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तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में सवाल उठाया है कि क्या चापलूसी हम भारतीय नहीं पहचानते? बर्लिन दौरे पर गये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) का स्वागत प्रवासी भारतीयों ने कितने उत्साह से किया, यही भारतीय मीडिया की दिलचस्पी का विषय रही. रूस-यूक्रेन युद्ध में रूस का समर्थन, फिर युद्ध की निंदा और फिर आगे के रुख को लेकर दिलचस्पी का सर्वथा अभाव नजर आया. हद तो तब हो गयी जब एक प्रसिद्ध हिन्दी समाचार चैनल पर हमने सुना- “अपने प्रधानमंत्री के कद की वजह से यूक्रेन में युद्ध रुकने की संभावना दिख रही है.“ यह पत्रकारिता नहीं, चापलूसी है.
तवलीन सिंह लिखती हैं कि पूर्ववर्ती सरकारों में जब ‘सोनिया गांधी मलिका-ए-हिन्दुस्तान’ लिखा गया तब भी इसमें प्रशंसा कम और निन्दा ज्यादा थी. 2 जी मामले में सरकार की धुलाई, कॉमनवेल्थ खेलों में भ्रष्टाचार जैसे मामलों में मीडिया ने खूब हंगामा मचाया था. लेकिन, मोदी के दौर में नोटबंदी की उतनी निन्दा नहीं हुई. कोरोना को लेकर गंभीर गलतियों पर उतना हल्ला मचता नहीं दिखा.
अब जबकि डब्ल्यूएचओ ने कहा है कि भारत में कोरोना के दौरान बतायी गयी मौत की संख्या से 10 गुणा ज्यादा मौत हुई है तो भारत सरकार इसे मानने को तैयार नहीं हैं. अधिकारी चापलूसी में जुटे हैं. पत्रकार भी निडर होकर नहीं बोल रहे. कहा जा रहा है कि ईमानदारी से रिपोर्टिंग करने वालों के घर हर दूसरे दिन एजेंसियां पहुंच जाती हैं. ऐसे में पत्रकारिता को लेकर भारत बहुत बदनाम हो चुका है.
बिजनेस स्टैंडर्ड में टीएन नाइनन ने एक पूर्व गवर्नर के हवाले से लिखा है कि नकारात्मक खबर देकर बाज़ार को चौंकाना गलत होता है. सकारात्मक खबर के साथ चौंकाया जा सकता है. अगर बुरी खबर देनी हो ही तो बाजार को पहले से चेतावनी दे दी जानी चाहिए ताकि वह तैयार रहे. आरबीआई ने अचानक रेपो रेट में बढ़ोतरी की. यह नकारात्मक आश्चर्य बनकर सामने आया. एक महीना पहले तक रेपो रेट में बदलाव न करने को लेकर सहमति थी. फिर रुख में बदलाव का मतलब क्या यह है कि रिजर्व बैंक अब मुद्रास्फीति से निपटने में गंवाए गये समय की भरपायी का प्रयास कर रहा है?
वित्त मंत्रालय को न्यूनतम लागत पर उधारी की सुविधा दिलाई. इस तरह मौद्रिक प्राधिकार की भूमिका द्वितीयक हो गयी. लेखक ध्यान दिलाते हैं कि सरकार का कुल कर्ज तेजी से बढ़कर जीडीपी का 90 फीसदी हो चुका है. अगर ब्याज दरें बढ़ती हैं तो इस भारी-भरकम कर्ज की भरपाई महंगी हो जाएगी. ऐसे में सरकार के लिए अन्य चीजों पर व्यय करना मुश्किल हो जाता. मुद्रास्फीति को बढ़ने दिया गया ताकि नॉमिनल जीडीपी मजबूत रहे.
संकर्षण ठाकुर ने टेलीग्राफ में लिखा है कि कमजोर हाथ में है कांग्रेस. व्यर्थ की राय-शुमारी हो रही है. सिर्फ एक सांसद बनने के लिए वायनाड चले जाने वाले राहुल गांधी न तो यह कहते हैं कि वे कांग्रेस के अध्यक्ष नहीं बनेंगे और न ही यह कहते हैं कि वे इस पद की जिम्मेदारी संभालेंगे. फिर भी राहुल ही कांग्रेस का चेहरा, रणनीतिकार, मुख्य प्रवक्ता, संगठक सबकुछ बने हुए हैं. 2019 में लोकसभा चुनाव में हार के बाद राहुल गांधी ने जो लंबा-चौड़ा पहेलीनुमा इस्तीफा लिखा था, उस पर वे क्या खुद अमल कर पाए? त्यागपत्र में वे खुद को योद्धा बताते है लेकिन क्या उन्होंने कभी अपने इस इरादे का इजहार किया?
संकर्षण ठाकुर लिखते हैं कि आगे क्या करना है इसे लेकर राहुल तनिक भी चिंतित नजर नहीं आते. राहुल गांधी के बगैर काग्रेस में कुछ भी नहीं होता. लेकिन, जो होता है इतना थोड़ा होता है कि कांग्रेस लकवाग्रस्त नजर आ रही है.
टाइम्स ऑफ इंडिया में चेतन भगत ने लिखा है कि किसी भी भारतीय शहर में आप बाहर निकल जाएं- चाहे वह रिटेल की दुकानें हों या फिर बस स्टॉप या फिर रेलवे स्टेशन; हर जगह ऐसी भीड़ है जैसे कभी कोविड की महामारी इस देश में आयी ही ना हो. कुछ लोग अब भी मॉस्क पहन रहे हैं.
हालांकि वे मॉस्क नाक से नीचे लटक रहे होते हैं. सोशल डिस्टेंसिंग और कोविड सेफ्टी प्रोटोकॉल भी अब नजर नहीं आते. भारतीय दफ्तर जा रहे हैं, शादियों में शरीक हो रहे हैं. बे बस, ट्रेन, हवाई जहाज सब पर सवार हो रहे हैं.
ऐसे में यह सही मौका है जब भारत के मैन्यूफैक्चरिंग वातावरण को इतना मजबूत कर दिया जाए कि आत्मनिर्भर भारत का नारा उपयोगी बन जाए. ऐसा करते हुए विदशी निवेश को भी दोबारा पैठ बनाने का मौका मिलगा. भारत अगर इस अवसर का इस्तेमाल करता है और मैन्यूफैक्चरिंग में भारतीय उत्पाद अपनी विश्वसनीयता बनाते हैं तो यह बाजार पर अपनी पहुंच बनाने का उम्दा अवसर है. निश्चित रूप से बाजार चीनी उत्पादों के मुकाबले भारतीय विश्वसनीय उत्पादों को तरजीह देंगे.
पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि व्यक्ति के अख्तियार में यह नहीं है कि वह कहां जन्म ले- लोकतांत्रिक देश में या फिर तानाशाही या सोवियत शैली वाले देश में. लेखक का जन्म ऐसे देश में हुआ जहां व्यक्ति को अपने शरीर पर अधिकार है, आजादी से घूमने, अपनी बात कहने, लिखने, संगठन बनाने का अधिकार है.
एक संहिता से जुड़कर नागरिक संविधान बनाते हैं और फिर राज्य व नागरिक उससे संबद्ध हो जाते हैं. संविधान की व्याख्या का अधिकार न्यायपालिका का है लेकिन उसके सामने विधायिका खड़ी हो गयी है. अमेरिका में 1973 में जज लोगों के साथ खड़े थे और गर्भपात का अधिकार बनाए रखा था (रोए बनाम वेड).
पी चिदंबरम लिखते हैं कि भारत के सुप्रीम कोर्ट में कई मुकदमे लंबित हैं जो आजादी से जुड़े हैं. उनमें शामिल हैं कि
क्या राज्य बिना नोटिस के 86 फीसदी नोटबंदी कर सकता है?
उद्योग जगत के लिए राजनीतिक दलों को बेनामी और असीमित दान देने का अधिकार वाला कानून क्या राज्य बना सकता है?
क्या बिना नोटिस दिए देश को लॉकडाउन में धकेला जा सकता है?
क्या एक ऐसे प्रदेश को जो इंस्ट्रूमेंट ऑफ सक्सेशन के तहत केंद्र में शामिल हुआ था, उसे बगैर विधानसभा की सहमति लिए बिना उप राज्यों में बांटा जा सकता है?
सरकार की गतिविधियों का विरोध करने या मखौल उड़ाने वालों पर क्या राजद्रोह लगना चाहिए?
क्या राज्य असहमति रखने वालों या विरोध करने वालोंके खिलाफ बुलडोजर का इस्तेमाल कर सकता है?
लोगों को आजादी के रक्षक इन मामलों पर फैसले का इंतजार है.
रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ में नयन तारा सहगल के 95वें जन्म दिन (10 मई) पर भारतीय गणतंत्र के प्रति समर्पण की याद दिलाते हुए उनकी आवाज को भारत की अंतरात्मा की आवाज बताया है. गांधीजी की हत्या के दो दिन बाद 1 फरवरी 1948 को नयन तारा ने अपनी मां विजय लक्ष्मी पंडित को चिट्ठी लिखी, जो तब मॉस्को में भारत की राजदूत थीं. चिट्ठी में लिखा-
गुहा बताते हैं कि नयन तारा ने चिट्ठी में आगे लिखा- “बापू नहीं चाहते कि उन्हें श्रद्धांजलि दी जाए...वह जरूर सोचते कि उनका शरीर रहे या न रहे इसका महत्व नहीं है. हमें निश्चित रूप से उस जीवन शैली को महत्व देना चाहिए जो उन्होंने जीया.” चिट्ठी लिखते वक्त नयन तारा 20 साल की थीं. अमेरिका के वेलेस्ली कॉलेज से पढ़कर लौटी ही थीं. जब वह 16 साल की थीं तभी उनके पिता रंजीत पंडित चल बसे थे.
जब कांग्रेस में लोग अंबेडकर के नाम पर चुप्पी लगा दिया करते थे, रंजीत पंडित ने खुलकर उनका साथ दिया. मेरठ षडयंत्र केस मे कम्युनिस्टों की मदद की खातिर चंदा इकट्ठा करने के लिए भी उन्होंने पंडित नेहरू को मनाया था. नयन तारा सहगल ने भी यही सोच तब दिखलायी थी जब उन्होने 2015 में मॉब लिंचिंग और बढ़ती असहिष्णुता के खिलाफ साहित्या अकादमी अवार्ड लौटा दिया था.
लेखक ने अपने कॉलेज के दिनों में विजय लक्ष्मी पंडित के उस भाषण की भी याद दिलायी है जब मार्च 1977 में उन्होंने नेहरू परिवार से होकर भी नवगठित जनता पार्टी के पक्ष में प्रचार किया और इमर्जेंसी की आलोचना की. लेखक को इस बात की भी चिंता है कि देहरादून में अकेली अपने मां की बनाए हुए मकान में रहते हुए वह कैंसर से लड़कर जिन्दा है. मगर, आज के माहौल में क्या उनकी जिन्दगी सुरक्षित है? इसी सवाल का जवाब नयन तारा सहगल के मुंह से अपने मुलाकात के संस्मरण से वे देते हैं- “मेरे पास बीमार होने का समय नहीं है. यह समय बीमार होने का नहीं है....आप अपने स्वास्थ्य की चिंता करें.”
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