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भानु प्रताप मेहता ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी पूर्ण तानाशाही की ओर महत्वपूर्ण कदम है. कुछ वर्षों से लगातार विपक्ष को निशाना बनाया जाना, ईडी का सेलेक्टिव उपयोग, नागरिक समाज पर दबाव, विरोध का दमन और सेंसरशिप जैसी घटनाएं दिखी हैं. इसके अतिरिक्त प्रशासनिक कानून अलग किस्म से डिजाइन किए गये हैं.
चार कारणों से केजरीवाल का महत्व हमेशा उनकी वास्तविक राजनीतिक शक्ति से कहीं अधिक रहा है. वे उन कुछ विपक्षी नेताओं में से हैं जिनके खिलाफ सरकार के मानक आख्यान आसानी से काम नहीं करते.
दूसरी बात यह है कि अरविंद उन नेताओं में से है एक हैं जिनके बारे में राष्ट्रीय स्तर पर कम से कम थोड़ी चर्चा है. तीसरी अहम बात यह है कि अरविंद केजरीवाल को पुराने नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता के रंग में रंगना भी आसान नहीं है. चौथी बात यह है कि दिल्ली सरकार को पूर्ण शक्तियों का प्रयोग करने से रोकने के लिए केंद्र सरकार द्वारा लगभग एक दशक की संवैधानिक धोखधड़ी के बावजूद केजरीवाल ने दृढ़तापूर्वक अपना अधिकार कायम रखा है.
अरविंद की गिरफ्तारी के चौंकाने वाले निहितार्थ हैं. जब भी कोई सत्तारूढ़ दल व्यवस्थित रूप से विपक्ष को निशाना बनाता है तो यह इस तथ्य का भी संकेत दे रहा है कि वह सत्ता के सुचारू परिवर्तन पर विचार नहीं करेगा. उस दृष्टि से भारतीय लोकतंत्र संकट में है. लोकतंत्र एक दुष्चक्र में फंस गया है. यदि इस सरकार के खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध नहीं किया गया तो अधिनायकवाद मजबूत हो जाएगा.
करण थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि नवीन पटनायक ने बीजेपी के साथ नया गठबंधन बनाने की कोशिश की और सफल रहे. ऐसे में 15 साल पहले नवीन पटनायक की ओर से कही गयी बातों को याद करना जरूरी है.
2008 में कंधमाल में ईसाइयों की भयानक हत्याओं के बाद लेखक ने नवीन पटनायक का साक्षात्कार लिया था. कंधमाल की घटना ने न केवल देश को हिला दिया था बल्कि उन्होंने पटनायक की प्रतिष्ठा को भी नुकसान पहुंचाया था. तब नवीन पटनायक ने कहा था, “मेरे शरीर की हर हड्डी धर्मनिरपेक्ष है और मुझे नहीं लगता कि उनमें से कोई भी हड्डी क्षतिग्रस्त हुई है.”
छह महीने बाद 2009 के आम चुनाव से पहले नवीन पटनायक ने बीजेपी के साथ अपना नौ साल पुराना गठबंधन तोड़ दिया.
पटनायक ने कंधमाल की घटना को ब्रेकिंग प्वाइंट बताया. लेखक ने तब नवीन पटनायक को याद दिलाया था कि ओडिशा के संभ्रांत वर्ग में नरेंद्र मोदी से उनकी तुलना होने लगी थी. जवाब में नवीन पटनायक ने कहा, “मुझे यह बिल्कुल अविश्वसनीय लगा.” इससे पता चलता है कि नवीन पटनायक ने कंधमाल के बाद बीजेपी को किस नजरिए से देखा.
लेखक ने याद दिलाया कि नवीन पटनायक ने बीजेपी के साथ अपने रिश्ते की सफाई में कहा था कि ममता बनर्जी, हेगड़े, फारूक अब्दुल्ला, जॉर्ज फर्नांडीस, नीतीश कुमार जैसे धर्मनिरपेक्ष सहयोगियों की याद दिलाई थी. मगर, एक बार फिर ऐसी स्थिति बनी जब नवीन पटनायक 2009 में उस बीजेपी से नाता तोड़ लिया था जिसका नेतृत्व लालकृष्ण आडवाणी ने कर रहे थे. 2024 में उस बीजेपी में लौटना चाहते थे जिसका नेतृत्व नरेंद्र मोदी कर रहे हैं. हालांकि यह कोशिश विफल हो चुकी है लेकिन यह प्रश्न खत्म नहीं हुआ है. प्रश्न का जवाब जनता पर ही छोड़ा जा सकता है.
तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि 1977 में जब वे अपने जीवन में लोकसभा चुनाव पहली बार कवर कर रही थीं तब कांग्रेस के प्रति इतना गुस्सा वोटरों में था कि उन्होंने रायबरेली से इंदिरा गांधी और अमेठी से संजय गांधी दोनों को हरा दिया था. लोगों ने ढोल बजाए थे. लोगों को उम्मीद थी कि नयी सरकार उनके जीवन में परिवर्तन लाएगी. जब ऐसा नहीं हुआ और जनता पार्टी की सरकार बमुश्किल दो साल चली तो इंदिरा गांधी को पूर्ण बहुमत देते हुए फिर सत्ता पर बिठाया. फिर वह काल लंबा चला.
बीते दिनों इंडिया कॉन्क्लेव में भारत सरकार के एक अधिकारी ने लेखिका को कहा, “पहले से बेहतर हाल है कि नहीं?” सड़कें, इंटरनेट, मोबाइल के बावजूद नदियां प्रदूषित हैं, हवा प्रदूषित हैं.
वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन ने कहा कि उनकी कोशिश है कि लोगों को गरिमा के साथ जीने के लिए हर सुविधा दी जाए. इसी कोशिश में उज्जवला योजना और प्रधानमंत्री आवास योजना है.
आने वाले लोकसभफा चुनाव में लाभार्थियों की एक अलग श्रेणी होगी जिनका वोट बीजेपी को ही जाएगा. मोदी की गारंटियां और भी मजबूत होंगी. कई गावों में लोगों ने यह कहा जरूर है कि मोदी जीतेंगे जरूर लेकिन उनके अपने जीवन में पिछले पांच सालों में इतना थोड़ा परिवर्तन आया है कि न होने के बराबर है. लोगों को अयोध्या में राम मंदिर बनना, अनुच्छेद 370 हटा दिया जाना अच्छा लगता है. उन्हें मोदी परिवर्तन की कोशिश करते दिखते हैं. वास्तव में गरीबी को हटा कर गरिमा रेखा बनाने की आवश्यकता है.
पी चिदंबरम ने लिखा है कि आईटी, सीबीआई, ईडी, एसएफआओ, एनसीबी, एनाआइए वगैरह जैसे वर्णों का शोरबा यानी सूप हमारे सामने हुआ करता है. चाय पर अक्सर ये सवाल पूछे जाते रहे हैं- बड़ा भाई कौन? सबसे आगे कौन? घुसपैठिया कौन? कौन अधिक ताकतवर? सत्ताओं का पसंदीदा कौन? शोरबा संग्राम में नया व्यंजन शामिल हो गया- सीएए-एनआरसी. इसी तरह नया झमेला आया है. इलेक्टोरल बॉन्ड का अल्फा-न्यूमेरिक नंबर. कुछ समय तक ईबी-एसबीआई ताकतवर दिख रहा था ईडी-सीबीआई से भी. इन दिनों नया गेम आया है- ‘ज्वाइन द अल्फाबेट्स’. सीबीआईडी-ईडी पहली विजेता है. अगर ईडी-सीबीआई विजेता घोषित की गयी तो यह लोकसभा का आखिरी चुनाव हो सकता है. अगर ऐसा हुआ तो चुनाव पर होने वाला सारा खर्च बच जाएगा.
पी चिदंबरम लिखते हैं कि कोविंद समिति ने जब ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की सिफारिश की तो इस भारी बचत को ध्यान में नहीं रखा गया. अगर समिति ने इस बचत को ध्यान में रखा होता तो उसने ‘एक राष्ट्र कोई चुनाव नहीं’ की सिफारिश की होती.
सीबीआई-आईटी किसी भी रूप में सीबीआई-ईडी या ईडी-सीबीआई से पीछे नहीं है. अगर सीबीआई नकदी जब्त करती है तो वह आयकर विभाग की हो जाती है. अगर आईटी ने नकदी जब्त कर ली तो क्या होगा? गेम के दूसरे संस्करण को ‘ज्वाइन द नंबर्स’ कहा जाता है. 22,217 चुनावी बॉडों की अल्फा न्यूमेरिक पहचान जारी करने के लिए एसबीआई को चार घोड़ों के साथ बांध कर घसीटना पड़ा. ‘अल्फा न्यूमेरिक सूप’ परोसा जा चुका है. दानदाताओं को यह सूप कड़वा लग सकता है. पुरानी कहावत है अंत भला तो सब भला. अब नयी कहावत है- ‘जैसा आगाज वैसा अंजाम’.
रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ में चिपको आंदोलन के प्रणेता चंडी प्रसाद भट्ट के प्रेरणात्मक जीवन की ओर लोगों का ध्यान दिलाया है. चंडी प्रसाद का जन्म 1934 में हुआ था. तब भारत अंग्रजों का उपनिवेश था. हिन्दी में अनुदित अपनी आत्मकथा में उन्होंने बचपन की ज्वलंत स्मृतियों को सामने रखा है. इसमें उनकी बहन जिनसे उनका गहरा लगाव था, उनके शिक्षक, गांव के बुजुर्ग और मेहनतकश निचली जातियों के लोगों की मार्मिक तस्वीरें हैं. इन पन्नों में मध्य हिमाचल का परिदृश्य, उसकी पहाड़ियां, जंगल, खेत और नदियां भी जीवंत हो उठती हैं. वे लिखते हैं, “मुझे अलकनंदा का बहता पानी बहुत पसंद आया और मैं नदी के लयबद्ध प्रवाह से काफी भावनात्मक रूप से प्रेरित महसूस करता हूं.”
गुहा लिखते हैं कि चंडी प्रसाद आकर्षक स्पष्टता के साथ वर्णन करते हैं कि कैसे वह एक उदासीन छात्र थे. उन्हें सफलतापूर्वक मैट्रिक पास करने से पहले परीक्षा उत्तीर्ण करने और एक स्कूल से दूसरे स्कूल जाने में कठिनाई होती थी. सौभाग्य से स्थानीय बस कंपनी में बुकिंग क्लर्क की नौकरी से मामूली मासिक वेतन मिलने लगा. जब भट्ट बाइस साल के थे तब उन्होंने अपनी पहली मोटर कार देखी जो धनी बिड़ला परिवार के सदस्यों को बद्रीनाथ के मंदिर तक ले जाती थी.
1960 के दशक में भट्ट ने श्रम सहरकारी समितियों और महिला मंगल दलों के गठन में सहयोगियों के साथ काम किया. इस बीच भट्ट ने पहाड़ियों में वाणिज्यिक वानिकी की लूट का बारीकी से अध्ययन शुरू कर दिया. 1973 में भट्ट ने वाणिज्यिक वानिकी के खिलाफ ग्रामीणों द्वारा किए गये पहले विरोध प्रदर्शन को आयोजित करने और नेतृत्व करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इसे सामूहिक रूप से ‘चिपको आंदोलन’ के रूप में जाना जाता है.
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