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संडे व्यू: अब भी सीख रहे हैं राहुल? दिल्ली के लिए प्रार्थना का वक्त

पढ़ें टीएन नाइनन, राजदीप सरदेसाई, पी चिदंबरम, तवलीन सिंह, और राशिद किदवई के विचारों का सार.

क्विंट हिंदी
नजरिया
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<div class="paragraphs"><p>संडे व्यू: अब भी सीख रहे हैं राहुल? दिल्ली के लिए प्रार्थना का वक्त</p></div>
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संडे व्यू: अब भी सीख रहे हैं राहुल? दिल्ली के लिए प्रार्थना का वक्त

(फोटो- क्विंट हिंदी)

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परीक्षा के दौर में विपक्ष

बिजनेस स्टैंडर्ड में टीएन नाइनन ने लिखा है कि नये विपक्षी गठबंधन के विरोध के बावजूद संसद में कई विधेयक पारित हुए. 2024 में आम चुनाव के बाद ये दल सत्ता मे आते हैं तो क्या ये इन कानूनों को वापस लेंगे? उदाहरण के लिए:

  • क्या वे निर्वाचन आयुक्तों का चयन करने वाले पैनल में देश के मुख्य न्यायाधीश को वापस लेंगे?

  • क्या वे उन चार श्रम संहिताओं को संशोधित करेंगे जिनके चलते बड़े नियोक्ताओं द्वारा अनुबंधित श्रमिकों को काम पर रखने के मामले तेजी से बढ़े हैं?

  • क्या वे नागरिकता (संशोधन) अधिनियम को वापस लेंगे या उसे संशोधित करेंगे?

नाइनन लिखते हैं कि अगर विपक्ष राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों को लेकर अलग रुख पेश करना चाहता है तो उसे बताना होगा कि वह ऐसा कैसे करेगा और क्या करेगा? उदाहरण के लिए विपक्षी दल सरकारी जांच एजेंसियों के उपयोग या दुरुपयोग की आलोचना करते हैं जिनमें केंद्रीय जांच ब्यूरो और प्रवर्तन निदेशालय शामिल हैं. परंतु, जब सीबीआई को ‘पिंजरे में बंद तोता’ कहा गया था तब कांग्रेस सत्ता में थी. तो क्या पार्टी यह कहने लायक है?

नाइनन लिखते हैंछ कि अतीत में भी जब-जब सत्ता बदली है तो उन कानूनों को खत्म किया गया है जिनका सरकारी दुरुपयोग हुआ था. सवाल यह भी है:

  • क्या विपक्ष जम्मू कश्मीर को राज्य का दर्जा वापस दिलाने के अलावा अन्य परिस्थितियों को भी बदलना चाहता है?

  • क्या विपक्ष गो संरक्षण कानूनों को बदलेगा?

  • क्या वे वास्तव में सही तरीके से बनाई जाने वाली समान नागरिक संहिता के खिलाफ हैं? या फिर विपक्ष की आवाज केवल रिकॉर्ड के लिए है क्योंकि मुस्लिम को भय है कि ऐसा कानून उनको निशाना बना सकता है?

अविश्वास प्रस्ताव की बहस के 10 सबक

हिन्दुस्तान टाइम्स में राजदीप सरदेसाई ने लिखा है कि अविश्वास प्रस्ताव पूरा होने के साथ ही 2024 के आम चुनाव का बिगुल बज चुका है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहानी का केंद्रीय फोकस बने हुए हैं. मोदी फैक्टर पूरे विमर्श को आकार देता है. अगर विपक्ष प्रधानमंत्री को स्पष्ट रूप से निशाना बनाना चाहता है तो सरकारी चीयर लीडर्स मोदीवाद के गिर्द ही चर्चा करते हैं. विपक्ष के बायकॉट का सत्ता पक्ष द्वारा तालियां बजाकर स्वागत बड़ी चिंता की ओर संकेत करता है.

राजदीप लिखते हैं कि राहुल गांधी के पास भारत जोड़ो यात्रा की सद्भावना और सांसदी जाने व लौटने के कारण सहानुभूति की ताकत है. वे मोदी विरोधी ताकतों का प्रतीक बन चुके हैं. अब तीसरे मोर्चे की गुंजाइश खत्म हो गयी है. बीजेपी ने जिस इंडिया समूह को गंदा और अवसरवादी ठगबंधन बताया गया था, उसके घटक दलों में एकजुट रहने की भावना पैदा हुई है. मणिपुर मुद्दे पर विपक्ष को राजनीतिक लाभ मिल सकता है लेकिन यह राष्ट्रीय एजेंडा बनेगा इसकी संभावना बहुत कम है.

प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने भले ही संसद में अपने भाषणों से सबका ध्यान खींचा हो लेकिन नामदार बनाम कामदार से अब थकान बढ़ने लगी है. यह भी सच है कि विपक्ष को बदलाव के लिए कोई सम्मोहक कहानी नहीं मिल सकी है. कांग्रेस को संसद के भीतर और बाहर अधिक सुसंगत तरीके से काम करने की जरूरत है. शशि थरूर का संसद में उपयोग नहीं करना गलत रणनीति है. लोकसभा में अनियंत्रित भारी बहुमत संसदीय लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए खतरे का संकेत है. अविश्वास प्रस्ताव के दौरान विपक्षी नेता की ओर से कैमरे का दूर रहना परेशान करने वाली बात रही.

अब भी सीखने के मोड में क्यों हैं राहुल?

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि आखिरकार राहुल गांधी की घरवापसी हो ही गई. बीजेपी में मोदी भक्त किस्म के सांसद बार-बार कहते हैं कि राहुल गांधी अभी ‘बच्चे’ हैं, ‘पप्पू’ हैं, ‘जोकर’ हैं.

जो सर्वेक्षण बताते हैं कि मोदी विश्व के सबसे लोकप्रिय राजनेता हैं वही यह भी कहते हैं कि मोदी को अगर कोई भारतीय राजनेता चुनौती दे सकता है तो वो हैं राहुल गांधी. इस परिवार का इतना सम्मान है भारतवासियों की नजरों में कि सोनिया गांधी को भी अघोषित प्रधानमंत्री के रूप में लोगों ने स्वीकार कर लिया था. सो, राहुल क्यों नहीं? अगर ‘इंडिया’ गठबंधन जीतता है 2024 में तो उसका नेतृत्व पहले राहुल गांधी को सौंपा जाएगा और उन पर छोड़ दिया जाएगा कि वे उसको स्वीकार करने को तैयार हैं कि नहीं.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि जिस अहंकार और घमंड से स्मृति ईरानी ने राहुल गांधी पर हमला किया था वह हैरान करने वाला था. मगर, राहुल गांधी का संसद में वापस आने के बाद पहला भाषण सुनकर गहरी मायूसी हुई.

  • बात मणिपुर की होनी चाहिए थी लेकिन राहुल ने अपना भाषण शुरू किया ‘भारत जोड़ो यात्रा’ से. क्यों?

  • जब मणिपुर पर बात शुरू की तो दो महिलाओं से अपनी बातचीत पर ज्यादा समय लगा दिया.

  • यह बता ही नहीं पाए कि कांग्रेस शासन चला रही होती तो मणिपुर की समस्या का समाधान कैसे करती.

यह अच्छी बात है कि राहुल गांधी आम लोगों के बीच जा रहे हैं लेकिन अब भी वे उनके बारे में जानने के प्रयास में ही लगे हुए क्यों दिखते हैं? इतने साल राजनीति में रहने के बाद अब भी उनका प्रशिक्षण चल रहा है? क्या समय नहीं आ गया है असली नेतृत्व दिखाने का?

अब ये कहना काफी नहीं है कि नफरत के बाजार में वे मोहब्बत की दुकान खोलना चाहते हैं. लेखिका सवाल उठाता है कि आखिर राहुल नूंह क्यों नहीं जाते? बुल्डोजर न्याय के खिलाफ आवाज क्यों नहीं बुलंद करते?

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दिल्ली के लिए प्रार्थना का वक्त

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि 1992 में दिल्ली के लोगों की इच्छा पूरी हुई थी. उन्हें प्रतिनिधि सरकार का हक मिला था. पहला चुनाव बीजेपी ने और फिर अगले तीन चुनाव कांग्रेस ने जीते. किसी भी सरकार को एलजी के साथ काम करने में कोई कठिनाई नहीं हुई.

  • 2014 के आम चुनाव से पहले बीजेपी ने 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने का वादा किया था.

  • मगर, सत्ता में आने के बाद वह पलट गयी. दिल्ली पर नियंत्रण की कोशिशें हुईं. सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में यह कोशिश विफल कर दी.

  • दोबारा 2023 में भी सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ कर दिया कि सेवाओं पर नियंत्रण की विधायी और कार्यकारी शक्ति दिल्ली सरकार के पास है.

चिदंबरम लिखते हैं कि कुछ ही दिनों के बाद केंद्र सरकार अध्यादेश लेकर आ गई. मॉनसून सत्र में वह अध्यादेश कानून बन गया.

अब सवाल है कि क्या संविधान के मुताबिक मंत्रियों के पास वास्तविक शक्ति होती है? संसद द्वारा पारित विधेयक ने संसदीय लोकतंत्र को खतरे में डाल दिया है. मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव और गृह सचिव (अंतिम दो एलजी द्वारा नियुक्त) से युक्त तीन सदस्यीय सिविल सेवा प्राधिकरण द्वारा सरकारी कर्मचारियों से संबंधित सभी पहलुओं पर नियंत्रण किया जाएगा. गृह सचिव बैठकें बुलाएंगे और दो सदस्य कोरम पूरा करेंगे. निर्णय बहुमत से लिए जाएंगे. यहां तक कि प्राधिकरण के सर्वसम्मत निर्णयों को भी एलजी द्वारा पलटा जा सकता है.

लेखक का मानना हि कि गंभीर रूप से घायल संसदीय लोकतंत्र को आपातकालीन वार्ड में ले जाया गया है. दिल्ली के लोग प्रार्थना करें कि सर्वोच्च न्यायालय पीड़ित को बचा ले.

अपरिहार्य परिस्थिति में इंदिरा ने ली थी मिजोरम में सेना की मदद

राशिद किदवई ने इंडिया टुडे में लिखा है कि इंदिरा गांधी ने जनवरी 1966 में प्रधानमंत्री का पद संभाला था और मार्च में ही उन्हें मिजोरम में इंडियन एअर फोर्स की मदद लेनी पड़ी थी. इसके संदर्भ को समझना इसलिए जरूरी है क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद में कांग्रेस पर इस मुद्दे पर निर्मम हमला बोला है. नजदीक से मामले को समझने पर अलग ही कहानी सामने आती है. कर्त्तव्य और राष्ट्रीय हितों का ध्यान रखकर तब नवनियुक्त प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बड़ा फैसला लिया था.

किदवई लिखते हैं कि 1 मार्च 1966 को भारतीय सेना का पूर्व हवलदार लालडेंगा ने आजादी की घोषणा कर दी थी. कराची में रहते हुए चीन और पाकिस्तान की मदद से उसने ‘ग्रेटर मिजोरम’ का एलान कर दिया था. पाकिस्तानी सेना जुंटा का पूरा संरक्षण और समर्थन उसे प्राप्त था. लालडेंगा ने गैर मिजो को इलाका छोड़ देने या फिर मौत का सामना करने का हुक्म सुनाया था.

रॉ के अफसर एस हसनवाला ने लालदेंडा से ज्यूरिख में 1975 में मुलाकात की और शांति वार्ता शुरू हुई. यही पहल 1987 में ऐतिहासिक समझौते में बदल गई. मिजोरम में शांति लाने का श्रेय राजीव गांधी-लालडेंगा समझौते को जाता है.

1950 और 1960 के दशक में लालडेंगा की मिजो नेशनल आर्मी सशस्त्र समूह बन चुकी थी. विदेशी मदद से यह भारत के लिए चुनौती बन चुकी थी. राजीव गांधी से ऐतिहासिक समझौते के बाद हुए चुनाव में मिजोरम के तत्कालीन मुख्यमंत्री लल थनहावला ने डिप्टी सीएम और लालडेंगा ने सीएम का पद संभाला. उसके बाद से ही मिजोरम में शांति का युग शुरू हुआ. लेखक इस बात पर जोर देते हैं कि अंतिम सांसद तक इंदिरा गांधी ने राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखा. भिंडरावाले के खिलाफ निर्णायक लड़ाई भी उन्होंने इसी भावना से शुरू की थी.

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