कांग्रेस (Congress) पार्टी के 2024 के चुनावी घोषणापत्र (Manifesto) को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Modi) ने जो विवाद खड़ा किया वो दो तरफ जा सकता है. पहला- "संपत्ति का बंटवारा", मंगलसूत्र और अल्पसंख्यकों के मुद्दों को लगातार उठाने से मतदाताओं का सांप्रदायिक रूप से ध्रुवीकरण हो सकता है, जैसा कि बीजेपी को उम्मीद है.
दूसरा- आर्थिक और सामाजिक असमानता से संबंधित मुद्दे चुनाव के केंद्र में आ सकते हैं और मजूबत नैरेटिव सेट कर सकते हैं. इन्हें कांग्रेस के घोषणापत्र में "नीति में उचित बदलाव के माध्यम से" संबोधित करने का वादा किया गया है.
हालांकि, बहुत कुछ कांग्रेस पार्टी की अपनी पकड़ बनाए रखने की क्षमता और मोदी के हमलों के आगे नहीं झुकने पर निर्भर करेगा, जैसा की वो कई बार कर देती है.
मतदान के दो चरण पूरे हो चुके हैं और पांच चरण अभी बाकी हैं. इस समय चुनावी अभियान नाजुक मोड़ पर है. यह जिस भी दिशा जाए, लेकिन 2014 में मोदी के सत्ता में आने के बाद से इस बार का समीकरण अन्य सभी चुनावों से स्पष्ट रूप से अलग है.
प्रधानमंत्री ने पिछले एक दशक से राष्ट्रीय विमर्श तैयार किया है और विपक्ष को बैकफुट पर रखा है. हालांकि, पहली बार नैरेटिव उनसे दूर होता दिख रहा है.
जमीनी स्तर पर सुनाई दे रही विपक्ष के आरोपों की गूंज
मोदी की गारंटी, विकसित भारत और राम मंदिर- जिन मुद्दों के साथ उन्होंने 2024 के चुनावी अभियान की शुरुआत की थी, वो बातें अब उनके भाषणों से गायब हो गई हैं. उनका ध्यान अब कांग्रेस पार्टी के घोषणापत्र पर केंद्रित हो गया है, जिसका वो ध्रुवीकरण के हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की कोशिश में जुटे हैं.
पहली बार, विपक्ष को अपनी जमीन पर लड़ने के लिए मजबूर करने के बजाय, वह शेर को उसकी मांद में घेरने की उम्मीद में लड़ाई को दूसरी तरफ ले जा रहे हैं.
मोदी जब आक्रामक होते हैं तो अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हैं, लेकिन इस बार वो रक्षात्मक स्थिति में नजर आ रहे हैं. अगर बीजेपी 400 सीटें जीतती है तो वह संविधान बदल देगी- विपक्ष के इस आरोप ने पार्टी को परेशान कर दिया है.
ऐसा लगता है कि इस आरोप की गूंज जमीन पर सुनाई दे रही है, विशेषकर दलितों और आदिवासी समुदाय के बीच, जिन्हें डर है कि अगर संविधान को दोबारा लिखा गया तो वो आरक्षण का अधिकार खो देंगे.
हालांकि, प्रधानमंत्री और केंद्रीय मंत्री अमित शाह संविधान और आरक्षण नीति का बचाव करते हुए थक गए हैं, लेकिन दूसरी तरफ अरुण गोविल (रामायण धारावाहिक वाले) के साथ ही चार प्रमुख उम्मीदवारों सहित कम से कम पांच वरिष्ठ बीजेपी नेताओं ने ठीक इसके उलट कहा है.
पार्टी के अंदर सामंजस्य की कमी ने इस मुद्दे पर बीजेपी के वास्तविक रुख के बारे में आशंकाओं को पुख्ता किया है. क्या पार्टी का अनुशासन खत्म हो गया है या यह वोट बैंकों के अलग-अलग समूहों को खुश रखने की एक सोची समझी रणनीति है?
अब एक दस्तावेज पर फोकस, जिसपर ऐसे किसी का नहीं जाता ध्यान
RSS और उसकी राजनीतिक शाखाओं, पहले जनसंघ और फिर बीजेपी, का इतिहास हमें बताता है कि 1950 में अपनाए गए संविधान के उदार ढांचे और संघवाद की अवधारणा को लेकर गंभीर समस्याएं रही हैं.
यह महत्वपूर्ण है कि मोदी ने राजस्थान के आदिवासी बहुल बांसवाड़ा में एक रैली में संपत्ति बंटवारे पर बोलते हुए पहला ध्रुवीकरण बाण चलाया. उनका भाषण "अधिक बच्चे पैदा करने वालों" और "घुसपैठियों" से भरा एक राजनीतिक मैसेज था. यह आदिवासी लोगों को मुसलमानों के खिलाफ खड़ा करने और संविधान बदलने की बात से ध्यान भटकाने का एक स्पष्ट प्रयास था.
यह गौर करने वाली बात है कि मोदी ने पहले चरण के मतदान के बाद ये मुद्दा उठाया. ग्राउंड रिपोर्ट्स से पता चलता है कि संभवतः मूल हिंदू मतदाताओं की उदासीनता के कारण पहला चरण बीजेपी की आशा के अनुरूप नहीं रहा है.
2019 में पार्टी को जिन राज्यों में जीत मिली थी, वहां पर कम वोटिंग को लेकर बीजेपी के कई नेताओं ने चिंता जताई है. अब बीजेपी के सामने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की आजमाई और परखी हुई रणनीति के माध्यम से मुख्य मतदाताओं को चार्ज कर अपने उत्तरी किले को बचाने की चुनौती है.
यह विडंबना है कि मोदी और बीजेपी को इसके लिए कांग्रेस के चुनावी घोषणापत्र का इस्तेमाल करना पड़ा. हालांकि यह उनके मतदाताओं को उत्साहित कर सकता है, लेकिन सामने आ रहे पॉलिटिकल नैरेटिव ने एक दस्तावेज को तेजी से फोकस में ला दिया है, जिसपर न तो किसी का ध्यान जाता और न ही इसे कोई पढ़ता.
अब कांग्रेस के पाले में गेंद
चुनावी घोषणापत्रों पर शायद ही कभी चर्चा होती है या उनका विश्लेषण किया जाता है. मेनिफेस्टों को एक भव्य समारोह में रिलीज किया जाता है और फिर भुला दिया जाता है. ऐसा पहली बार है जब कोई चुनावी घोषणापत्र किसी चुनाव का मुख्य मुद्दा बन गया है.
कांग्रेस ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उसके न्याय पत्र को इतना व्यापक प्रचार मिलेगा. हालांकि बीजेपी को उम्मीद है कि संपत्ति बंटवारे का डर दिखाकर वो कांग्रेस द्वारा वादा किए गए आर्थिक और सामाजिक न्याय की अवधारणा को नकार देगी. लेकिन वास्तविकता यह है कि कांग्रेस का घोषणापत्र सोशल मीडिया पर ट्रेंड कर रहा है और उत्तर भारत के छोटे शहरों में चाय की दुकानों पर इसकी चर्चा हो रही है.
गेंद अब कांग्रेस के पाले में है. हालांकि, गांधी परिवार के दोस्त सैम पित्रोदा के इस बहस में कूदने और विरासत कर का मुद्दा उठाने से पार्टी को झटका लगा है और मजबूरन डैमेज कंट्रोल मोड में आना पड़ा.
अब देखना होगा कि क्या कांग्रेस इस नैरेटिव को कंट्रोल कर पाती है और इसे अपने पक्ष में मोड़ पाती है या नहीं. हालांकि, पार्टी को प्रधानमंत्री मोदी के प्रभावशाली भाषण देने की कला के खिलाफ अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करना होगा. वहीं इस फीके चुनाव को कांग्रेस अपने जवाबी हमले से और दिलचस्प बना सकती है, जिसके नतीजे चुनावी अभियान के शुरु होने तक एक तरह से तय माने जा रहे थे.
(आरती आर जेरथ दिल्ली की एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. वह @AratiJ नाम से ट्वीट करती हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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