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सुप्रीम कोर्ट में राजद्रोह कानून (Sedition Law) को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई शुरू हो चुकी है. सुनवाई के पहले ही दिन देश की सबसे बड़ी अदालत ने केद्र सरकार को नोटिस जारी करके पूछा है कि आजादी के 74 साल भी आखिर इस कानून की जरूरत क्यों है? सुप्रीम कोर्ट बेहद सख्त टिप्पणी करते हुए इस कानून को संस्थानों के काम करने के रास्ते में गंभीर खतरा बताया है. साथ ही इसकी ऐसी असीम ताकत के गलत इस्तेमाल की आशंका जताई है.
सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की पीठ राजद्रोह कानून की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही है. सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एनवी रमना इस पीठ के अध्यक्ष हैं. जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस हृषिकेश रॉय पीठ के सदस्य हैं. यह याचिका मैसूर के मेजर जनरल (रिटायर्ड) एसजी वोम्बटकेरे ने दाखिल की है. इसमें आईपीसी की धारा 124ए यानी राजद्रोह की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए इसे आईपीसी से पूरी तरह हटाने की अपील की गई है.
भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 124 ए राजद्रोह को ऐसे किसी भी संकेत, दृश्य प्रतिनिधित्व, या शब्दों के रूप में परिभाषित करती है, जो बोले या लिखे गए हैं, जो सरकार के प्रति "घृणा या अवमानना, या उत्तेजना या असंतोष को उत्तेजित करने का प्रयास" कर सकते हैं.
‘राजद्रोह’ कानून को ही अक्सर ‘देशद्रोह’ कहा जाता है. लेकिन दोनो में फर्क है. जब हम कहते हैं कि अमुक व्यक्ति पर ‘राजद्रोह’ का मुकदमा दर्ज किया गया है तो लगता है कि सरकार के खिलाफ कोई काम करने पर मुकदमा हुआ है. लेकिन ‘देशद्रोह’ शब्द के इस्तेमाल से लगता है कि व्यक्ति ने देश के खिलाफ कोई गलत काम किया है, इसलिए उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया है. शब्दों के हेरफेर से मतलब कितना बदल जाता है, इसे आसानी से समझा जा सकता है. किसी के खिलाफ ‘राजद्रोह’ का मुकदमा दर्ज होते ही उसे ‘देशद्रोही’ कहा जाता है. उसकी प्रतिष्ठा दागदार हो जाती है.
मेजर-जनरल एसजी वोम्बटकेरे (रिटायर्ड) की इस याचिका में कहा गया है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए, जो राजद्रोह के अपराध से संबंधित है, पूरी तरह से असंवैधानिक है और इसे स्पष्ट रूप से समाप्त किया जाना चाहिए.
राजद्रोह एक गैर-जमानती अपराध है. राजद्रोह के मामले में दोषी पाए जाने पर आरोपी को तीन साल से लेकर उम्रकैद तक की सजा हो सकती है. इसके साथ ही इसमें जुर्माने का भी प्रावधान है. राजद्रोह के मामले में दोषी पाए जाने वाला व्यक्ति सरकारी नौकरी के लिए आवेदन नहीं कर सकता है. उसका पासपोर्ट भी रद्द हो जाता है. जरूरत पड़ने पर उसे कोर्ट में हाजिर होना पड़ता है.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की साल 2019 की रिपोर्ट में दर्ज आंकड़ों से पता चलता है कि केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद राजद्रोह के मामले बहुत तेजी से बढ़ें हैं. इसी साल 21 मार्च को सरकार ने लोकसभा में एक लिखित सवाल के जवाब में बताया कि साल 2019 में देशभर में राजद्रोह के 93 मामले दर्ज किए गए. सबसे ज्यादा 22 मामले कर्नाटक में उसके बाद असम में 17, जम्मू-कश्मीर में 11, उत्तर प्रदेश में 10, नगालैंड में 8 और तमिलनाडु में 4 मामले दर्ज किए गए. ये आंकड़े बताते हैं कि बीजेपी शासित राज्यों में राजद्रोह कानून का ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है.
पिछले 6 सालों के आंकड़ों का विश्लेषण करने से और भी हैरान करने वाली बाते सामने आती है.
साल 2014 में देश भर में राजद्रोह के कुल 47 मामले दर्ज हुए थे. इनमे से सिर्फ 14 मामलों में ही चार्जशीट दाखिल हो पाई. 4 मामलों में सुनवाई पूरी हुई और सजा सिर्फ एक को मिली. कन्विक्शन रेट 25% रहा.
साल 2015 में 30 मामले दर्ज हुए, 6 में चार्जशीट दाखिल हुई 4 में सुनवाई पूरी हुई लेकिन सजा किसी को भी नहीं मिली.
2016 में दर्ज हुए 35 मामलों में से 16 में चार्जशीट दाखिल हुई, तीन में सुनवाई पूरी हुई और सजा सिर्फ एक को मिली. इस तरह कनविक्शन रेट 33.3% रहा.
2017 में कुल दर्ज हुए 51 मामलों में से 27 में जार्जशीट दाखिल हो पाई, 6 मामलों में सुनवाई पूरी हो सकी और एक को सजा मिली. कनविक्शन रेट 16.7% रहा.
2018 में कुल 70 मामले दर्ज हुए. इनमें से 38 में चार्जशीट दाखिल हुई, 13 में सुनवाई पूरी हुई और 2 को सजा मिली. कनविक्शन रेट 15.4% रहा.
2019 में दर्ज किए गए 93 मुकदमों में से सिर्फ 40 में ही चार्जशीट दाखिल हो पाई, 30 में सुनवाई पूरी हुई और सजा एक को हुई. कनविक्शन रेट 3.3% रहा.
देश में मोदी सरकार बनने के बाद राजद्रोह मामलों पर आर्टिकिल14 ने 2 फरवरी 2021 को बेहद महत्वपूर्ण आंकड़े जारी किए. 23 मई इन आंकडों को अपडेट किया गया. राजद्रोह के मामलों के 2010 के आंकड़े और विश्लेषण बेहद डरावनी तस्वीर पेश करते हैं:
2010 के बाद से दर्ज किए राजद्रोह के 816 मामलों में लगभग 11,000 व्यक्तियों में से 65% पर 2014 में मोदी के पीएम बनने के बाद से बिना सबूत के केस दर्ज किया गया. राजद्रोह के आरोप में विपक्षी राजनेता, छात्र, पत्रकार, लेखक और शिक्षाविद तक शामिल हैं.
पिछले दशक में राजनेताओं और सरकारों की आलोचना करने के लिए 405 भारतीयों के खिलाफ दर्ज किए गए राजद्रोह के 96% मामले 2014 के बाद दर्ज हुए. इनमें 149 पीएम मोदी के खिलाफ ‘आलोचनात्मक या ‘अपमानजनक’ टिप्पणी करने के लिए दर्ज किए गए. 144 मामले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के खिलाफ टिप्पणी करने पर दर्ज किए गए.
2010 और 2020 के बीच हर साल दर्ज किए गए राजद्रोह के मामलों को दो हिस्सें में बांटकर देखें तो पता चलता है कि ऐसे मामलों में 2014-2020 के दौरान 2010-2014 के मुकाबले हर साल 28% की बढ़ोतरी हुई. 2010-2014 देश में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की सरकार थी. 2014 से मोदी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार है.
सीएए विरोधी प्रदर्शनों के दौरान, 25 में से 22 राजद्रोह के मामले बीजेपी शासित राज्यों में दर्ज हुए. इनमें 3,700 लोगों के खिलाफ मुकदमे दर्ज हुए.
पुलवामा हमले के बाद, 27 में से 26 देशद्रोह के मामले बीजेपी शासित राज्यों दर्ज किए गए. इनमें 42 लोगों के खिलाफ कार्रवाई हुई.
सबसे अधिक राजद्रोह के मामलों वाले पांच राज्यों में से, चार राज्यों- बिहार, यूपी, कर्नाटक और झारखंड में बीजेपी के सत्ता में रहने के दौरान दर्ज किए गए.
यूपी में 2010 के बाद से देशद्रोह के 115 मामलों में से 77% मामले योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद पिछले चार साल में दर्ज किए गए. इनमें से आधे से अधिक ‘राष्ट्रवाद’ के मुद्दों के जुड़े हैं. इमें सीएए का विरोध करने वालों के साथ ‘हिंदुस्तान मुर्दाबाद’ के नारे लगाने, पुलवामा हमले और 2017 में आईसीसी चैंपियंस ट्रॉफी में कथित तौर पर भारत की हार का जश्न मनाने के लिए भी कुछ मामले दर्ज किए गए.
बिहार में 2010-2014 के बीच देशद्रोह के अधिकांश मामले माओवाद और जाली मुद्रा से जुड़े हैं. 2014 के बाद, 23% राजद्रोह के मामले सीएए का विरोध करने वालों के खिलाफ लिंचिंग और असहिष्णुता के खिलाफ बोलने वाली हस्तियों और कथित तौर पर ‘पाकिस्तान समर्थक’ नारे लगाने वालों के खिलाफ थे.
मनमोहन सिंह के शासन काल में 2010 से 2014 तक चार साल में 62 के सालाना औसत से 279 मामलों में कुल 3762 लोगों के खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया. वहीं मोदी के शासन काल में 2014 से 2020 तक 79.8 के सालाना औसत से 519 मामलों में 7136 लोगों के खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा दर्ज किया गया. आंकड़े बताते हैं कि मोदी राज में राजद्रोह कानून का इस्तेमाल बढ़ा है.
2009 में एक भी राजद्रोह का एक भी मामला दर्ज नहीं हुआ.
2010 में 52 मामले दर्ज हुए लेकिन इनमें सरकार का विरोध करने वालों के खिलाफ कोई मामला नहीं था.
2011 में कुल 130 मामले दर्ज हुए, इनमें 94 मामले कुंडंकुलम परमाणु संयत्र का विरोध करने वालों के खिलाफ दर्ज किए गए.
2012 में कुल दर्ज 98 मामलों में से 15 कुंडंकुलम परमाणु संयत्र का विरोध करने वालों के खिलाफ दर्ज किए गए.
2013 में 42 मामले दर्ज हुए लेकिन इनमें सरकार का विरोध करने वालों के खिलाफ कोई मामला नहीं था.
2014 में राजद्रोह के कुल 43 मामले दर्ज हुए लेकिन इनमें सरकार का विरोध करने वालों के खिलाफ कोई मामला नहीं था.
2015 में कुल 39 दर्ज हुए. इनमें 3 मामले गुजरात में पाटीदार आंदोलन में शामिल लोगों के खिलाफ थे.
2016 में कुल 72 मामले दर्ज हुए. इनमें 6 मामले हरियाणा में जाट आंदोलन में शामिल लोगों के खिलाफ थे.
2017 में 86 मामले दर्ज हुए लेकिन इनमें सरकार का विरोध करने वालों के खिलाफ कोई मामला नहीं था.
2018 में 79 मामलों में से 21 पातालगढ़ी आंदोलन से जुड़े लोगों के खिलाफ थे.
2019 में दर्ज 118 में 9 मामले सीएए विरोधी आंदोलन से जुड़े लोगों के खिलाफ दर्ज किए गए.
2020 में दर्ज कुल 107 में से 52 मामले सीएए विरोधी आंदोलन से जुड़े लोगों के खिलाफ दर्ज किए गए.
सुप्रीम कोर्ट राजद्रोह के कानून के गलत इस्तेमाल पर कई राज्य सरकारों और पुलिस को पहले भी कई बार फटकार लगा चुका है. केदारनाथ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जब तक आरोपी व्यक्ति कानून स्थापित सरकार के खिलाफ या सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने के इरादे से लोगों को हिंसा के लिए नहीं उकसाता है, तब तक उसके खिलाफ राजद्रोह का अपराध नहीं बनता है, पुलिस को या तो इसकी जानकारी नहीं है. या वो जानबूझकर इसे अनदेखा करती है.
हालांकि सुप्रीम कोर्ट पहले कई बार राजद्रोह कानून को खत्म करने संबंधी याचिकाओं को खारिज कर चुका है. ये पहली बार है कि वो राजद्रोह के कानून की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रहा है. बहरहाल अब जब इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई करने का ऐतिहासिक कदम उठा लिया है तो माना जाना चाहिए इस पर उसका फैसला भी ऐतिहासिक होगा.
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Published: 17 Jul 2021,09:22 PM IST