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पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि केंद्र में सरकार चुनते वक्त चुनाव का मकसद सामान्य राष्ट्रीय उद्देश्य के लिए लोगों को एकजुट करने का होना चाहिए. लोगों के वोट का विभाजन ‘क’ और ‘ख’ पार्टी के बीच हो सकता है. दो प्रतिद्वंद्वियों और समान संरचनाओं के बीच पहला वास्तविक चुनाव 1977 में हुआ था. आपातकाल के बाद जय प्रकाश नारायम विपक्षी दलों को छतरी के नीचे ले आए थे. उस चुनाव में जनता पार्टी को निर्णायक जीत मिली थी मगर उसने भारतीय मतदाता को विभाजित कर दिया था. उत्तर और दक्षिण के बीच का यह विभाजन 1977 से अब तक कायम है.
चिदंबरम लिखते हैं. 1977 के बाद हुए चुनावों में क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस को चिनौती दी. तमिलनाडु में डीएमके और एआईएडीएमके, आंध्र प्रदेश में तेलुगु देशम और वाईएसआर कांग्रेस पार्टी, तेलंगाना में टीआरएस, कर्नाटक में जेडी (एस) और केरल में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व वाले एलडीएफ ने. बीजेपी इस भीड़ भरी लड़ाई के मैदान में घुसपैठ नहीं कर सकी. कर्नाटक में वह मैदान में उतरी, पर मिले जुले नतीजे आए.
चिदंबरम बीजेपी पर केंद्र राज्य संबंधों में केंद्रवाद का जहर घोलने का आरोप भी लगाते हैं. वे लिखते हैं कि बीजेपी ने कानूनों को आधार बनाया और क्षेत्रीय दलों को वश मे करने या बर्बाद करने के लिए उनका खुलेआम इस्तेमाल किया.
तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि पिछले हफ्ते उन्होंने राजस्थान के गांवों में दो दिन बीते. राजनीतिक हवा का रुख समझन का प्रयास किया. ज्यादातर लोग मानते हैं कि ‘आएगा तो मोदी ही’. कुछ ने सवाल के जवाब सवाल से दिए, “आप बताइए कि दूसरी तरफ कोई है भी जिसके लिए हम वोट देने का सोच भी सकते हैं?”
लेखिका यह भी बताना जरूरी समझती हैं कि अगर मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री बनते हैं तो इसलिए नहीं कि आम मतदाता मान चुकी हैं कि मोदी ने इतना अच्छा काम किया है बल्कि पिछले दशक में कि उनके सपनों का भारत बन चुका है.
तवलीन सिंह लिखती हैं कि मोदी के इश्तिहार टीवी पर इन दिनों इतने दिखते हैं कि कई बार लगता है कि इश्तिहारों में समाचार देख रहे हैं. गांवों तक सड़कें बन चुकी हैं लेकिन सड़क के दोनों किनारों पर कूड़ों का ढेर भी दिखता है.
गांव वाले बताते हैं कि पिछले पांच साल में कोई खास बदलाव नहीं आया है. फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम गांवों तक उपलब्ध है. लोग मानते हैं कि मोदी की लोकप्रियता बढ़ गयी है और उन्हें जिताने की एक ‘धारा’ बन गयी है. इसकी वजह के तौर पर अनुच्छेद 370 का हटना, राम मंदिर, दुनिया में देश की बेहतर छवि, बगैर रिश्वत दिए पेंशन जैसी सुविधाएं मिलना लोग बताते हैं.
राधिका रामशेषण ने न्यू इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि मायावती ने अकेले लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला कर साहस दिखाया है. इसके उलट बीजेपी ने हर मोर्चे को मजबूत करने, हर दरार को ठीक करने का काम किया है. वहीं खोखली हो चुकी कांग्रेस हवा में उड़ रहे कुछ तिनकों को मजबूती से पकड़कर यह उम्मीद कर रही है कि उनमें से एक या दो भारत को सौभाग्य प्रदान कर सकते हैं.
राधिका रामशेषण का मानना है कि बीजेपी को चाहने वालों की भीड़ में मायावती अलग खड़ी हैं. बीएसपी का इतिहास गठबंधन बनाने और तोड़ने का रहा है. अकेले खड़े होने और एक सर्वदलित पार्टी के रूप में ब्रांड विकसित करने के शुरुआती कदमों के बाद वह कहीं नहीं पहुंच पाई. कांशीराम ने सत्ता को नियंत्रित करने वाली शक्ति के रूप में दलित आबादी का इस्तेमाल करने पर जोर दिया. 3 जून 1995 को बीजेपी की मदद से सरकार बनाने पर कांशीराम ने कहा था, “हम अपने राष्ट्रीय एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए बीजेपी की मदद तो ले सकते हैं.”
द इंडिया फोरम में 202 के एक पेपर में राजनीतिक वैज्ञानिक गाइल्स वर्नियर्स ने बीएसपी पर अपनी थीसिस को अपने सामाजिक आधार को व्यापक बनाने की कोज के रूप में तैयार किया. वर्नियर्स ने कहा कि लंबे समय से बीएसपी की रणनीति “स्थानीय और स्थायी जाति-आधारित गठबंधन बनाना” थी. 2022 के यूपी चुनावों में बीएसपी का वोट शेयर 2007 में 30.4 प्रतिशत के शिखर से घटकर 12.9 प्रतिशत हो गया. मायावती के वोट उनके सहयोगियों को आसानी से स्थानांतरित हो जाते हैं भले ही वे सामाजिक रूप से अनुकूल ना हों. अब दलितों में एक विकल्प तलाशने की भावना घर कर रही है.
आसिम अली ने टेलीग्राफ में लिखा है कि नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के कार्न्यान्वयन की प्रक्रिया शुरू करते हुए केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाहन घोषणा की, “हमारे देश में भारतीय नागरिकता सुनिश्चित करना हमारा संप्रभु अधिकार है. हम इस पर कभी समझौता नहीं करेंगे.”
उन्होंने एक बार फिर नागरिकता की लड़ाई में विरोधियों को तुष्टिकरण और वोट बैंक की राजनीति करने वाला बताया. आम चुनाव की पूर्व संध्या पर अमित शाह का बयान बीजेपी की रणनीति को दर्शाता है. दो मूल संदेश हैं- एक सनातन एवं विशिष्ट हिंदू सभ्यता से भावनात्मक लगाव और दूसरा वैश्विक हिंदू समुदाय के साथ एक पहचान-केंद्रित संबद्धता.
आसिम लिखते है कि सीएए बड़ी वैचारिक परियोजना का महत्वपूर्ण हिस्सा है. लाल किले से अपने आखिरी स्वतंत्रता दिवस भाषण में नरेंद्र मोदी ने घोषणा की थी कि देश अमृतकाल में प्रवेश कर चुका है और अब किए गये बलिदान और लिए गये निर्णय अगले हजार सालों तक देश में गूंजेंगे.
लेखक का मानना है कि महामारी के वर्षों में एसयूवी कारों की बिक्री में नये रिकॉर्ड टूटने के साथ-साथ लगभग दो तिहाई आबादी सब्सिडी वाले खाद्यान्न के लिए सरकार पर निर्भर हो गयी.
बेंजामिन डिजराइली के हवाले से लेखक बताते हैं कि ये दो राष्ट्र हैं, जिनके बीच कोई संबंध नहीं है और कोई सहानुभूति नहीं है. आगे आसिम लिखते हैं कि नागरिक अपने राजनीतिक अधिकारों को सुरक्षित करने के बाद ही अपने सामाजिक अधिकारों का दावा करने के लिए खुद को संगठित करते हैं, जिसके बदले में वे अपने नागरिक अधिकारों को प्राप्त करने के बाद दबाव डाल सकते हैं.
आदिति फडणीस ने लिखा है कि हरियाणा में सियासी तख्तापलट बेहद आसानी से और एकदम नये अंदाज में हुआ. पीएम मोदी के हरियाणा में आने के कुछ घंटे बाद ही मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को अपने पद से इस्तीफा देने के लिए कहा गया. उनकी जगह नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया गया जिन्हें सालभर पहले ही ओपी दनखड़ की जगह राज्य में बीजेपी का प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किया गया था.
दुष्यंत चौटाला के नेतृत्व वाली जनता जननायक पार्टी (जेजेपी) से भारतीय जनता पार्टी के संबंध टूट गये. एक झटके में सरकार के सभी संभावित असंतुष्ट लोगों को दूर कर दिया गया जिसमें पूर्व गृहमंत्री खट्टर के सबहसे बड़े आलोचक अनिल विज शामिल हैं. विज सैनी के शपथग्रहण के दौरान उपस्थित नहीं हुए. उन्हें मंत्री पद नहीं दिया गया.
फडणीस लिखती हैं कि खट्टर के लिए राजनीतिक सेवानिवृत्ति हो सकती है. हालांकि वे करनाल से लोकसभा चुनाव लड़ने जा रहे हैं. मूल रूप से पाकिस्तान के रहने वाले खट्टर गैर जाट समूह का चेहरा थे जहां जाट मुखर होने के साथ ही ताकतवर और अमीर हैं.
खट्टर गैर जाटों की आवाज़ बनकर उभरे. जाट और गैर जाट ने समान रूप से 2019 के आम चुनाव में भाजपा को वोट दिया था लेकिन इसके बाद के विधानसभा चुनावों में स्थिति बदल गयी. हालांकि बीजेपी लोकसभा की सभी सीट जीतने में सफल रही. जबकि विधानसभा में बेहतर वोट हिस्सेदारी के बावजूद बीजेपी 90 में से 40 सीट की सीमा भी पार नहीं कर सकी.
बीजेपी को दुष्यंत चौटाला के नेतृत्व वाली जेजेपी का साथ लेने के लिए मजबूर होना पड़ा. जाट नेतृत्व की से कोई नया राजनीतिक समीकरण तैयार हो सकता है.
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