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संडे व्यू : PM ‘जो करेंगे सही करेंगे’ की धारणा टूटी, मोदी बनाम राहुल गांधी हुआ चुनाव

पढें आज करन थापर, पी चिदंबरम, रामचंद्र गुहा, तवलीन सिंह और निवेदिता मुखर्जी के विचारों का सार.

क्विंट हिंदी
नजरिया
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<div class="paragraphs"><p>संडे व्यू : टूटी धारणा पीएम जो करेंगे सही करेंगे, मोदी बनाम गांधी हुआ चुनाव</p></div>
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संडे व्यू : टूटी धारणा पीएम जो करेंगे सही करेंगे, मोदी बनाम गांधी हुआ चुनाव

फोटो: क्विंट हिंदी 

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प्रधानमंत्री ‘जो करेंगे सही करेंगे’ की धारणा टूटी

करन थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि वे ऐसे युग में पले बढ़े जब यह मानकर चला जाता था कि प्रधानमंत्री सही और सम्मानजनक कार्य करेंगे. अगर प्रधानमंत्री ने यह कहा है तो यह सही होना ही है. हमने पचास और साठ के दशक से लंबी दूरी तय की है. अब प्रधानमंत्री को अन्य दिग्गज नेताओं से बेहतर नहीं माना जाता.

आजादी के बाद के दशक में जो सम्मान और यहां तक कि प्रशंसा नेताओं के लिए थी, वह लगभग पूरी तरह से गायब हो गई है. लेखक का मानना है कि फिर भी उन्होंने कभी ऐसा नहीं सोचा था कि उन्हें प्रधानमंत्री की ओर से अपने ही साथी नागरिकों के एक बड़े वर्ग को अपमानित करते हुए सुनना पड़ेगा.

लेखक विशेष रूप से प्रधानमंत्री के बयान को उद्धृत करते हैं, “पहले जब उनकी सरकार थी, उन्होंने कहा था कि देश की संपत्ति पर पहला अधिकार मुसलमानों का है.” इसका मतलब ये संपत्ति इकट्ठी करके किसको बांटेंगे? जिनके ज्यादा बच्चे हैं उनको बांटेंगे या घुसपैठियों को बांटेंगे? क्या आपकी मेहनत की कमाई का पैसा घुसपैठियों को दिया जाएगा? आपको मंजूर है ये?

घुसपैठियों को दिया जाएगा? आपको मंजूर है ये? लेखक जानना चाहते हैं कि वे कौन लोग हैं जिनके ‘अधिक बच्चे’ हैं? पहले वाक्य में यह स्पष्ट है. उसमें उल्लिखित ये ‘मुसलमान’ कौन हैं? हमारे साथी नागरिक हैं, जिनके पास हममें से प्रत्येक के समान अधिकार और स्वतंत्रताएं हैं. लेखक बताते हैं कि डोनाल्ड ट्रंप अक्सर इस तरह बोलते हैं. लेकिन, हम इससे घबरा जाते हैं.

दुनिया में कई ऐसे उदाहरण हैं, जिन्होंने ऐसी भाषा बोली. लेकिन, उसके बाद वे जनता के मन से उतर गए और अतीत में खो गए. हमारे देश में भी प्रज्ञा सिंह ठाकुर और साध्वी ऋतंभरा ऐसी बयानबाजी का आनंद लेती हैं लेकिन बदले में उन्हें अवमानना और उपहास ही मिलते रहे हैं. लेखक अंत में सवाल करते हैं कि क्या यह नैतिक रूप से सही है कि प्रधानमंत्री साथी नागरिकों के बारे में ऐसी बातें करें?

मोदी ने कांग्रेस के घोषणापत्र को चैंपियन बनाया

पी चिदंबरम ने जनसत्ता में लिखा है कि कांग्रेस का घोषणापत्र 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद से ही तैयार हो रहा था. राहुल गांधी ने कन्याकुमारी से कश्मीर तक की ऐतिहासिक पदयात्रा की थी कि आम लोग कैसे और किन परिस्थितियों में रह रहे हैं और उनकी आकांक्षाएं क्या हैं?

उदयपुर सम्मेलन एक ऐसा अवसर बना था, जिसमें कांग्रेस पार्टी के नेताओं को तीन दिनों तक एक साथ रहने और देश के सामने आने वाली चुनौतियों और उन पर संभावित प्रतिक्रियाओं को लेकर विचार-विमर्श करने का मौका मिला था. अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के रायपुर सम्मेलन के बाद पार्टी नीतियों का एक ऐसा व्यापक और विश्वसनीय मंच तैयार करने में सक्षम हुई थी, जो राज्यों के साथ-साथ राष्ट्रीय चुनावों में भी बीजेपी को चुनौती दे सकता है.

चिदंबरम बताते हैं कि कांग्रेस ने 5 अप्रैल को जब ‘न्याय पत्र’ जारी किया तो इसमें एक बड़े वर्ग को वंचित किए जाने की चिंता दर्ज हुई. यह ‘सबका साथ सबका विकास’ के नारे से पर्दा हटाने और देश के शासकों को आईना दिखाने वाला है. इसने समता और न्याय के साथ वृद्धि और विकास का एक वैकल्पिक दृष्टिकोण भी प्रस्तुत किया गया है.

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने कांग्रेस के घोषणापत्र को 2024 के चुनावों का ‘हीरो’ बताया. नजरअंदाज करने की कोशिशों के बावजूद बीजेपी इसको नजरअंदाज नहीं कर सकी.

बीजेपी का घोषणापत्र खुद बीजेपी नेताओं की जुबान पर भी नहीं चढ़ सका. पहले दौर में जब मतदाताओं ने कांग्रेस के घोषणापत्र पर वोट किया और इसकी भनक जब बीजेपी को लगी तो उसने रणनीति बदली.

कांग्रेस घोषणापत्र पर झूठ फैलाने का सिलसिला चलाया गया- कांग्रेस के घोषणापत्र पर मुस्लिम लीग की छाप है, अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो शरीअत कानून वापस लाएगी, कांग्रेस के घोषणापत्र में मार्क्सवादी और माओवादी आर्थिक सिद्धांतों की वकालत की गयी है, चुनाव जीतने पर कांग्रेस एससी, एसटी और ओबीसी के लिए आरक्षण खत्म कर देगी, कांग्रेस विरासत कर लाएगी. कांग्रेस के घोषणापत्र को सामने लाकर दरअसल मोदीजी ने स्टालिन का समर्थन किया है.

मोदी बनाम गांधी हो चुका है चुनाव

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि दोनों पक्ष कहते हैं कि ये आम लोकसभा चुनाव नहीं है. नरेंद्र मोदी की नजर में विशेष इसलिए है कि ‘इंडी गठबंधन’ जीतेगा तो देश को ऐसी सरकार मिलेगी जो माताओं, बहनों के मंगलसूत्र और स्त्रीधन तक छीनने का काम करेगी. राहुल गांधी कहते हैं कि ये आम लोकसभा चुनाव नहीं है, विशेष है इसलिए कि अगर मोदी तीसरी बार जीतते हैं तो न लोकतंत्र रहेगा और न संविधान.

दोनों तरफ से मतदाताओं को डराकर उनका वोट हासिल करने का काम हो रहा है. असलियत यह है कि मतदाता आज इतने भोले नहीं हैं कि इस तरह के प्रचार के शिकार बन जाएं.
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तवलीन सिंह लिखती हैं कि लोकसभा चुनाव अमेरिकी किस्म का राष्ट्रपति चुनाव बन गया है. लड़ाई सिर्फ राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी के बीच हो रही है. प्रियंका के अलावा दूसरा कांग्रेस राजनेता का कोई महत्व नहीं दिख रहा है. दोनों के निशाने पर मोदी हैं. राहुल के हिसाब से बीजेपी को पहले 180 सीटें आ रही थीं और अब 150 से भी सीटें कम आ रही हैं. कांग्रेस की सरकार बनते ही गरीब महिला के बैंक खाते में ‘खटाखट’ पहुंच जाएंगे एक लाख रुपये. हर शिक्षित बेरोजगार को कांग्रेस पार्टी ‘अप्रेंटिसशिप’ योजना द्वारा एक साल के लिए पहली नौकरी देगी. दूसरी तरफ हैं मोदी और अमित शाह जिन्हें सोशल मीडिया पर ‘मोशाह’ कहा जा रहा है.

इनके प्रचार में कांग्रेस के ‘शहजादे’ को मुख्य निशाना बनाया जा रहा है. याद दिलाया जा रहा है कि जब इनके परिवार के हाथों में देश की बागडोर थी तो भारत को लूटने का काम ही किया गया था. लेखिका को जमीन पर बीजेपी के ही कार्यकर्ता दिखते हैं कांग्रेस के नहीं. मगर, सोशल मीडिया पर कांग्रेस ही छाई हुई है. बीजेपी जीतती है तो इसका श्रेय नरेंद्र मोदी को जाएगा. वही सबसे बड़ा मुद्दा बन गए हैं. इस बार ‘हर मोदी घर घर मोदी’ वाला माहौल नहीं है.

सूरत का संकट

निवेदिता मुखर्जी ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है गुजरात की टेक्सटाइल सिटी के नाम से मशहूर शहर सूरत में इन दिनों चीन की काफी चर्चा है. सूरत वही शहर है, जहां चुनाव से पहले ही सांसद निर्विरोध चुना जा चुका है. चीन का कथानक न केवल यहां के उद्योग जगत की आंतरिक चर्चा का हिस्सा है बल्कि राजनीतिक दलों और कारोबारियों के बीच होने वाली हितधारकों की बैठकों मे भी यह उठता है.

इंदौर के साथ देश के सबसे स्वतच्छ शहर आंके गये सूरत में इनकी शुरुआत करीब एक पखवाड़ा पहले बहुत धूमधाम से की गयी थी. यह अलग बात है कि सूरत और इंदौर दोनों में एक और समानता है. दोनों संसदीय क्षेत्रों से कांग्रेस के प्रत्याशी नाटकीय ढंग से चुनाव मैदान से बाहर हो गये.

निवेदिता लिखती हैं कि सूरत से 37 किमी दक्षिण मे स्थित नवसारी शहर भी ऐतिहासिक महत्व रखता है. दांडी गांव इसके करीब ही स्थित है, जो महात्मा गांधी के नमक सत्याग्रह के लिए प्रसिद्ध है. अतीत के मोह से जुड़े इस परिदृश्य में चीन का जिक्र गुणवत्ता नियंत्रण आदेश (क्वालिटी कंट्रोल ऑर्डर) यानी क्यूसीओ की वजह से आ रहा है. यह आदेश केंद्र सरकार ने जारी किया है.

बीते एक साल में ऐसे आठ आदेश आए हैं, जिनमें जियो- टेक्सटाइल, एग्रो-टेक्सटाइल और मेडिकल टेक्सटाइल जैसे तकनीकी क्षेत्रों से जुड़े संशोधन भी शामिल हैं. यह चिंता की बात है. उद्योग जगत की मांग है कि इन क्यूसीओ को हटा लिया जाए क्योंकि इनकी वजह से कारोबार बाधित हो रहा है.

उनका सवाल है कि अगर चीन के उत्पादों को कुछ अन्य क्षेत्रों में आने की इजाजत है तो टेक्सटाइल क्षेत्र में ऐसा क्यों नहीं हो सकता. सूक्ष, लघु और मझोले उद्योग और बुनकर पहले ही परेशान हैं. उनका कहना है कि क्यूसीओ एक ऐसी बाधा है जिसके बिना वे काम कर सकते हैं.

कमजोर हुआ रिसर्च का वातावरण

रामचंद्र गुहा ने द टेलीग्राफ में लिखा कि, 2009 में दो सम्मानित शिक्षाविदों के साथ रात्रिभोज की चर्चा के साथ बात शुरू की. दोनों शिक्षाविदों ने रिसर्च के लिए विदेश से उत्कृष्ट आवेदन प्राप्त होने की जानकारी साझा की थी. यह अभूतपूर्व था. भारतीय वैज्ञानिक विदेश तो अब भी जा रहे थे लेकिन वैज्ञानिक प्रतिभा का उल्टा प्रवाह पहली बार देखने को मिल रहा था. यह प्रवाह पश्चिम से भारत की ओर था. प्रतिभा पलायन के इस आंशिक उलटफेर के कई कारण थे.

वैश्वित वित्तीय संकट के कारण पश्चिमी विश्वविद्यालयों में धन की कमी हो गयी थी. वहीं, भारत रिसर्च और स्कॉलरशिप पर अधिक खर्च कर रहा था. केंद्र ने हाई क्वालिटी वाले रिसर्च सेंटरों की सीरीज बनायी थी, जिसे इंडियन इंस्टीच्यूट्स ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च नाम से जाना जाता है. हाल के वर्षों में कई नये आईआईटी भी खुले थे. इतना ही नहीं भारतीय विज्ञान का इको सिस्टम आशाजनक लगने लगा था. अर्थव्यवस्था अच्छा प्रदर्शन कर रही थी. ऐसा प्रतीत होता है कि 1990 और 2000 के दशक की शुरुआत में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण समाप्त हो गया था.

रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि स्वतंत्र वैज्ञानिक अनुसंधान करने वालों के लिए 1999 या 1989 या 1979 की तुलना में 2009 भारत में नौकरी की तलाश करने के लिए कहीं बेहतर समय था. 15 साल बाद विदेश में पीएचडी के बाद भारत लौटने के इच्छुक युवा वैज्ञानिकों के लिए क्या आकर्षण रह गया है? लेखक को इस पर संदेह है.

इसका मुख्य कारण लेखक नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली वर्तमान सरकार को मानते हैं. पूर्ववर्ती मनमोहन सरकार जहां वैज्ञानिक अनुसंधान के अधिक अनुकूल थीं. जवाहरलाल नेहरू ने आईआईटी और टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च की स्थापना में भूमिका निभाई तो डॉ मनमोहन सिंह ने आईएसईआर की स्थापना की. दोनों ने बुनियादी अनुसंधान को बढ़ावा दिया. 2014 के बाद यह सब बदल गया. भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन को उनका संरक्षण मिला. वैज्ञानिक और तकनीकी अनुसंधान में कम रुचि दिखी. उन्होंने हिन्दुत्व विचारकों को आईआईटी के कामकाज में मनमाने ढंग से हस्तक्षेप करने की अनुमति दी.

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