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दाग सिर्फ विज्ञापन में अच्छे लगते हैं, असल में नहीं. अब दाग की मार्केटिंग करने वाली कंपनी खुद इस दाग को छुड़ाने के लिए बेचैन है. दाग लग रहा है, राष्ट्र विरोधी होने का. हिंदुत्व विरोधी होने का. वैसे इन दिनों ये दोनों गड्डमड्ड हो रहे हैं, एक को दूसरे का पर्याय बन गए हें. वॉशिंग पाउडर बनाने वाली सर्फ एक्सेल जैसी कंपनी के एक सीधे-सादे विज्ञापन पर घमासान मचा है. विरोधी कह रहे हैं कि कंपनी को ही बॉयकॉट कर दिया जाए. वह एक ‘हिंदू बच्ची’, ‘मुस्लिम बच्चे’ के बीच के मधुर रिश्ते को दिखा रहा है.
होली का दिन है, बच्ची खुद साइकिल चलाकर सबसे खुद पर रंग फिंकवा रही है. जब सबके रंग खत्म हो जाते हैं तो बच्चे को मस्जिद तक पहुंचाती है. फिर कहती है, लौटोगे तो रंग पड़ेगा. किसी को इसमें लव जिहाद का कोण दिख रहा है, किसी ने सोशल मीडिया पर तस्वीर चस्पा की है कि हिंदू लड़का मुस्लिम लड़की को रंग लगाएगा तो क्या आप बर्दाश्त करेगे. कोई स्वदेशी प्रॉडक्ट्स को खरीदने की वकालत कर रहा है. इन सबमें दिलचस्प यह है कि विज्ञापन में बच्ची हिंदू है, यह हमारी धारणा है. विज्ञापन कहीं से उसे हिंदू नहीं बताता. वह किसी भी बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक समुदाय की हो सकती है.
इस कड़ी में मुसलमान को ही बताया जा रहा है कि इस मुल्क में रहना है, तो उसे कहना होगा, कि हम आतंकवाद का समर्थन नहीं करते. हम पाकिस्तान मुर्दाबाद कहते हैं. हम वंदे मातरम का नारा बुलंद करते हैं, यह जिम्मेदारी मुसलमान की है कि वह अपनी देशभक्ति दिखाए. सर्टिफिकेट जेब में लपेटकर रखे. मंदिर जाने वाले मुसलमान को ‘केदारनाथ’ जैसी फिल्म प्रमोट करती है. ‘मुल्क’ जैसी फिल्में साबित करती हैं कि सिर्फ एक ही तरह का मुसलमान ‘अच्छा मुसलमान’ है.
सर्फ एक्सेल का विज्ञापन यह भार बहुसंख्यकों पर डालता है, यह उन्हें साबित करना है कि अच्छा बहुसंख्यक कौन है? बच्ची उसी बहुसंख्यक की प्रतिनिधि है. महात्मा गांधी ने कभी बहुसंख्यकों की इसी जिम्मेदारी की तरफ संकेत किया था. बंटवारे के समय उन पर बार-बार आरोप लग रहे थे कि वे मुस्लिम परस्त हो गए हैं. चूंकि वह हिंदुओं और सिखों से मुसलमानों को बराबरी का दर्जा देने की अपील कर रहे थे, तब गांधी जी ने कहा था कि वे भारत में मुसलिम परस्त हैं और पाकिस्तान में हिंदू परस्त. इस लिहाज से हम इजराइल में फिलिस्तीनी परस्त भी बन सकते हैं और श्रीलंका में तमिल परस्त भी, जिस विज्ञापन पर अनावश्यक अति उत्तेजना दिखाई जा रही है, वह बहुसंख्यकों के दायित्व की याद दिलाता है. बहुसंख्यकवाद को कुप्रचारित नहीं करता.
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इसी शको-शुबहा ने त्योहारों को संकीर्ण बनाया है. पर त्योहार हिंदू या मुसलमान नहीं होते. हम इन्हें सिंक्रोनाइज तरीके से मनाने के आदी रहे हैं. होली पर रंग और दिवाली पर पटाखे, किसे पसंद नहीं. ईद की सेवइयां और क्रिसमस का केक सभी को मीठे लगते हैं. गुरुद्वारों के बाहर कड़ा प्रसाद हथेलियों से पूरा एक बार में गले में उतार लेना, हमें अब भी याद है.
पर अब पटाखों पर रोक में हमें हिंदू विरोध दिखाई देता है और होली को हमने बैर के रंगों से रंग दिया है. तभी एक सामान्य विज्ञापन में होली जैसा रंग-रंगीला त्योहार राष्ट्रीय षडयंत्र का अंग बताया जा रहा है और हम मौन हैं.
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