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साधु-संन्यासियों के बारे में मैंने बचपन में एक कहानी सुनी थी. मैं वह कहानी आपको बताता हूं. एक साधु थे. हिमालय गए. वहां पर उन्होंने कड़ी तपस्या की. कड़ी तपस्या करने के बाद उनको यह सिद्धि प्राप्त हुई कि वे पानी के ऊपर पैदल चलने लगेंगे. इस सिद्धि को प्राप्त करने के बाद वे बहुत खुश हुए और हिमालय से चलकर एक गांव में आए.
गांव में एक मंदिर था. मंदिर में एक साधु रहते थे. साधु वहां ग्रामवासियों को अच्छी-अच्छी बातें बतलाया करते थे और उनके बच्चों को पढ़ाते भी थे. सिद्धि प्राप्त हो करके घमंड में चूर हिमालय से आए हुए साधु ने कहा कि ये साधु कुछ नहीं जानता है. इसको कोई सिद्धि प्राप्त नहीं हुई है. मैंने कड़ी तपस्या प्राप्त करके सिद्धि प्राप्त की है. आओ, आओ. नदी तट पर चलो, मैं आप लोगों को दिखलाऊंगा कि सिद्धि होती क्या है?
सभी गांववासी नदी तट पर जमा हुए. मंदिर में रहने वाले साधु भी गए. हिमालय से आने वाले साधु ने नदी पर पैदल चलकर दिखला दिया. गांव के कुछ लोग आश्चर्यचकित थे. कुछ जादू समझ रहे थे. गांव में रहने वाले साधु ने कहा, ‘यह लीजिए आपकी सिद्धि का मूल्य, दो आना. संन्यासी ने कहा यह क्या है? साधु बोले जो काम आपने किया वह काम तो नाव चलाने वाला करता है और यहां पर इसका मूल्य दो आना है’. कहानी का सार आप समझ गए होंगे. साधु किसके लिए बनना है, खुद के लिए बनना है कि समाज के लिए.
जब आप विद्यार्थी जीवन के बाद समाज में निकलते हैं तो ढेरों कटु अनुभव होते हैं. स्वामी विवेकानन्द को भी हुए. इनके पहले शिष्य हाथरस के रेलवे स्टेशन के अधिकारी शरतचंद गुप्त बने. गाजीपुर के पवहारी बाबा से मिलने के बाद उनके मन का द्वंद्व जाता रहा. अब लक्ष्य सामने था. भारत और संसार का आध्यात्मिक जागरण. अब वे लगातार यात्राएं कर रहे थे. आध्यात्मिक किताबों की पढ़ाई भी जारी थी. राजा महराजा से मिले, महापुरुष तिलक से भी मिले.
महासागर की उस चट्टान पर भी गए, जिसे हम लोग आज विवेकानन्द शिला के नाम से जानते हैं. भारत की गरीबी को देखकर बहुत दुखी हुए. इन्होंने तय किया कि विदेशों से सहायता प्राप्त करेंगे. इनका अपना तेज था, जो एक बार मिलता, प्रभावित हो जाता. खेतड़ी के राजा अजीत सिंह ने इनकी विदेश यात्रा का प्रबंध किया . इनसे नाम बदलने का आग्रह भी किया . इस प्रकार नरेंद्र नाथ स्वामी विवेकानन्द होकर 31 मई 1893 को इन्होंने अमेरिका की यात्रा प्रारम्भ की.
विवेकानंद चीन, जापान, कनाडा होते हुए जुलाई में अमेरिका पहुंचे. इनका आई कार्ड खो गया. बिना आई कार्ड के सितम्बर में होने वाली शिकागो में प्रस्तावित विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लेना सम्भव नहीं था. रेल डिब्बे में रात बितानी पड़ी. जॉर्ज डब्ल्यू हेल नाम की महिला ने इनकी मदद की. आज ही के दिन यानी 11 सितम्बर 1893 ई. को इन्होंने अपना भाषण दिया. पहले भाषण से ही इन्होने प्रसिद्धि प्राप्त कर ली. एक तो वह प्रसिद्ध सम्बोधन है, जिसे आप जानते हैं. बहनो और भाइयो वाला. ऐसा भी सम्बोधन हो सकता है, यह वहां के लोगों के लिए नया था.
आजकल सहिष्णु और असहिष्णु का हंगामा बहुत चलन में है. पहली चीज तो ये समझिये कि सहिष्णु होने या अपने को सिद्ध करने की जरूरत किसको है. मान लीजिये रेल के डिब्बे में दो लोग एक दूसरे के बगल बैठे हैं. दोनों की कुहनियां एक दूसरे से लड़ रही हैं. उनमें से कोई एक कहे कि देखिये, देखिये आप मुझसे कुहनी लड़ा रहे हैं. फिर भी मैं कुछ नहीं बोल रहा हूं. मैं कुछ बोल नहीं रहा हूं क्योंकि मैं सहिष्णु हूं. भारत के सन्दर्भ में ऐसा नहीं है. यहां तो शक, कुषाण, हूण आए और जज्ब हो गए. जब आप भारतीय समाज की आलोचना वाले हिस्से में जाएंगे तो रोटी बेटी सम्बन्ध वाला जातिगत बंद समाज दिखलाई पड़ता है. स्वामी विवेकानन्द ने भारतीय समाज के दोनों पक्षों पर विचार किया. विचार ही नहीं बल्कि काम भी किया. इन्होंने विदेशों की वैज्ञानिकता को सराहा और यहां की कमजोरियों को उजागर किया.
उस समय देश गुलाम था. इन्होंने कहा, ‘ राष्ट्र देव ही तुम्हारे एक मात्र आराध्य हो’. राष्ट्र को ही देवता मान लेने का आग्रह कोई संन्यासी करे, यही भारतीय संस्कृति और यहां के धर्म की खूबसूरती है. बहुदेववाद और मूर्तिपूजा का समर्थन करने वाले स्वामी विवेकानन्द मानते थे कि ईश्वर की अनुभूति प्रतीकों के रूप में की जा सकती हैं. हम भारतीयों के पिछड़ने का कारण खोजते हुए एक पत्र में वे लिखते हैं, ‘शिक्षा! शिक्षा ! शिक्षा ! यूरोप के बहुतेरे नगरों में घूमकर और वहां के गरीबों को भी अमन–चैन और विद्या को देखकर हमारे गरीबों की बात याद आती थी और मैं आंसू बहता था. यह अंतर क्यों हुआ ? जवाब पाया शिक्षा !’
यह जानना ही रोमांचकारी हो जाता है कि जब हम गुलाम थे, तब अपने देश के एक संन्यासी ने आज ही के दिन 129 साल पहले विश्व के तमाम धर्मों, सम्प्रदायों के प्रतिनिधियों के समक्ष भारतीय संस्कृति के बारे में गौरवगाथा सुना कर दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा.
नीचे, शिकागो में स्वामी विवेकानन्द द्वारा दिया गया वह प्रथम ऐतिहासिक भाषण है, जिसने शेष विश्व को भारत और हिन्दू धर्म के प्रति आकर्षित किया.
आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया है, उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा है. संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन परंपरा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूं. धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूं. और सभी संप्रदायों और मत के कोटि-कोटि हिंदुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूं.
मैं इस मंच पर से बोलने वाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूं, जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया है कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रसारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं. मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूं, जिसने संसार को सहिष्णुता और सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा दी है. हम लोग सब धर्मों के प्रति सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन समस्त धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं.
मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ित और शरणार्थियों को आश्रय दिया है. मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता है कि हमने अपने वक्ष में यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट अंश को स्थान दिया था, जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी, जिस वर्ष उनका पवित्र मंदिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था. ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूं, जिसने महान जरथुष्ट्र जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा है. भाइयों, मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियां सुनाता हूं जिसकी आवृत्ति मैं अपने बचपन से कर रहा हूं और प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं.
‘रुचिनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव.'
जैसे विभिन्न नदियां भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न-भिन्न रूचि के अनुसार टेढ़े मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जाने वाले लोग अंत में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं.
यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा है.
'ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः'
जो कोई मेरी ओर आता है-चाहे किसी प्रकार से हो-मैं उसको प्राप्त होता हूं. लोग भिन्न-भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अंत में मेरी ही ओर आते हैं.
सांप्रदायिकता हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मांधता इस सुंदर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं. वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही है, उसको बारंबार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं. सभ्यताओं को भी ध्वस्त करती और पूरे-पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं. यदि ये वीभत्स दानवी न होतीं तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता. पर अब उनका समय आ गया है, और मैं आंतरिक रूप से आशा करता हूं कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घंटाध्वनि हुई है वह समस्त धर्मांधता का तलवार या लेखनी के द्वारा होने वाले सभी उत्पीड़नों का, और एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले मानवों की पारस्परिक कटुताओं का मृत्युनिनाद सिद्ध हो.’
(लेखक प्रीतेश रंजन ‘राजुल’ पिछले 14 वर्षों से जवाहर नवोदय विद्यालय में हिन्दी के शिक्षक हैं. पढ़ाने के अलावा उनकी रंगमंच में गहरी रूचि है और वे कविता-व्यंग्य लेखन करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है)
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