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ताऊ छोरियां छोरों से आगे हैं- ओलंपिक ही नहीं विज्ञान से लेकर राजनीति तक दबदबा

भले ही इनकी क्रांति चीख-चीख कर अपने होने का प्रमाण नहीं देती हो लेकिन बदलाव की यह बयार साफ महसूस की जा सकती है

आशुतोष कुमार सिंह
ब्लॉग
Published:
<div class="paragraphs"><p>खेल से लेकर विज्ञान,राजनीति तक बढ़ती युवा लड़कियां&nbsp;</p></div>
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खेल से लेकर विज्ञान,राजनीति तक बढ़ती युवा लड़कियां 

(फोटो- कामरान अख्तर,क्विंट)

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खेलों के महाकुंभ ओलंपिक की समाप्ति हो चुकी है. इसके 121 साल के इतिहास में भारत ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए अपने झोली में 7 मेडल डाले, जिसमें एक ऐतिहासिक गोल्ड मेडल भी शामिल है .एक ऐलान जो इन पदकों के आगे लिखे नाम खुद कर रहे हैं, वह यह है कि युवा लड़कियों ने भारतीय खेल जगत में क्रांति लाते हुए फ्रंटफुट पर खुद बागडोर संभाल ली है.

मीराबाई चानू, पीवी सिंधु, लवलीना बोरगेहेन, भारतीय महिला हॉकी टीम, अदिति अशोक जैसे तमाम नामों ने पिछले 15 दिनों में सिद्ध कर दिया है कि छोरियों को छोरे से मुकाबले की जरूरत नहीं है. उनका मुकाबला खुद से है और वो इस में बहुत आगे चल रही हैं.

वैसे बात सिर्फ खेल जगत की नहीं है. नौजवान लड़कियों ने शिक्षा,विज्ञान से लेकर राजनीति या वोटिंग पैटर्न तक, हर जगह अपनी दावेदारी मजबूती के साथ रखी है.

शिक्षा

बात चाहे 10 वीं के रिजल्ट की हो चाहे 12वीं के रिजल्ट की ,एक पैटर्न जो हमेशा अखबारों के हेडलाइन में देखा गया है वह यह है कि "इस बार भी लड़कियों ने मारी बाजी".

सिर्फ 2020-21 एकेडमिक सेशन की बात करें तो सीबीएसई के 12वीं क्लास के घोषित रिजल्ट के मुताबिक कुल 99.37% विद्यार्थियों ने परीक्षा पास की है लेकिन लड़कियों का पासिंग पर्सेंट लड़कों की अपेक्षा ज्यादा है. यहां तक कि सीबीएसई के दसवीं क्लास के रिजल्ट में भी लड़कियों का पासिंग परसेंट लड़कों की अपेक्षा 0.35% अधिक है.

याद रखें कि यह कहानी सिर्फ 1 साल की नहीं है .लड़कियों की यह बढ़ोतरी तब और अधिक मायने रखती है जब वर्ल्ड बैंक के आंकड़ों के मुताबिक 13.2 करोड़ लड़कियां भारत में स्कूली शिक्षा से बाहर हैं और लगभग 40% नौजवान लड़कियां स्कूल नहीं जाती. सिस्टमैटिक शोषण के बावजूद लड़कियों ने अपनी दावेदारी मजबूती के साथ सामने रखी है.

साइंस & टेक्नोलॉजी

शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने जुलाई 2021 में बताया था कि साइंस टेक्नोलॉजी इंजीनियरिंग और मैथमेटिक्स (STEM) को अपने फील्ड ऑफ स्टडी के रूप में चुनने वाली महिलाओं की संख्या पिछले 3 सालों में 53,388 से बढ़ गई है. जहां 2017-18 में यह आंकड़ा 10,02,707 था वही 2019-20 में यह 10,56,095 हो गया.

वहीं दूसरी तरफ ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन रिपोर्ट के अनुसार इस बीच इसी क्षेत्र में लड़कों की संख्या 12,48,062 से कम होकर 11,88,900 तक आ गई.

शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने लोकसभा में लिखित जवाब देते हुए बताया था कि अमेरिका (34%), यूके (38%), जर्मनी (27%) फ्रांस (32%) जैसे विकसित राष्ट्रों की अपेक्षा भारत (43%)में महिला ग्रेजुएट ने STEM को अधिक चुना है.

बावजूद इसके STEM जॉब में उनकी हिस्सेदारी मात्र 14% है .जिसमें उन्हें सही प्रतिनिधित्व मिलना अभी भी बाकी है.

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बदलता वोटिंग पैटर्न

भारत में राजनीति की परवाह किसे है ? कम से कम पहली बार वोट देने जाती वह महिलाओं को तो है ही. 2019 लोकसभा चुनाव के पहले द क्विंट के 'मी, द चेंज' कैंपेन के तहत किए गए "लोकनीति-CSDS-द क्विंट सर्वे" के मुताबिक 68 फ़ीसदी युवा महिला वोटरों ने माना कि पुरुषों की तरह महिलाओं को भी राजनीति में हिस्सा लेना चाहिए. 5 में से 3 महिला वोटरों ने कहा कि वे 2019 के लोकसभा चुनाव में अपने परिवार या पति के दबाव में नहीं, बल्कि अपने मर्जी से वोट डालेंगी.

1962 के चुनाव में जहां पुरुष वोटरों एवं महिला वोटरों के पार्टिसिपेशन में 15% का अंतर था, वहीं 2019 आम चुनाव तक यह अंतर मात्र 0.3% का रह गया है.

यहां तक कि इस चुनाव में आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु ,पुडुचेरी, अंडमान-निकोबार, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, केरल, गोवा, मणिपुर, दादरा एवं नगर हवेली, लक्षद्वीप, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, झारखंड, उत्तराखंड ,बिहार और दमन-दीव में महिला वोटरों का प्रतिशत पुरुषों की अपेक्षा अधिक था.

राजनीति में प्रतिनिधित्व

राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की स्थिति यकीनन आदर्श से अभी काफी दूर है लेकिन कुछ सुधार स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं. पंचायती राज मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार विभिन्न पंचायती राज संस्थाओं के स्तर पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व 46% तक है.

इसके अलावा युवा महिलाओं ने अपने अधिकारों के साथ-साथ सामाजिक तौर पर महत्वपूर्ण मुद्दों के लिए स्टैंड लेना शुरू किया है. नागरिकता संशोधन कानून(CAA) पर विरोध प्रदर्शन की बात हो या किसान आंदोलन की बात, युवा महिलाएं स्थापित शासन तंत्र के खिलाफ विरोध की आवाज के रूप में सामने आई है.

हालांकि अभी भी समानतामूलक समाज के लिए एक लंबा सफर तय करना है लेकिन गत वर्षो में युवा महिलाओं ने अपनी ओर से पूरी जान झोंक दी है.

मीराबाई चानू, पीवी सिंधु और लवलीना के मेडल तथा भारतीय महिला हॉकी टीम, अदिति अशोक जैसे तमाम महिला खिलाड़ियों का प्रयास सिद्ध करता है कि बदलाव की यह सतत प्रक्रिया चालू है. भले ही इनकी क्रांति चीख-चीख कर अपने होने का प्रमाण नहीं देती हो लेकिन बदलाव की यह बयार साफ महसूस की जा सकती है.

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