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बिजनेस स्टैंडर्ड में टीएन नाइनन ने 1996 में तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाकात का हवाला दिया है. चुनाव में आर्थिक सुधारों की चर्चा होगी क्या?- इसके जवाब में डॉ. सिंह ने कहा था कि आर्थिक सुधारों पर बात नहीं करेंगे तो करेंगे क्या? मगर, बाद के दौर में चुनाव के दौरान जो मुद्दे चर्चा के विषय रहे हैं, उनमें बट्टे खाते में कर्ज को डालना, बाजार मूल्य से अधिक कीमत पर अनाज की खरीद, मुफ्त खाद्यान्न वितरण, नौकरियों में आरक्षण, पेंशन और फ्रीबीज के साथ-साथ लगातार नकदी का वितरण शामिल हैं. शौचालय, बिजली, इंटरनेट संचार उपलब्ध कराने के लिए भी श्रेय लिया जाता है. अर्थशास्त्री जिसे सुधार कहते हैं, वो मार्केट ओरियंटेड होता है और जिसमें राजकोषीय अनुशासन होता है, वह कभी जगह नहीं पा सका.
नाइनन लिखते हैं कि:
सरकार की अक्षम खरीद प्रणाली की ओर ध्यान दिलाते हुए नाइनन लिखते हैं कि इस वजह से अनाज का भंडार एकत्रित होता जाता है और वह केवल निशुल्क बांटा जाने लगता है. खाद्यान्न वितरण अपरिवर्तित रहने से सब्सिडी बढ़ने लग जाती है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कृषि उत्पादकता का कहीं कोई जिक्र नहीं है जबकि किसानों की आय बढ़ाने का वही एकमात्र टिकाऊ तरीका है. विशुद्ध गरीबी काफी कम होने के दावे के बावजूद बिहार का सर्वेक्षण बताता है कि एक तिहाई आबादी 6 हजार रुपये प्रति माह से कम पर गुजारा कर रही है. राजनेता उदार उपहारों के पीछे अपनी नाकामी को छिपाते हैं. वे समस्या को टाल सकते हैं हल नहीं कर सकते.
इंडियन एक्सप्रेस में तवलीन सिंह ने लिखा है कि त्योहारों और क्रिकेट के बीच उत्तरकाशी की एक अंधेरी डरावनी सुरंग में मलबे के नीचे हफ्ते भर से चालीस मजदूर फंसे हैं. इन बदकिस्मत मजदूरों के नाम, पता, उम्र, परिवार के बारे में पत्रकार मालूमात तक नहीं कर रहे. क्या इनकी जान इतनी सस्ती है? दिवाली के दिन खबर आई थी. सब लक्ष्मी पूजा और दीये जलाने में व्यस्त थे. पत्रकारों ने सुरंग तक जाने की जरूरत नहीं समझी. सुर्खियों में आते-आते चार दिन बीत गए. दिल्ली से बड़े-बड़े केंद्रीय मंत्री पहुंचे और पत्रकारों को भरोसा दिलाया कि मजदूर जीवित और सुरक्षित हैं. मलबे के नीचे खाना-पानी और ऑक्सीजन पहुंचाया जा रहा है .
तवलीन सिंह ने केंद्रीय मंत्री और पूर्व सेना अध्यक्ष वीके सिंह के हवाले से बताया है कि ध्यान मजदूरों को सुरक्षित निकालने पर है, सवाल बाद में लिए जाएंगे. मगर, सच यह है कि दुर्घटना के बाद केवल उनको भुलाने का काम होता आया है.
हिमाचल और उत्तराखंड में आयी बाढ़ उदाहरण हैं.
सिक्किम की एक झील फट गयी थी और करीब पचास लोग डूब गये थे.
संभव है जांच समितियां बना दी गयी हों. मगर, खोजी पत्रकारिता नहीं दिखी.
हिन्दुस्तान टाइम्स में करन थापर ने लिखा है कि जीवित होती तो इंदिरा गांधी 106 साल की होतीं. चालीस साल पहले उनकी हत्या कर दी गयी थी. इमर्जेंसी जैसी बातों से जोड़ने के अलावा उन्हें शायद ही आज की पीढ़ी के लोग याद कर पाते हैं. 16 दिसंबर 1971 को इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान की हार और बांग्लादेश के उदय की घोषणा की थी. एक या दो दिन बाद जब इंदिरा गांधी ने पीएल 480 के रूप में अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन की मदद की पेशकश को ठुकराया था तब 16 वर्षीय लेखक के मन में यही बात आयी थी- करारा जवाब. आज हम सैम मानेक शॉ को उस जीत का श्रेय बहुत सही देते हैं लेकिन इंदिरा गांधी के योगदान को भुलाकर उनके साथ अन्याय भी कर रहे होते हैं.
लेखक ने विभिन्न अवसरों पर अंतरराष्ट्रीय समारोहों में इंदिरा गांधी की मौजूदगी को याद करते हुए लिखा है कि वे सबके आकर्षण का केंद्र हुआ करती थीं. 60 के दशक में ह्वाइट हाऊस में इंदिरा गांधी की मौजूदगी हो या फिर 1982 में लंदन में फेस्टिवल ऑफ इंडिया के दौरान जामवर शॉल में दिखीं इंदिरा- लेखक की स्मृति में वे दृश्य अमिट हैं.
इंडियन एक्सप्रेस में पी चिदंबरम ने लिखा है कि पांच राज्यों में चुनाव प्रगति पर हैं- मिजोरम, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान और तेलंगाना. बीजेपी ने असहमतियों को दबाते हुए वर्तमान सांसदों और केंद्रीय मंत्रियों को चुनाव मैदान में उतारा है. किसी भी चेहरे को संभावित मुख्यमंत्री के तौर पर पेश नहीं किया गया है. कांग्रेस और दूसरे राजनीतिक दलों ने अपना दमखम रखने वाले उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है. छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस के मौजूदा मुख्यमंत्री, तेलंगाना में के चंद्रशेखर राव और मिजोरम में जोरमथांगा अपनी-अपनी पार्टियों का नेतृत्व कर रहे हैं.
लेखक का मानना है कि कांग्रेस का प्रदर्शन बीजेपी से बेहतर रहने वाला है. बीजेपी अब अच्छे दिनों की बात नहीं करती. हर साल दो करोड़ रोजगार के दावे पर भी चुप्पी है. पीएलएफएस सर्वेक्षण के आंकड़े आय में सुधार की पुष्टि नहीं करते. 2017-18 से 2022-23 के दौरान छह सालों में गरीब, गरीब ही रहे. औसत मासिक कमाई बमुश्किल बढ़ी लेकिन वार्षिक औसत उपभोक्ता मुद्रास्फीति हमेशा चार फीसदी से ऊपर रही. इससे कमाई में बढ़ोतरी बेसर हो गयी. अर्थव्यवस्था की खस्ता हालत को देखते हुए लेखक को लगता है कि पांच राज्यों के चुनावों के नतीजे हैरान करने वाले होंगे. इससे 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव को लेकर भी दिलचस्प सवाल पैदा होंगे.
टेलीग्राफ में रामचंद्र गुहा ने लिखा है कि क्लाइमेट क्राइसिस ने हमें सोचने को विवश कर दिया है. भारत में पर्यावरण की समस्या का कारण सिर्फ ग्लोबल वार्मिंग नहीं है. उत्तर भारत के शहरों में जबरदस्त प्रदूषण, हिमालय में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई, लापरवाही से बनाई जा रही सड़कें और डैम, भू-जल में कमी, मिट्टी में रासायनिक तत्वों का जमा होना, बायो डायवर्सिटी का समाप्त होना जैसी तमाम बातें बिगड़ते पर्यावरण की जड़ में हैं.
इंसान बीमार हो रहे हैं और यह उस आर्थिक मॉडल की बड़ी चिंता है जिस पर भारत अमल कर रहा है. लेखक ने पचास साल पहले प्रकाशित पुस्तक ‘मैन एंड नेचर: द स्पीरिचुअल क्राइसिस ऑफ मॉडर्न मैन’ की ओर ध्यान दिलाया है जिसके लेखक हैं सैय्यद नासिर हुसैन. वे यूनिवर्सिटी ऑफ तेहरान में प्राध्यापक थे. उनका जीवन बेहद दिलचस्प और उपयोगी है.
रामचंद्र गुहा बताते हैं कि नासिर हुसैन का जन्म ईरान के एक शिक्षित परिवार में हुआ. प्रतिष्ठित नौकरियों का मोह छोड़कर नासिर हुसैन ने तेहरान में ही अध्यापन को चुना. 1979 में उन्हें देश छोड़ना पड़ा. उनके स्वतंत्र विचार अयातुल्लाहों को नाकाबिले बर्दाश्त थे. लिहाजा प्रो नासिर ने अमेरिका के विश्वविद्यालयों में प्राध्यापक का काम किया. लगातार पुस्तकें लिखीं. “मैन एंड नेचर..” 1960 के दशक में उनके लेक्चरों पर आधारित है.
भारत और चीन ने पश्चिम के विकास मॉडल को स्वीकार किया है. लिहाजा उनकी दी गयी चेतावनी हमें भी आगाह करती है. प्रोफेसर नासिर का मानना है कि समस्या की जड़ है आधुनिक इंसान जो प्रकृति पर शासन करने की प्रवृत्ति रखता है. प्राकृतिक सौंदर्य के विनाश और मशीनों से लगाव के कारण हम मानसिक रूप से बीमार हो रहे हैं. हजारों किस्म की कठिनाइयों को हम जन्म दे रहे हैं. मनुष्य के पास असीमित ताकत और संभावनाओं के गलत भाव में हम जी रहे हैं. आधनिक विज्ञान और आधुनिक अर्थव्यवस्था दोनों ही दोषपूर्ण हैं. “मैन एंड नेचर..” 1968 में पहली बार प्रकाशित हुई थी. आज भी यह प्रासंगिक है और कहीं अधिक प्रासंगिक है.
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