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कामकाजी औरतों को सिर्फ सैल्यूट मत कीजिए, बराबरी के मौके भी दीजिए

लोगों को औरतों को सैल्यूट करने की बजाय अपने आस-पास उन्हें बराबरी पर लाने के बारे में सोचना चाहिए.

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कामकाजी औरतों को उद्योगपति आनंद महिन्द्रा ने सलाम किया है. जिस बात को समझने में उन्हें लगभग चालीस साल लगे, वह औरतें करियर के शुरुआती सालों में ही महसूस कर लेती हैं.

आनंद महिंद्रा ने अपने नाती को पालने के दौरान यह महसूस किया था कि काम और परिवार, दोनों की जिम्मेदारियां साथ-साथ निभाना कितना मुश्किल होता है. इसके बाद उन्होंने ट्विटर पर अपना कमेंट पोस्ट किया और सोशल मीडिया पर लोगों ने उसे हाथों-हाथ लिया.

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यह इत्तेफाक ही है कि हाल ही में एक ब्रिटिश स्टडी में कामकाजी औरतों की मानसिक स्थिति पर एक खुलासा भी किया गया था. यूके के मशहूर मैनचेस्टर यूनिवर्सिटी और एसेक्स यूनिवर्सिटी के एक साझा शोध में कहा गया था कि कामकाजी औरतों को दूसरी औरतों के मुकाबले 18 प्रतिशत अधिक तनाव का शिकार होना पड़ता है. इस पर अगर उसके दो बच्चे हों, तो यह तनाव बढ़कर 40 प्रतिशत हो जाता है.

इस शोध में दो भारतीय महिला समाजशास्त्री भी शामिल थीं- तारिणी चंडोला और मीना कुमारी. जाहिर सी बात है, यह ब्रिटिश सर्वेक्षण भारत क्या, सभी देशों पर लागू होता है. इस शोध में शरीर की मनोवैज्ञानिक प्रणालियों से जुड़े 11 संकेतकों या बायोमार्कर्स को शामिल किया गया था, जो कि खराब स्वास्थ्य और मृत्यु से संबंधित थे.

शोध में कहा गया है कि इन बायोमार्कर्स में क्रॉनिक स्ट्रेस, हारमोनल लेवल और ब्लड प्रेशर शामिल हैं और औरतों में यह सभी पुरुषों के मुकाबले ज्यादा पाए गए हैं. बच्चों वाली मां में यह सब ज्यादा होता है, बजाय उन औरतों के जिनके बच्चे नहीं होते.

क्या वर्क फ्रॉम होम विकल्प है?

यह भी दिलचस्प है कि काम के लिए फ्लेक्सिबल टाइम मिलने से स्ट्रेस का यह लेवल कम नही होता. न ही घर पर रहकर काम करने से यह दूर होता है. इसलिए 'वर्क फ्रॉम होम' का विकल्प देने वालों को भी यह समझना होगा. जाहिर सी बात है, हमारे देश के नए मातृत्व लाभ कानून में वर्क फ्रॉम होम का विकल्प भी दिया गया है. पर तब करियर का क्या होगा, जिसमें मां बनने के बाद अचानक ब्रेक आ जाता है. यह अलग सवाल है...कुल मिलाकर अगर घर पर रहकर भी आप फ्लेक्सिबल तरीके से काम करना चुनें, तब भी कामकाजी औरतों का तनाव दूर नहीं  होता. अध्ययन में यह तमाम सबूतों के साथ कहा गया है.

स्कॉटलैंड में रहने वाली फ्रीलांस पत्रकार चित्रा रामास्वामी ने 'द गार्जियन' अखबार में एक कॉलम में अपनी आपबीती सुनाई है. उनके दो बच्चे हैं. पार्टटाइम काम करते हुए वह बच्चों का लालन-पालन करती हैं. यह उनकी खुद की मर्जी है कि वह कम पैसे कमाएं- बच्चों की परवरिश में ज्यादा समय बिताएं. उनके पार्टनर काम के फ्लेक्सिबल घंटों वाली दो नौकरियां करते हैं. जिंदगी खुशहाल है. वह खुद को खुशकिस्मत मानती हैं कि सब कुछ दुरुस्त है, लेकिन वह फिर भी कभी-कभी तनाव में आ ही जाती हैं.

जब कमरे के बाहर बच्चे दरवाजा खटखटाते हैं और वह अपने आर्टिकल की आखिरी लाइन खत्म करते हुए चिल्लाकर कहती हैं- हो गया, बस हो गया.

कामकाजी महिलाओं को तनावमुक्त करने के लिए नामचीन पुरुष उन्हें सलाम करते हैं. वे कैसे काम और घर-परिवार के बीच तालमेल बैठाती हैं, इस बात पर तालियां बजाते हैं. पर इस तनाव को कम कैसे किया जाए- यह बताने वाला कोई नहीं. क्या काम किया ही न जाए? क्या औरतें इस विकल्प के लिए हांमी भरेंगी? या पूंजीवादी बाजार इस बात का सुझाव देना चाहेगा? कतई नहीं. चूंकि काम न करना, दूसरी तरह का तनाव देता है.

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खुदकुशी के मामलों में शहरी गृहणियां अव्वल

2014 में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों में कहा गया था कि देश में हर साल आत्महत्या करने वालों में सबसे ज्यादा संख्या शहरी गृहिणियों की है. अगर किसान आत्महत्याओं से इसकी तुलना की जाए तो यह एक और तीन का अंतर है. यानी अगर गांवों में एक किसान आत्महत्या करता है तो शहरों में तीन गृहिणियां आत्महत्या करती हैं.

इसीलिए कामकाजी औरतों के ज्यादा तनावग्रस्त रहने का शोध कभी-कभी स्कैंडल भी लगता है. चूंकि ज्यादा तनाव तब पैदा होता है, जब औरतें घर में बैठकर घर का काम जैसा अनपेड वर्क करती हैं और घर वाले उससे पूछते हैं- तुम सारा दिन करती ही क्या हो. या फिर तब, जब घर के बाहर दफ्तर में उन्हें पुरुषों के बराबर अवसर और सफलता नहीं मिलती.

पुरुषों और महिलाओं में गैर बराबरी

सबसे जटिल फेमिनिस्ट प्रश्न का यह सबसे सरल उत्तर है- औरतों को ज्यादा से ज्यादा विकल्प मिलने चाहिए. कामकाजी महिलाओं के तनाव का सबसे बड़ा कारण संरचनात्मक असमानता है. घरों में और दफ्तरों में भी. जैसा कि ओईसीडी के डेटा कहते हैं कि भारत में रोजना औरतों के हिस्से लगभग छह घंटे का घर का काम आता है. यह अनपेड वर्क, उनके पेड वर्क के साथ होता है. जबकि आदमी उनके मुकाबले रोजाना एक घंटे से भी कम अनपेड वर्क करते है. यह गैर बराबरी दफ्तरों में भी कायम रहती है. एक से काम के लिए अलग-अलग मेहनताना मिलता है.

वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम की सालाना ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट में कहा गया है कि औरतों को मर्दों की बराबरी में लाने में अभी 217 साल लगेंगे. भारत में मॉन्स्टर सैलरी इंडेक्स (एमएसआई) में पिछले साल कहा गया था कि औरतों की कमाई आदमियों से औसतन 25% कम है.

जब यह सब बराबरी पर आएगा, तनाव अपने आप कम हो जाएगा. तब तक मशहूर लोगों को औरतों को सैल्यूट करने की बजाय अपने आस-पास उन्हें बराबरी पर लाने के बारे में सोचना चाहिए. अगर व्यवसाय जगत के अगुवा अपने दफ्तरों से इसकी शुरुआत करेंगे तो नई इबारत लिखी जा सकेगी. वरना जुबानी जमा-खर्च का कोई फायदा नहीं होने वाला.

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