बलिया शहर से लगभग 5 किलोमीटर की दूरी पर कार्तिक पूर्णिमा के दिन एक मेला लगता है जो ‘ददरी का मेला’ नाम से प्रसिद्ध है. बताया जाता है कि भृगु ऋषि के शिष्य का नाम दर्दर था. दर्दर ने ही अपने गुरु की याद में एक मेले का आयोजन किया. जिसमें तमाम ऋषियों ने भाग लिया. उन्हीं शिष्य के नाम पर इस मेले का नाम ददरी का मेला पड़ा. इस मेले का वर्णन प्रसिद्ध चीनी यात्री फाह्यान ने भी किया है. मेले के बारे में कहा जाता है कि यह भारत का दूसरा सबसे बड़ा मवेशी मेला है. मेले में सांस्कृतिक कार्यक्रम होने की परंपरा बहुत पुरानी है.
साल 1884 में इसी मेले में आयोजकों ने बनारस के नामी-गिरामी साहित्यकार को भाषण देने के लिए बुलाया. उस साहित्यकार ने अपने भाषण में कहा-
‘इस महामंत्र का जाप करो जो हिंदुस्तान में रहे, चाहे किसी रंग, किसी जात का क्यों न हो, वह हिंदू है, हिंदू की सहायता करो, बंगाली, मराठा, पंजाबी, मद्रासी, वैदिक, जैन ,ब्रह्मों, मुसलमान सब एक हाथ एक पकड़ो.’
हिंदू और हिंदुस्तान की ऐसी व्याख्या करने वाले साहित्यकार का नाम था भारतेंदु हरिश्चंद्र (Bhartendu Harishchandra) और उस प्रसिद्ध भाषण का शीर्षक था ‘भारतवर्ष उन्नति कैसे हो सकती है’.
मेरा लेखकीय आग्रह है कि इस भाषण का पाठ होना चाहिए. इसमें भारतेंदु ने कलेक्टर साहब की मौजूदगी में ही उनको संबोधित करते हुए जहां एक ओर ब्रिटिश शासन की निरंकुशता पर व्यंग्य किया है वहीं दूसरी ओर उन्होंने हम भारतीयों के आलस्य, समय कुप्रबंधन, रूढ़ियों, जनसंख्या-वृद्धि और गलत जीवन शैली की आलोचना करते हुए अंग्रेजों से सीखने को कहा है.
भारतेंदु हरिश्चंद्र को हिंदी साहित्य में आधुनिकता का प्रवर्तक साहित्यकार माना जाता है. भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म आज ही के दिन 9 सितंबर को 1850 में बनारस में हुआ था. इनके पूर्वज सेठ अमीचंद थे. ये वही सेठ अमीचंद है जिनका वर्णन प्लासी के युद्ध में मिलता है.
नवाब सिराजुद्दौला के दरबार में रहने वाले सेठ अमीचंद ने अंग्रेजों की सहायता की थी. अंग्रेजों ने इनके साथ विश्वासघात किया. परिणाम रहा कि सेठ अमीचंद पागल हो गए. इनके लड़के बनारस चले गए. सेठ अमीचंद के प्रपौत्र गोपाल चंद के बड़े पुत्र भारतेंदु हरिश्चंद्र थे.
5 वर्ष की उम्र में माता को और 10 वर्ष की उम्र में पिता को खोने वाले भारतेंदु हरिश्चंद्र का पालन पोषण एक दाई और एक नौकर ने किया था. बचपन में इनका मन स्कूली पढ़ाई लिखाई में नहीं लगा. हालांकि उन्होंने कुछ समय तक बनारस के प्रसिद्ध क्वींस कॉलेज में पढ़ाई की थी. इनके पिता गोपाल दास भी कविता लिखते थे. ऐसा माना जाता है कि भारतेंदु हरिश्चंद्र 5 वर्ष की उम्र में पिता की रची एक पंक्ति ‘लै ब्यौढ़ा काढ़े भरे श्री अनिरुद्ध सुजान’ की दूसरी पंक्ति ‘वाड़ासुर की सैन्य को हनन लगे भगवान’ तुरंत बना दिया था.
केवल साढ़े चौतीस वर्ष तक जीवित रहने वाले भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिंदी साहित्य की बहुत बड़ी सेवा की है. इनकी कुल 238 रचनाएं बताई जाती हैं. भारतेंदु ने सभी विधाओं को समृद्ध किया. हिंदी में अनेक विधाओं को लाने का श्रेय भारतेंदु को ही जाता है. यह वह जमाना था जब हिंदी का वर्तमान स्वरूप विकसित नहीं हुआ था. जो जहां थे वहीं की बोली और पुट लिए लिख रहे थे. भारतेंदु ने सबको उत्साहित किया और 1873 में घोषणा किया कि ‘हिंदी नई चाल में ढली.’
हिंदी के प्रति उनका प्रेम इन पंक्तियों से समझा जा सकता है, जिसकी एक पंक्ति रेलवे स्टेशनों की दीवारों पर आज भी लिखी मिल जाती है-
‘निज भाषा उन्नति अहै,सब उन्नति को मूल.
बिन निज भाषा के ज्ञान के मिटत न हिय के शूल.’
प्रसिद्ध आलोचक रामस्वरूप चतुर्वेदी जी लिखते हैं कि दो संस्कृतियों की टकराहट से उत्पन्न रचनात्मक ऊर्जा ‘पुनर्जागरण’ है.
यूरोपीय वैज्ञानिकता और भारतीय आध्यात्मिकता दोनों के मिलने से हमारा समाज काफी प्रभावित हुआ. हिंदी में पुनर्जागरण लाने का श्रेय भारतेंदु हरिश्चंद्र को है. 13 वर्ष की अवस्था में इनका विवाह हुआ था. 15 वर्ष के जब यह हुए तो घर की औरतों ने इन पर दबाव डाला कि ये परिवार के साथ जगन्नाथ यात्रा पर जाएं. जगन्नाथ यात्रा के कारण इनकी पढ़ाई-लिखाई बाधित हुई. परंतु बंगाल ओडिशा की यात्रा अनुभव ने इन पर काफी प्रभाव डाला.
गौरतलब है कि बंगाल में पुनर्जागरण पहले आया था. महान समाज सुधारक ईश्वर चन्द्र विद्यासागर से ये काफी प्रभावित थे और सम्पर्क में थे.
17 वर्ष की अवस्था में इन्होंने कविवचनसुधा नामक पत्रिका का संपादन किया. हिंदी साहित्य जगत में कविवचनसुधा का संपादन आप एक क्रांतिकारी घटना मान सकते हैं. स्वदेशी वस्तुओं के व्यवहार का प्रतिज्ञा पत्र 23 मार्च 1874 को भारतेंदु हरिश्चंद्र कवि वचन सुधा में प्रकाशित किया था. ‘पै धन विदेश चलि जात इहै अति ख्वारी’ की चिंता शोषण की चिंता है. इस संदर्भ में रामविलास शर्मा लिखते हैं कि यह प्रतिज्ञापत्र भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाने योग्य है. अंग्रेजों की कुदृष्टि कविवचनसुधा पर पड़ी. परिणाम रहा कि काशी के मजिस्ट्रेट ने सरकारी विद्यालयों और संस्थानों के लिए कविवचनसुधा खरीदना बंद करा दिया. फिर भी इस पत्रिका का संपादन 1885 तक होता रहा.
आजादी, देश प्रेम, स्त्री शिक्षा, अंधविश्वास, हिंदी भाषा सब पर भारतेंदु ने अपने विचार प्रकट किए. आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार उन्होंने हिंदी साहित्य को एक नए मार्ग पर खड़ा किया, वह साहित्य के नए युग के प्रवर्तक हुए. यद्यपि देश में नए-नए विचारों और भावनाओं का संचार हो गया था पर हिंदी उनसे दूर थी. लोगों की अभिरुचि बदल चली थी पर हमारे साहित्य पर उसका कोई प्रभाव दिखाई नहीं पड़ता था.’
भारतेंदु ने स्त्री शिक्षा के लिए ‘बालाबोधिनी पत्रिका’ निकाली. नाटक लिखे, नाटकों में अभिनय किया. दूसरी भाषाओं के नाटकों को रूपांतरित किया. भारत दुर्दशा, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, चन्द्रावली, प्रेमजोगिनी, नील देवी, विषस्यविषमौषधम आदि इनके मौलिक नाटक हैं.
अंधेर नगरी लोककथा का पुनर्सृजन है. यह नाटक सबसे ज्यादा खेला जाने वाला नाटक है. बाजार सजा है, चूरन वाला अपना चूरन बेच रहा है–
‘चूरन अमले सब जो खावै
दूनी रिश्वत तुरत पचावै
चूरन साहब लोग जो खाता
सारा हिंद हजम कर जाता है
चूरन पुलिस वाले खाते सब
कानून हजम कर जाते’
यह भारतेंदु का साहस है. यह लिखने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि वर्तमान समय में अनुच्छेद 19 होने के बावजूद इसी साहस की कमी पत्रकारों ,लेखकों में हो रही है. बाजार में डर के आगे जीत मार्का शीतल पेयों के मिलने और बिकने के बावजूद हम डर रहे हैं.
भारतेंदु के व्यक्तिगत जीवन की बात करें तो इत्र लगाने और केवड़ा फ्लेवर पान खाने के बड़े शौकीन थे. जरूरतमंदों की आर्थिक सहायता करने में खुद अभाव में पहुंच गए. इनकी फिजूलखर्ची के कारण उपजा भाई से आर्थिक मामलों का विवाद काशी के राजा के पास पहुंचा. इन्होंने कहा, ‘हुजूर इस धन ने मेरे पूर्वजों को खाया है अब मैं इसे खाऊंगा.’ बनारस में इनकी कहानियां ठठेरी बाजार से लेकर मणि कर्णिका घाट तक रस ले लेकर सुनी और सुनाई जाती हैं. लावनी गाने वालों के साथ भी बैठने में कोई संकोच न था. हंसी मजाक करने वाले भारतेंदु अभिमानी भी थे. अपने बारे में वे स्वयं लिखते हैं –
‘सीधे सो सीधे, महा बांके हम बांकेन सो
हरीचंद नगद दमाद अभिमानी के.’
इनके इर्द गिर्द साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों का जमावड़ा लगा रहता था. भरतेंदु सर्वप्रिय थे. इनके प्रभाव से लेखकों का अच्छा खासा ग्रुप तैयार हो गया था, जो हिंदी साहित्य के लिए काम करता था और जिसे भारतेंदु मंडल के नाम से जाना जाता है.
बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ बालकृष्ण भट्ट, कासही नाथ खत्री, प्रताप नारायण मिश्र, गोस्वामी राधाचरण, केशव राय भट्ट आदि उस मंडल के प्रसिद्ध नाम हैं. हिंदी में गजलों की बात करें तो प्रसिद्ध नाम दुष्यंत कुमार का आता है. यह जानना दिलचस्प है कि ‘रसा’ नाम से इन्होंने गजलें भी लिखी हैं-
‘उठा करके घर से कौन चले यार के घर तक
मौत अच्छी है पर दिल का लगाना नहीं अच्छा.’
खुसरों की मुकरियों की तरह भारतेंदु ने भी मुकरियां लिखकर अंग्रेजों पर व्यंग्य प्रहार किया.
‘भीतर भीतर सब रस चूसै
हंसि हंसि के तन मन धन मूसै
जाहिर बातन मैं अति तेज
क्यों सखि साजन? नहिं अंगरेज.’
भारतेंदु एक उपाधि है जो बड़े ही हर्षोल्लास से इनके प्रशंसकों ने दी थी. रीतिकाल की बेवजह अलंकारिकता और भक्ति की आड़ में आशिकी की चाशनी में डूबी कविता को देशप्रेम सिखाने का श्रेय भारतेंदु हरिश्चन्द्र को है. इसीलिए भारतेंदु युगप्रवर्तक कहलाते हैं. बहुत ही कम उम्र में 6 जनवरी 1885 को इनकी मृत्यु हो गई. ‘प्यारे हरीचंद’ की कहानी रह गई.
‘कहेंगे सबै नैन नीर भरि भरि पाछै प्यारे
हरीचंद की कहानी रहि जाएगी .’
(लेखक प्रीतेश रंजन ‘राजुल’ पिछले 14 वर्षों से जवाहर नवोदय विद्यालय में हिन्दी के शिक्षक हैं. पढ़ाने के अलावा उनकी रंगमंच में गहरी रूचि है और वे कविता-व्यंग्य लेखन करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है)
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