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Manipur Violence: एक विकेंद्रीकृत संविधान हो सकता है लोकतंत्र की कुंजी

हमारे संस्थापकों के उन उत्कृष्ट विचारों पर दोबारा गौर करने के अलावा, भारत राज्यसभा का अधिक प्रभावी ढंग से उपयोग भी कर सकता है.

भानु धमीजा
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>अब समय आ गया है कि भारत बहुसंख्यकवाद को खत्म करे और अधिक विनाशकारी नरसंहार को रोके जैसा कि हम मणिपुर में देख रहे हैं.</p></div>
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अब समय आ गया है कि भारत बहुसंख्यकवाद को खत्म करे और अधिक विनाशकारी नरसंहार को रोके जैसा कि हम मणिपुर में देख रहे हैं.

(Photo: Altered by The Quint)

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(मणिपुर संकट, शांति बहाली और न्याय सुनिश्चित करने में भारत की संसदीय संरचना की अकुशलता पर दो-भाग वाले कॉलम का यह दूसरा भाग है. पहला भाग यहां पढ़ें.)

मणिपुर जातीय हिंसा (Manipur ethnic violence) की आग में अब भी जल रहा है. अपने पहले कॉलम में मैंने दलील दी थी कि हमारी संसदीय प्रणाली की बुनियादी खामियों ने बड़े पैमाने पर, और व्यापक रूप से जातीय हिंसा को भड़काया है. ये खामियां क्या हैं- बहुसंख्यवादियों का निरंकुश शासन, सांप्रदायिक सरकारें, विधायी और कार्यकारी शक्तियों का घालमेल और नियंत्रण-संतुलन की कमी.

इन संवैधानिक खामियों ने देश में सभी सरकारों को सत्तावादी बनाया है, और वे समाज की विविधता की जरूरतों को पूरा करने में नाकाम रही हैं.

बहुसंख्यकवाद को खत्म करने के सुझावों पर किसी ने ध्यान नहीं दिया

हमारे संस्थापकों को इस बात का एहसास था, इसलिए उन्होंने कई उपाय सुझाए थे. वल्लभ भाई पटेल, भीमराव अंबेडकर और महात्मा गांधी, सभी ने बहुसंख्यकवाद की समस्या को हल करने के लिए भारत की संवैधानिक संरचना के संबंध में अपने विचार प्रकट किए थे. लेकिन संविधान सभा ने उनके विचारों को नजरंदाज कर दिया.

बहुसंख्यकवाद के निरंकुश शासन को काबू में करने के लिए अंबेडकर ने कार्यकारी शक्तियों को सीमित करने का सुझाव दिया था. उन्होंने लिखा था,

"ब्रिटिश शैली की कार्यपालिका अल्पसंख्यकों के जीवन, आजादी, खुशियों के लिए खतरनाक साबित होगी."

उनके फॉर्मूले ने एक ऐसी सरकार की मांग की थी, जोकि "इस अर्थ में गैर-संसदीय हो कि उसे विधानमंडल के कार्यकाल से पहले हटाया नहीं जा सके." वह चाहते थे कि पूरा सदन बहुमत के मुख्य निर्वाहक (प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री) और सभी कैबिनेट सदस्यों को चुने.

अल्पसंख्यकों के कैबिनेट सदस्यों का चुनाव उनके समुदाय की तरफ से किया जाएगा.

जब संविधान सभा ने अंबेडकर के प्रस्ताव पर चर्चा शुरू की, तब तक उन्हें संविधान की मसौदा समिति का अध्यक्ष बना दिया गया और वह इस बात पर राजी हो गए कि वे अपने व्यक्तिगत विचारों को आगे नहीं बढ़ाएंगे.

पटेल कुछ अलग तरह से बहुमत को नियंत्रित करना चाहते थे. उनका मानना था कि हर राज्य में कुछ विवेकाधीन शक्तियों के साथ मुख्य निर्वाहक (राज्यपाल) को सीधे निर्वाचित किया जाए. उनके मॉडल प्रांतीय संविधान को संविधान सभा ने मंजूर भी कर लिया था. उन्होंने "एक लोकप्रिय राज्यपाल द्वारा धारण किए जाने वाले पद की गरिमा" की तारीफ की थी और लिखा था कि "एक राज्यपाल, जो पूरे प्रांत के वयस्क मताधिकार के जरिए चुना जाएगा, लोकप्रिय मंत्रालय पर काफी प्रभाव डालेगा."

उनकी दलीलों से संविधान निर्माता बहुत प्रभावित हुए थे. उन्होंने यहां तक कह दिया था कि राष्ट्रपति का चुनाव भी सीधे होना चाहिए. उन्होंने पटेल की प्रांतीय और नेहरू की संघीय संविधान समितियों की संयुक्त बैठक के दौरान इस आशय का एक प्रस्ताव पारित किया. लेकिन नेहरू ने उनके प्रस्ताव को अनदेखा कर दिया और बाद में सभा ने पटेल के प्रस्ताव को मंजूर करने वाले अपने फैसले को पलट दिया.

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एक विकेंद्रीकृत संविधान

बहुसंख्यकवाद से बचने का गांधी का नजरिया एकदम अलग था. वह चाहते थे कि भारत में एक विकेंद्रीकृत संवैधानिक ढांचा हो जिसके मूल में पंचायतें हों और वे अपने जिलों के मामले स्वयं चलाएं.

उनके विचारों को उनके एक सहयोगी और बाद में गुजरात के राज्यपाल श्रीमन नारायण अग्रवाल ने गांधियन कॉन्सटीट्यूशन ऑफ फ्री इंडिया (1946) में साफ किया था. इस किताब में शिक्षा, स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था और प्रशासन में स्थानीय स्तर पर पूर्ण स्वायत्तता के साथ "विकेंद्रीकृत ग्राम साम्यवाद" का वर्णन किया गया है. गांधीजी ने महाराष्ट्र की रियासत में एक दशक तक इस संविधान का प्रयोग किया था. गांधी ने कहा था,

"मॉडल राज्य के मेरे सपनों में सत्ता कुछ हाथों में केंद्रित नहीं होगी. एक केंद्रीकृत सरकार बड़ी लागत वाली, निरंकुश, अक्षम, भ्रष्ट, अक्सर क्रूर और हमेशा हृदयहीन हो जाती है.”

लेकिन गांधी के विचारों को संविधान में शामिल नहीं किया गया, जिसे उनकी हत्या के दो साल बाद अपनाया गया था.

इन नेताओं के उन उत्तम विचारों पर दोबारा गौर करने के अलावा भारत राज्यसभा का अधिक प्रभावी ढंग से उपयोग भी कर सकता है. यह सदन, या राज्यों की परिषद राज्यों का प्रतिनिधित्व करने की बजाय, राजनीतिक दलों की परिषद बन गई है.

राज्य को खुद को धार्मिक पूर्वाग्रह से अलग करना होगा

मैंने पहले भी दलील दी है कि राज्यसभा के सदस्यों को पूरे राज्य द्वारा सीधे चुना जाना चाहिए, और प्रत्येक राज्य को समान प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए. इस तरह से निर्मित सदन बहुसंख्यकवादी कानूनों पर रोक लगाने में अधिक प्रभावी होगा.

इसका उपयोग न्यायपालिका की नियुक्तियों और कामकाज; प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई), और अन्य जांच एजेंसियों, और चुनाव आयोग की निगरानी के लिए भी किया जा सकता है.

क्रूर बहुसंख्यकवाद को समाप्त करने के लिए देश की सरकारों को धार्मिक गतिविधियों में शामिल होने से रोकने की भी जरूरत है. यह "चर्च और राज्य का पृथक्करण" किसी भी विविधतापूर्ण लोकतंत्र के लिए महत्वपूर्ण है.

भारत एक धार्मिक परिषद की स्थापना कर सकता है, जिसमें हमारे सभी धर्मों को समान प्रतिनिधित्व और धर्म-आधारित कानूनों में हिस्सेदारी दी जा सकती है.

इन बदलावों- मंत्रालयों पर बहुमत का नियंत्रण खत्म करना; पंचायतों और स्थानीय सरकारों को वास्तविक स्वतंत्रता देना; राष्ट्रपति और राज्यपालों का सीधे चुनाव करना; कार्यकारी प्राधिकार की जांच के लिए विधायिका के दूसरे सदन का उपयोग करना और सरकार को धार्मिक गतिविधियों से रोकने से हमारे शासन में काफी सुधार होगा.

इनमें से ज्यादातर सुधार संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रचलित राष्ट्रपति प्रणाली की अंतर्निहित विशेषताएं हैं. भारत साहसपूर्वक उस प्रणाली के एक संस्करण को पूरी तरह से अपना सकता है.

तब हमें वही विकेंद्रीकृत संरचना मिल जाएगी, जिसका कल्पना हमारे संस्थापकों ने की थी, साथ ही विधायी और कार्यकारी शक्तियों का आवश्यक पृथक्करण और हमारे वरिष्ठ कार्यकारी अधिकारियों के प्रत्यक्ष चुनाव भी संभव होंगे.

किसी भी प्रकार, अब भारत में बहुसंख्यकवाद को खत्म करने और अधिक विनाशकारी नरसंहार को रोकने का समय आ गया है, जैसा कि हम मणिपुर में देख रहे हैं.

(लेखक दिव्य हिमाचल समूह के संस्थापक और सीईओ और 'व्हाई इंडिया नीड्स द प्रेसिडेंशियल सिस्टम' के लेखक हैं. उनका ट्विटर हैंडिल @BhanuDhamija है. यह एक पर्सनल ब्लॉग है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट इसका समर्थन नहीं करता है, न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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