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संडे व्यू : नेताजी मतलब ‘जय हिंद’, समोसे की चिंता छोड़े चुनाव आयोग

संडे व्यू में पढ़ें गोपालकृष्ण गांधी, टीएन नाइनन, तवलीन सिंह, अदिति फडणीस, पी चिदंबरम सरीखे लेखकों के विचारों का सार

क्विंट हिंदी
नजरिया
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संडे व्यू में पढ़िए देशभर के प्रमुख अखबारों के चुनिंदा आर्टिकल्स
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संडे व्यू में पढ़िए देशभर के प्रमुख अखबारों के चुनिंदा आर्टिकल्स
(फोटो: क्विंट हिंदी)

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नेताजी मतलब ‘जय हिंद’

गोपालकृष्ण गांधी ने टेलीग्राफ में लिखा है कि 23 जनवरी को आज नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती है. 125वीं जयंती. बीते दो सालों से उनके जन्मदिन को गणतंत्र दिवस उत्सव में शुमार कर लिया गया है. इसे पराक्रम दिवस का नाम दिया गया है.

मगर, वास्तव में नेताजी सबसे ज्यादा ‘जय हिंद’ से जुड़ते हैं. लोकमान्य गंगाधर तिलक को “स्वराज हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है...”के लिए जाना जाता है तो महात्मा गांधी को सत्याग्रह से जोड़ते हैं और भगत सिंह को ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ से, तो नेताजी की ‘जयहिंद’ से ही पहचान होती है.

गोपालकृष्ण गांधी लिखते हैं ‘जय हिंद’ तक नेताजी को बांधा नहीं जा सकता और न ही ‘जय हिंद’ मुहावरा भर समझा जा सकता है. गौरव, विश्वास, आकांक्षा, खुशी और सबसे ऊपर एकजुटता सबका प्रतीक है ‘जय हिंद’.

1962 में बनी फिल्म के इस गीत में हिन्द के लोगों की एकजुटता झलकती है- “नन्हा मुन्हा राही हूं, देश का सिपाही हूं, बोलो मेरे संग- जय हिंद! जय हिंद! जय हिंद!” लेखक बताते हैं कि आबिद हसन ने एक दिन सैनिकों को एक-दूसरे से ‘जय रामजी की’ कहते सुना था और इसमें जो ध्वनि थी उससे बहुत प्रभावित हुए. तभी उन्होंने ‘जय हिन्दुस्तान की’ का संबोधन निकाला. मगर, यह चला नहीं. नेताजी ने इसी में से ‘जय हिंद’ निकाला और यही भारत के राष्ट्रीय अभिवादन का शब्द या संबोधन बन गया.

आजादी का झंडा लहराते हुए देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने कहा था कि उन्हें नेताजी की कमी खल रही है. तब उन्होंने ‘जय हिंद’ का उद्घोष किया था और राष्ट्रीय ध्वजारोहण के समय की परंपरा बन गयी.

सुभाष चंद्र बोस की 125वीं जयंती और भारत की आजादी का 75वीं वर्षगांठ का उत्सव एक साथ पड़ रहा है. हम उस हिंद को खोजें जो भौगोलिक रूप में भारत और इंडिया है,लेकिन वास्तव में यह सबके लिए सुरक्षित घर है- एक ऐसा आदर्श जिसके लिए डॉ अम्बेडकर ने हमारे संविधान को समर्पित किया है.

अंतरराष्ट्रीय मंचों पर मजबूत रहना जरूरी- टीएन नाइनन

टीएन नाइनन ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि चीन की तरह भारत चतुर नहीं है या फिर चीन जैसा रसूख नहीं है. अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता मंचों और न्यायालय में भारत को मिलते रहे एक के बाद एक झटकों (वोडाफोन, देवास,एमेजॉन आदि) की वजह यही है. विदेश में भारतीय परिसंपत्तियों की जब्ती की कार्रवाई हुई है.

ऐसी जब्ती को लेकर शर्मिंदगी वाली खबरें सामने आने पर सरकार प्रतिक्रिया देने में संघर्ष करती रही. कुछेक मामलों में भारतीय अदालतों का इस्तेमाल करते हुए निवेश गारंटी समझौतों (आईजीए) के हत मध्यस्थता निर्णयों को निष्प्रभावी करने का प्रयास किया गया. मौखिक सौदेबाजी भी हुई.

नाइनन सवाल उठाते हैं कि क्या देश के कारोबारी/विधिक/राजनीतिक व्यवहार में कुछ कमी है जिसे दूर करना जरूरी है? यदि हर रक्षा सौदे पर रिश्वत का इल्जाम लगेगा, आपूर्किर्ताओं पर इल्जाम लगेंगे तो आपूर्कितकर्ता नहीं बचेंगे.

नाइनन लिखते हैं कि देवास मामले में अनुबंध रद्द करने की वजह उससे अलग थी जो सर्वोच्च न्यायालय ने अब घोषित की है.

तत्कालीन चेयरमैन जी माधवन नायर, जिन पर पिछली सरकार ने देवास को अवांछित लाभ पहुंचाने का आरोप लगाया था था, उन्हें भाजपा ने अपनी पार्टी में शामिल कर लिया. अब फर्जीवाड़ा सामने आने के बाद क्या बीजेपी जी माधवन नायर का त्याग करेगी? हमें अनुभव से सीखना चाहिए कि अस्पष्ट रुख की कीमत चुकानी करनी पड़ती है. इसलिए किसी भी अनुबंध पर हस्ताक्षर करने से पहले तैयारी रखें.

बेपरवाह सरकार को मिले राजनीतिक चुनौती- पी चिदंबरम

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे डॉ अरविंद सुब्रमनियन ने सरकारी अनुदान, संरक्षणवाद और क्षेत्रीय व्यापार समझौतों को खत्म करने की जरूरत बतायी है.

उनकी दूसरी चिंताओं में संदिग्ध आंकड़े, संघवाद-विरोध, बहुसंख्यकवाद और स्वतंत्र संस्थानों को नजरअंदाज करने जैसे मुद्दे हैं. भारत सरकार के एक अन्य मुख्य आर्थिक सलाहकार डॉ अरविंद पनगड़िया के लेख का भी चिदंबरम जिक्र करते हैं जिसमें उन्होने मुक्त व्यापार समझौतों को स्वीकार करने और अर्थव्यवस्था को खोले जाने की वकालत करते हैं. प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों का दायरा बढ़ाने की जरूरत बताते हैं. शिक्षा में सुधार की जरूरत बताते हैं.

सरकार की हर मोर्चे पर विफलताओं को आंकड़ों के जरिए समझाते हुए पी चिदंबरम लिखते हैं कि गलत आर्थिक नीतियों का नतीजा आम लोगों को भुगतना पड़ रहा है. जब बेइंसाफी और अन्याय बढ़ता है तो असमानता बढ़ती है.

भारत की शीर्ष दस फीसदी आबादी के पास राष्ट्रीय आय का सत्तावन फीसदी हिस्सा है और निचली पचास फीसदी आबादी के पास सिर्फ तेरह फीसद. शीर्ष एक फीसद लोगों के पास राष्ट्रीय आय का बाईस फीसद हिस्सा है. अरबपतियों की संख्या 102 से बढ़कर 142 हो चुकी है जबकि 84 फीसदी लोगों की आमदनी में गिरावट आ चुकी है.

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मार्च 2020 में अरबपतियों की दौलत 23.14 लाख करोड़ रुपये थी जो नवंबर 2021 में बढ़कर 53.16 लाख करोड़ रुपये हो गयी. 4 करोड़ 60 लाख से ज्यादा लोग बेहद गरीबी में चले गये. लेखक ने लिखा है कि बजट आने ही वाला है.

अगर सरकार ने यह मान लिया है कि बदलाव की कोई जरूरत नहीं है तो यह एक त्रासदी ही होगी. ऐसी सरकार को राजनीतिक कीमत अदा करने की चुनौती मिलनी चाहिए.

समोसे की चिंता छोड़े चुनाव आयोग-तवलीन सिंह

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में चुनाव आयोग की ओर से प्रत्याशियों के लिए तय की गयी खर्च की सीमा की हंसी उड़ाई है. सुबह के नाश्ते पर खर्च सैंतीस रुपये से ज्यादा ना हो, समोसे खाने का जी करे तो छह रुपये से ज्यादा खर्च ना हो. प्रचार गाड़ियों पर खर्च भी तय है. मगर, तवलीन सिंह लिखती हैं कि यह सब बेमानी है.

क्योंकि न तो चुनाव आयोग चुनाव में बेतहाशा खर्च रोक पाया है और न ही राजनीतिक दल इसे रोकने को तैयार दिखते हैं.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि चुनाव के वक्त उन नेताओं को भी जो ईमानदार हैं ब्लैक मनी का या कालाधन का इंतजाम करना पड़ता है. जीत के बाद उनका ख्याल रखना पड़ता है जिनसे रकम ली गयी है. ये सारी बातें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी पता है जिन्होंने ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ की कसम खायी थी.

बड़े-बड़े काफिले, कार्यकर्ताओं की भीड़, उन्हें नाश्ता-पानी कराना सब जरूरी है. जो बाहुबली कभी चुनाव में अतिरिक्त खर्च का बोझ उठाया करते थे, अब वे खुद सदन में पहुंचने लगे हैं. जनता कोभी सब बातें पता हैं. चुनाव के समय में विकास के कार्यों की झड़ी लग जाती है. अब आम वोटर भी फायदा उठाने लग गये हैं.

वे दिन गये जब आम मतदाता इतना भोला हुआ करता था कि किसी की शक्लदेखकर अपना मत उसको दे दिया करता था. वे दिन भी गये जब प्रत्याशीशराब और पैसा बांट कर वोट हासिल करते थे. आज के दौर में मतदाता इतना समझदार हो गया है कि चुनाव अधिकारियों को समोसों की चिंता नहीं करनी चाहिए.

परिवार के साये से बाहर आ चुके हैं अखिलेश-अदिति फडणीस

अदिति फडणीस ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि राजनेता और उनके बेटे में अक्सर दूरी रहती है. चरण सिंह-अजित सिंह या अजित सिंह-जयंत सिंह और मुलायम-अखिलेश हर उदाहरण में यह देखने को मिलता है. अखिलेश यादव को राजनीति में लाने का फैसला अमर सिंह के लोधी रोड स्थित आवास पर हुआ था.

तब मुलायम सिंह इससे सहमत नहीं थे. उन्होंने कहा था कि जनेश्वर मिश्र इस पर फैसला करेंगे. बाद में जनेश्वर मिश्र ही अखिलेश के मार्गदर्शक बने. अजित सिंह भी कभी जयंत सिंह के राजनीति में आने के फैसले से खुश नहीं थे.

अदिति फडणीस लिखती हैं कि अखिलेश ने सबसे पहले अपने पिता के खिलाफ रुख अपनाया जब डीपी यादव को सपा से चुनाव लड़ने के लिए टिकट का एलान हुआ. तब अखिलेश प्रदेश में साइकिल यात्रा कर चुके थे. 403 में से 215 विधानसभाओं में 9000 किमी की दूरी तय कर चुके थे.

नतीजा यह हुआ कि 2012 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को 224 सीटें मिलीं. अखिलेश मुख्यमंत्री बन तो गये लेकिन पिता से पारंपरिक रिश्ता कभी मजबूत नहीं था. वे और दूर हो गये. फिर मुलायम और अखिलेश के बीच की अदावत अलग-अलग उम्मीदवारों की सूची के रूप में सामने आयी. चुनाव आयोग ने जब अखिलेश के पक्ष में फैसला सुनाया तब तक काफी देर हो चुकी थी.

2022 आते-आते अब अखिलेश परिवार के दबाव से बाहर आ चुके हैं. वे मुख्यमंत्री बन पाएं या नहीं, लेकिन परिवार की छाया से जरूर दूर हो चुके हैं. वे खुदमुख्तार हो चुके हैं.

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