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संडे व्यू: आत्मविश्वास वाला बजट, दलबदल के लिए वोटर जिम्मेदार!

Sunday View: पढ़ें आज एके भट्चार्य, करन थापर, सुनंदा के दत्ता रे,पी चिदंबरम और तवलीन सिंह के विचारों का सार

क्विंट हिंदी
नजरिया
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<div class="paragraphs"><p>संडे व्यू में पढ़ें अखबारों में छपे  आर्टिकल का सार</p></div>
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संडे व्यू में पढ़ें अखबारों में छपे आर्टिकल का सार

(फोटो: क्विंट हिंदी)

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अंतरिम बजट में पारदर्शिता-परंपरा की वापसी

बिजनेस स्टैंडर्ड में एके भट्चार्य ने लिखा है कि चुनावी साल में केंद्र सरकार को 1 फरवरी को केवल लेखानुदान पेश करना रहता है. सरकार ने प्रमुख नीतिगत प्रस्तावों तथा कर बदलावों को जुलाई तक के लिए स्थगित कर दिया है जब नयी सरकार सत्ता में होगी. समय के साथ लेखानुदान ‘अंतरिम बजट’ में बदल गया. इस वर्ष के अंतरिम बजट में पारदर्शिता और परंपरा की वापसी अच्छी बात रही.

अंतरिम बजट केवल जरूरी चीजों पर केंद्रित रहा. पिछले वर्ष के प्रदर्शन की प्रस्तुति एवं आगामी वर्ष के लिए जरूरी आवंटन. किसी बड़ी रियायत, कल्याणकारी योजना व्यय, कर रियायत आदि के जरिए लोगों को रिझाने आदि की कोशिशें नहीं की गई.

केंद्रीय वित्तमंत्री सीतारमण और वित्त मंत्रालय की उनकी टीम की भी सराहना की जानी चाहिए कि उन्होंने बजट के आंकड़ों को पूरी तरह पारदर्शी रखा. इस वर्ष बजट से इतर उधारी वाला हिस्सा खाली रहा, जो बीते कुछ वर्षों की तुलना में सुखद स्थिति है. ऐसे में घाटे के आंकड़े विश्वसनीय हैं. शेयर बाजारों की बात करें तो उनके दिन का अंत भी कमोबेश शुरूआत के स्तर पर हुआ.

भट्टाचार्य लिखते हैं कि यूरिया सब्सिडी में 2023-24 के संशोधित अनुमानों की तुलना में अगले वर्ष 9 फीसदी कमी आने की उम्मीद है. पेट्रोलियम सब्सिडी हालांकि अब बहुत कम है लेकिन उसमें भी गिरावट आने की आशा है.

दूसरी बात यह है कि रक्षा बजट अल्पकालिक और दीर्घकालिक वैश्विक खतरों से अनजान नजर आता है. रक्षा के लिए आवंटन में काफी कमी की गई है. उच्च सब्सिडी वाली औद्योगिक नीति की ओर वैश्विक रुझान को लेकर भारत ने की ठोस प्रति उत्तर नहीं दिया है. व्यय और घाटे पर महामारी का प्रभाव अब फीका पड़ रहा है. आगामी वर्ष के लिए पूंजीगत व्यय में केवल 17 फीसदी वृद्धि का वादा किया गया है. आगामी पांच वर्षों के लिए व्यापक योजना जुलाई में पेश करनी होगी.

दलबदल को वोटरों का समर्थन

करन थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि दलबदलुओं से हम सभी परिचित हैं. हम जितना सोचते हैं, उससे कहीं ज्यादा वे हैरत में डालने वाले होते हैं. लेकिन, क्या आप सोच सकते हैं कि नीतीश कुमार हमेशा मलाई ही खाते हैं तो क्यों? हालांकि, कई लोगों को होनी का अनुमान था लेकिन मैं नीतीश के व्यवहार पर चकित रह गया. यकीन नहीं होता कि कोई आत्मसम्मान वाला व्यक्ति भले ही राजनीतिज्ञ ही क्यों ना हो, अपने अस्तित्व के लिए ही सही इतना नीचे गिर सकता है. न ही सिद्धांत, न ही आदर्श. हालांकि हमारे सहयोगी अशोक उपाध्याय कहते हैं कि अगर आप लालू यादव और जनता दल के अलग होने को जोड़ लें तो नीतीश कुमार ने छठी बार पाला बदला है.

करन थापर याद दिलाते हैं कि एक साल पहले 30 जनवरी 2023 को इस सवाल पर कि क्या वे बीजेपी खेमे में वापसी कर सकते हैं, नीतीश ने कहा था, “मर जाना कबूल है, उनके साथ जाना हमको कभी कबूल नहीं है. ये अच्छी तरह जान लीजिए.” 25 फरवरी 2023 को केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से भी ऐसा ही सवाल पूछा गया था और उन्होंने जवाब दिया था, “बहुत हो गया आया राम गया राम, नीतीश कुमार के लिए बीजेपी के दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो गये हैं.” शशि थरूर ने नीतीश कुमार के लिए एक अमेरिकी शब्द खोज निकाला है- स्नोलीगोस्टर यानी सिद्धांतहीन राजनीतिज्ञ.

करन थापर सवाल करते हैं कि हमारे मतदाता ऐसे दलबदल को क्यों स्वीकार करते हैं? वे उन राजनेताओं को दंडित क्यों नहीं करते जो उसी आधार पर विश्वासघात करते हैं जिसके आधार पर वे चुने गये हैं? लेखक का कहना है कि मेरे पास कोई उत्तर नहीं है.

धर्म का पुनर्जागरण

टेलीग्राफ में सुनंदा के दत्ता रे ने लिखा है कि उनका चीनी-सिंगापुरी टैक्सी ड्राइवर नाराज हो गया. वह 6 दिसंबर 1992 का दिन था और उन्होंने रेडियो पर बाबरी मस्जिद के विद्वंस के बारे में सुना था. उसने कहा, “संयुक्त राष्ट्र को उन पर बमबारी करनी चाहिए.””उन गुंडों को दूसरे धर्मों का सम्मान करना सिखाओ.” इस साल भी 22 जनवरी को लेखक सिंगापुर में थे लेकिन अयोध्या में राम मंदिर के दौरान ऐसी की प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली. फिर भी 32 साल पहले की बर्बरता की यह अगली कड़ी मूल अपराधी की तुलना में जीवन के सभी पहलुओं को कहीं अधिक गहराई से प्रभावित करने की संभावना है. अन्यथा अधिकारियों ने पूरे उत्तर प्रदेश में आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 144 लागू नहीं की होती. इसी तरह सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने पर कम से कम 80 हजार सशस्त्र पुलिसकर्मी तैनात नहीं किए गये होते.

सुनंदा के दत्ता रे ने लिखा है कि राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर तब प्रधानमंत्री ने कहा था, “इस फैसले को किसी की जीत या हार के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए.” “चाहे राम भक्ति हो या रहीम भक्ति यह जरूरी है कि हम राष्ट्र भक्ति की भावना को मजबूत करें.”

लेखक ने आगे लिखा है कि भारत के मुसलमानों ने दिखाया है कि वे अपना ख्याल खुद रख सकते हैं. मंदिर की प्रतिष्ठा के टेलीविजन कवरेज राम मंदिर समारोह को इस रूप में दिखाया मानो ‘1200 वर्षों की दासता’ से छुटकारा मिल रहा हो. गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी ने स्कूली छात्रों के लिए एक किताब की प्रस्तावना में लिखा था कि राम ने पहला हवाई जहाज उड़ाया था.

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युद्ध, प्रेम और राजनीति

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में युद्ध, प्रेम और राजनीति के नियमों की चर्चा की है. दो महायुद्दों के बाद चार जेनेवा समझौतों और उनमें बने नियम-कायदों को सभी 196 देशों ने अपनाया और अनुमोदित किया. संक्षेप में, चार प्रमुख नियम हैं- संघर्ष के दौरान, बीमार, घायल, चिकित्सा और धार्मिक कर्मचारियों की रक्षा करना; समुद्र में युद्ध के दौरान घायलों, बीमारों और टूटे हुए जहाजों की देकभाल करना; युद्धबंदियों के साथ मानवता का व्यवहार करना; कब्जे वाले क्षेत्रों सहित सभी नागरिकों की रक्षा करना. विएतनाम, इराक और लीबिया के युद्धों में इन युद्ध नियमों का उल्लंघन हुआ. रूस-यूक्रेन और हमास-इजराइल के बीच युद्ध में भी युद्ध नियमों का उल्लंघन जारी है.

चिदंबरम लिखते हैं कि प्यार के नियमों पर कई किताबें लिखी जा चुकी हैं लेकिन प्यार के उतने ही नियम हैं जितने दुनिया में प्रेमी हैं और जितनी इस पर किताबें लिखी गयी हैं. लेखक ने प्रेम पर व्यावहारिक नियमों की तलाश की तो उन्होंने विलियम शेक्सपियर की ओर देखा. शेक्सपियर ने लिखा है कि किसी ऐसे व्यक्ति पर अपना प्यार बर्बाद मत करो जो उसकी कद्र नहीं करता.

ऑस्कर वाइल्ड ने लिखा है कि इंसान को हमेशा प्यार में रहना चाहिए. इसलिए किसी को कभी शादी नहां करनी चाहिए. जार्ज बर्नाड शा ने लिखा है कि जब हम प्रेम के लिए किए गये करारों को पढ़ते हैं तो हमारी दिशा क्या होती? हम हत्या की तरफ बढ़ रहे होते हैं.

चिदंबरम ने लिखा है कि राजनीति के मामले में बेहतर है कि राजनीति के नियमों और राजनीति के कानूनों को लेकर भ्रमित ना हों. कानून एक चीज है और नियम दूसरी चीज. जैसे खेल के नियम और खेल खेलना दोनों अलग-अलग चीजें हैं.

राजनीति के नियमों के तहत अंपायर किसी एक पक्ष में खेल भी सकता है. ऐसे कई मामले हैं जहां सदन के अध्यक्ष ही दलबदल के खेल में खिलाड़ी बन गये. इस नियम पर अधिक स्पष्टता और राजनीति के अन्य नियमों के बारे में जानकारी के लिए नीतीश कुमार के पास जाने की सलाह लेखक देते हैं.

कोई भूखा ना रहे

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि बजट वाले दिन ठंड और बारिश के बीच सड़क पर छोटे बच्चे को गोद में लेकर भीख मांगती महिला मिलीं. बजट पेश होने के कुछ दिन पहले कोंकण के गांव में घूमने निकलने पर लेखिका ने तिखा कि सभी रेस्टोरेंट रोशनी से दमक रहे हैं और भीड़ है. पता चला कि आमदनी दुगुनी नहीं तिगुनी हुई है.

लेखिका का कहना है कि इन दोनों घटनाओं के बीच जब याद आता है कि मोदी की गारंटी है कि 2047 तक भारत विकसित देश बन जाएगा तो मुझे इस बात पर यकीन करना मुश्किल होता है.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि यह सच है कि लाभार्थियों के बैंक खातों में सीधा पैसा भेजने से भ्रष्टाचार के कुछ रास्ते बंद हो गये हैं. मगर, यह भी सच है कि केंद्र सरकार आज भी अस्सी करोड़ भारतीयों को मुफ्त में राशन दे रही है. गरीबी अगर कम हुई होती तो इसकी कोई जरूरत नहीं होती और जो निवेश इन योजनाओं में हो रहा है उसको बचा कर हम अपने बेहाल शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च कर सकते थे.

लेखिका का कहना है कि 2047 तक विकसित भारत का सपना देखना मुश्किल है. हर बजट के समय एक छोटा-सा सपना जरूर देखती हूं कि एक दिन आगा जब हर जनप्रतिनिधि यह सुनिश्चित करेगा कि उसके इलाके में कोई भूखा नहीं सोए.

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