मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019 सुशांत केस की कवरेज, श्रीदेवी और दिव्या भारती के समय से कितनी अलग

सुशांत केस की कवरेज, श्रीदेवी और दिव्या भारती के समय से कितनी अलग

क्या पहले भी ऐसी सनसनी बेची जाती थी

खालिद मोहम्मद
नजरिया
Updated:
(फोटो: Pinterest / Twitter)
i
null
(फोटो: Pinterest / Twitter)

advertisement

  • रिपोर्टर एक घर में दस्तक देता है और सिर्फ शॉर्ट्स में मौजूद शख्स से बार-बार पूछता है कि सुशांत सिंह राजपूत मामले में ड्रग पेडलिंग के आरोपों पर उनका क्या कहना है.
  • ‘मुख्य संदिग्ध’ रिया चक्रवर्ती के घर के बाहर मीडिया के रिपोर्टर्स और पापारात्सी ने फूड डिलीवरी को रोका.
  • प्राइम टाइम पर ज्यादातर, रिपब्लिक टीवी के अर्णब गोस्वामी चिल्ला-चिल्लाकर आरोपियों पर आग बरसा रहे हैं. चैनल की टीआरपी आसमान छू रही है.
  • कंगना रनौत फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े मसलों, नेपोटिज्म वगैरह पर धारा प्रवाह बोल रही हैं और उनको सुशांत सिंह राजपूत की मौत से जुड़ा हुआ बता रही हैं.
  • रिया चक्रवर्ती ने इंडिया टुडे के राजदीप सरदेसाई और दूसरे एंकर्स से लंबी बातचीत में खुद का बचाव किया.
  • अमेरिका में एक बिलबोर्ड में दावा किया गया कि सीबीआई जांच इस मामले में एक तरह की जीत है. इसके बाद बिलबोर्ड जिस कंपनी का था, उसने उसे हटा दिया. अभी तक कोई दोषी साबित नहीं हो पाया.
  • वॉट्सऐप मैसेज लगातार बिना सोचे समझे फैसला सुनाए जा रहे हैं.
  • यहां सब राजनीतिक है- केंद्र और महाराष्ट्र के बीच खींचतान, अनुमान लगाए जा रहे हैं कि यह सब आगामी बिहार विधानसभा चुनावों के लिए हो रहा है.
  • दो फिल्मों का ऐलान हो चुका है, एक का नाम मर्डर ऑर सुसाइड है. सुशांत के पिता ने किसी फिल्म या किताब की इजाजत नहीं दी है. लेकिन डिस्क्लेमर के साथ अनुमान या कल्पना के आधार पर कहानियां बुनी जा सकती हैं, है ना?
  • करीबी दोस्त और परिचित बिना नागा किए हर शाम को फोन करके पूछते हैं, क्या अपडेट है?
  • रिया चक्रवर्ती के हैरेसमेंट पर कुछ ऐक्टर्स ने दुख जताया है, उनमें सबसे प्रसिद्ध विद्या बालन और तापसी पन्नू हैं.
  • पत्रकारिता मर चुकी है- ऐसा सैकड़ों लोगों ने कहा है. फिर भी हर छोटी से छोटी बात पर नजर रखी जा रही है.
ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

स्विच ऑफ कर दीजिए- इस पुरानी पीढ़ी के पत्रकार का सुझाव है. घर पर रहिए और सीबीआई, पुलिस को जांच करने दीजिए. कानून और निष्पक्ष न्याय की प्रक्रिया पर भरोसा कीजिए.

यूं तो मीडिया ट्रायल हर दौर की सच्चाई रहे हैं. फिर भी यह पूछा जाना चाहिए कि क्या डिजिटल और प्रिंट मीडिया में ताकतवर पदों पर बैठे लोगों को फैसला सुनाने का हक है या संदेह से भरे साजिश वाले किस्से गढ़ने का अधिकार है?

क्या पहले भी ऐसी सनसनी बेची जाती थी

मुझसे पूछा जाता है, पुराने दौर में आप और आपके साथी सनसनीखेज आत्महत्याओं, हत्याओं और रहस्यमयी मौतों पर कैसे रिपोर्टिंग करते थे? ईमानदारी से कहूं तो तब भी नैतिकता के कोई निर्धारित सिद्धांत नहीं थे. कुछ ही समाचार संपादक इस बात का आग्रह करते थे कि उपसंपादकों को खबरों में कथित, कथित तौर पर और संदिग्ध जैसे शब्द लिखने चाहिए.

तब भी मसालेदार मैगजीन्स और टैबलॉयड्स में ऐसी चीखती-चिल्लाती हेडलाइन्स लगाई जाती थीं कि कोई भी परेशान और हैरान रह जाए. यह किसी से छिपा नहीं है कि ब्लिट्ज के रूसी करंजिया ने कमांडर केएम नानावटी के मामले में ज्यूरी के फैसले को किस तरह प्रभावित किया था. 1959 में नानावटी पर अपनी पत्नी के प्रेमी प्रेम आहूजा की हत्या का आरोप था. नानावटी को माफी देने के बाद ज्यूरी सिस्टम भी धीरे-धीरे खत्म हो गया.

नानावटी केस में ब्लिट्ज की हेडलाइन(फोटो: ट्विटर)

मगर यह और पहले का दौर था. मेरे दौर में अक्टूबर 1999 में रेखा को ‘विच हंट’ किया गया था, जब उनके पति मुकेश अग्रवाल ने 'उनके दुपट्टे' की मदद से फांसी लगाई थी. क्या वह सचमुच रेखा का दुपट्टा था? यह कोई साबित नहीं कर पाया. सिने ब्लिट्स की होर्डिंग चीख-चीखकर कह रही थी कि मुकेश के सुसाइड की वजह यह थी कि उन्होंने अपनी बीवी और सेक्रेटरी फरजाना खान के बीच ‘अपवित्र रिश्ता’ खोज निकाला था. इसके बाद शेषनाग फिल्म के पोस्टर पर रेखा के चेहरे पर कालिख पोत दी गई थी.

इन आरोपों पर रेखा चुप रहीं. मैंने उनसे टाइम्स ऑफ इंडिया (टीओआई) के लिए एक इंटरव्यू देने का अनुरोध किया जिसे उन्होंने विनम्रता से ठुकरा दिया. चूंकि टीओआई का सर्कुलेशन और प्रभाव जबरदस्त था, उन्होंने उसके एक भरोसेमंद पत्रकार से बात करने का विकल्प चुना. ‘मैंने मुकेश को नहीं मारा’, उन्होंने कहा. इस बीच यह खबर भी आई कि मुकेश क्रॉनिक डिप्रेशन के लिए किसी साइको-एनालिस्ट से अपना इलाज करा रहे थे.

यह कहा गया था कि रेखा को बॉलीवुड में कभी स्वीकार नहीं किया जाएगा. उनके साथियों में सिर्फ शशि कपूर ने उन्हें एक चिट्ठी भेजी थी जिसमें दुख जताया गया था.
मुकेश अग्रवाल के साथ रेखा(फोटो: ट्विटर)

मीडिया का हो-हल्ला अपने आप शांत हो गया. हालांकि मुकेश अग्रवाल के परिवार ने तमाम आरोप लगाए (बेशक, ऐसा कहा जाना जरूरी है), फिर भी मुकेश की मौत को सुसाइड ही माना गया. रेखा ने अपना करियर शुरू कर दिया, वह मैगजीन्स के कवर पेज की शोभा बढ़ाती रहीं, मरहम लगाने वाले इंटरव्यू छापे गए. मैंने भी टीओआई और फिर फिल्मफेयर के लिए उनका इंटरव्यू लिया. प्रेस को अपना सर्कुलेशन बढ़ाने के लिए रेखा की जरूरत थी और रेखा को प्रेस की जरूरत थी ताकि उनके इर्द गिर्द रहस्य की चादर तनी रहे.

बेशक, आज के दौर में रेखा और मुकेश अग्रवाल का मामला इतनी आसानी से शांत नहीं होता. ट्विटर ट्रोल्स, वॉट्सएप मीम्स, न्यूज चैनल और पापारात्सियों की खोजी निगाहें इस किस्से को उछालती रहतीं. यह कहना गलत न होगा कि टीआरपी बटोरने और हिट्स पाने के फेर में पत्रकारिता पागलपन की हद तक आक्रमक हो चुकी है- बेचैन सी छटपटा रही है.

क्या यह सचमुच पत्रकारों के अस्तित्व की लड़ाई है?

एक अखबार के सीनियर रिपोर्टर ने बताया था कि अगर वह ऑनलाइन संस्करण के लिए एक दो स्टोरी नहीं देता तो उसकी नौकरी पर दांव पर लग जाती. सुशांत सिंह राजपूत पर अगर नया एंगल नहीं मिलता, या अपडेट्स को पुराने मसाले के साथ नया बनाकर नहीं परोसा जाता तो COVID-19 के दौर में रिपोर्टर छंटनी का शिकार हो सकता है. अगर प्रतिस्पर्धी चैनल रिया चक्रवर्ती का पहले इंटरव्यू नहीं कर पाता तो ऊपर बैठे लोगों की नौकरी खतरे में होती है.

आजकल कॉन्ट्रैक्ट्स पत्रकारों के लिए एक कमजोर कड़ी हैं. मजबूत ट्रेड यूनियन्स जो उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ा करती हैं, बीते दौर की बात हो गई है. अगर वे उतावले होकर खबरें गढ़ते हैं तो इसकी भी वजह है, यह उनके अस्तित्व की लड़ाई का हिस्सा है. फिर भी उनकी मजबूरी उन्हें इस बात की छूट नहीं देती कि वे लोगों के घरों में घुस जाएं या रिया चक्रवर्ती को परेशान करें, उनका पीछा करें. न ही यहां रिया को किसी किस्म की माफी देने की बात कही जा रही है. यह सिर्फ एक शिकायत है. हमें बस अपनी नैतिकता को बरकरार रखना है जोकि डगमगा रही है- चूंकि पत्रकारिता की यही कसौटी है.

सेलिब्रिटी मौतों के बाद इतना बावलापन कभी नहीं दिखा

जब अप्रैल 1993 में सिर्फ 19 साल की उम्र में दिव्या भारती की ‘आकस्मिक मौत’ हुई थी तब भी प्रेस ने इस खबर को खूब छापा था. कयासबाजी हुई थी, लेकिन क्या उनके पति निर्माता साजिद नाडियाडवाला पर आरोप लगे थे? बेशक हां, लेकिन शायद ‘डेविल हंट’ की हद तक नहीं.

साजिद नाडियावाला और दिव्या भारती(फोटो: Pinterest)

इससे पहले मसाला फिल्मों के जादूगर मनमोहन देसाई की मौत बालकनी से गिरने के कारण हुई थी. यह फरवरी 1994 की बात है. कहते हैं कि वह जबरदस्त पीठ दर्द के शिकार थे. पर मुर्दाघर में किसी ने पैड और पेंसिल के साथ उनके बेटे केतन से जिरह नहीं की.

प्रिया राजवंश की हत्या (मार्च, 2020) को तो किसी ने पूरी तरह से कवर भी नहीं किया था. जिया खान ने 25 साल की उम्र में सुसाइड किया लेकिन कोई कोहराम नहीं मचा था. सीधी खबरें बनीं. उनकी मां राबिया खान ने जिस तरह सूरज पंचोली को कटघरे में खड़ा किया, उन आरोपों पर कोई बावलापन पैदा नहीं हुआ था.

हम कह सकते हैं कि इतनी अराजकता कभी नहीं थी. जरा परवीन बॉबी की मौत को भी याद कर लीजिए (जनवरी 2005). वह जुहू स्थित अपने अपार्टमेंट में तीन दिनों तक मृत पड़ी रहीं. उनकी श्रद्धांजलि भी औपचारिकता वश लिखी गई- चलताऊ अंदाज में. उनकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी.

श्रीदेवी की मौत दुबई के होटल के बाथ टब में डूबने से हुई थी (फरवरी 2018). इसके बाद भी विचित्र खबरें आई थीं. एक रिपोर्टर तो बाथ टब में लगभग कूद ही गया था. मौत में साजिश की बू महसूस की गई थी. पर मुंबई में श्रीदेवी के दाह संस्कार के बाद अफवाहों को विराम लग गया था.

श्रीदेवी की मौत के मामले में एक न्यूज चैनल की रिपोर्टिंग(फोटो: ट्विटर)

धीरज रखें और सिर्फ तथ्यों के आधार पर रिपोर्टिंग करें

इन किस्सों की तुलना सिर्फ यह बताने के लिए की जा रही है कि पुरानी पीढ़ी के पत्रकार ऐसे मामलों में अपेक्षाकृत शांत रहते थे. वे अक्सर जांच एजेंसियों के तथ्यों पर ही भरोसा करते थे.

पत्रकारिता का स्तर आज लगातार गिर रहा है, यहां तक कि वापसी की कोई गुंजाइश नहीं रह गई है. पुराने पत्रकार फेसबुक पोस्ट्स और ऑनलाइन आर्टिकल्स से रोजाना सुशांत सिंह राजपूत मामले में मनगढ़ंत आरोपों की निंदा कर रहे हैं. खबर कभी किसी का एजेंडा नहीं हो सकती. सिर्फ तथ्यों के आधार पर रिपोर्टिंग करें, और किसी भी टिप्पणी से किसी ओर इशारा न करें. लेकिन वह दौर अब जा चुका है. अब तो अबनॉर्मल जर्नलिज्म ही न्यू नॉर्मल हो गया है.

(लेखक फिल्म क्रिटिक, फिल्ममेकर, थियेटर डायरेक्टर हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 06 Sep 2020,05:30 PM IST

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT