षाओं में सफल हो जाता था.
आंखों में किसी पाठ का चित्र उतार लेना और किसी पाठ को चेतना का हिस्सा बनाने में यहां फर्क देखा जा सकता है. चेतना में उतरी तार्किकता जीवन और देश दुनिया में हर स्तर पर सक्रिय रह सकती है, लेकिन आंखों में उतरी वह तस्वीर केवल शिक्षण संस्थान की प्रयोगशाला में होने वाली परीक्षाओं तक ही सीमित रह जाती है.
सोशल मीडिया पर कई तरह के वीडियो को देखकर इस बात के लिए इर्ष्या होती है कि कैसे वैज्ञानिक चेतना से लैस समाज के लोग छोटी-छोटी जरुरतों को ध्यान में रखकर चीजें तैयार कर देते हैं. बेकार की कई चीजों से काम की चीज तैयार कर देते हैं. यह वैज्ञानिक चेतना की ही देन है. तार्किकता मतलब तर्क को विकसित करना इसके आधार में होती है.
यहां इस बात का भी हम अध्ययन कर सकते हैं कि विज्ञान की पढ़ाई हमारे समाज में कौन करता रहा है. अक्सर हम महसूस करते हैं कि समाज में सबसे कमजोर मानी जाने वाली महिलाएं और सामाजिक रूप से अपेक्षित लोगों का रुझान सामाजिक विज्ञान और मानविकी के विषय तक सीमित रखे गए हैं. विज्ञान की पढ़ाई तेज तर्रार माने जाने वाले बच्चे करते रहे हैं. यहां तेज तर्रार किस अर्थ मैं है. क्या चेतना के विस्तार के अर्थ में है या फिर किताबों को रट लेने के अर्थ में हैं, यह स्पष्ट है.
यह कहने और स्वीकार करने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए कि विज्ञान की परीक्षाओं को पास करके नौकरशाहों की एक फौज तैयार हुई, जिसका मकसद राज करना रहा है. विज्ञान को लेकर परजीविता की स्थिति आज भी बनी हुई हैं. विज्ञान को लेकर हम आज भी भरोसेमंद नहीं हो सके हैं. विज्ञान का विस्तार चेतना के विस्तार के साथ जुड़ा हुआ है. हम वैज्ञानिक चेतना से धनी नहीं होते हैं. इसीलिए विश्व गुरू बनने का दावा करते हैं. विश्व गुरु बनना विज्ञान की चेतना का आदर्श नहीं हो सकता है. विज्ञान और उससे विकसित चेतना प्रभुत्व में नहीं सेवा में विश्वास करती है.
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