advertisement
अफगानिस्तान में (Afghanistan) जब तालिबान (Taliban) के विरोध में भारी भीड़ सड़कों पर उतरी और पाकिस्तान की निंदा की, तब उसी दरमियान प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद ने नई 'कार्यवाहक सरकार' की घोषणा की. लेकिन यह अफगानिस्तान के लिए थोड़ा असामान्य रहा. क्योंकि जिस हिसाब से सरकार को तैयार किया है उसको देखकर ऐसा नहीं लगता कि यह सभी लोगों को ध्यान में रखते हुए तैयार की गई है.
तालिबानियों द्वारा तैयार की गई नई कैबिनेट में "समावेशिता" का दिखावा भी नहीं किया गया है. इसमें न तो अल्पसंख्यकों न ही महिलाओं को जगह दी गई है, लेकिन यह किसी को नहीं चौंकाता नहीं है. वहीं एक समावेशी सरकार के गठन में अमेरिका का विश्वास भी संदिग्ध है.
ऐसे में इस सरकार की संरचना को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि इसी राजनीतिक अस्थिरता लगभग तय है. लेकिन नियुक्तियों से यह भी संकेत मिलता है कि भारत के लिए दरवाजे बंद नहीं हैं, अगर वह चाहे तो मदद कर सकता है.
जिन लोगों की नियुक्ति की गई है उनके चेहरों और नामों को देखकर ऐसा लगता है कि पुराने दौर या मूल तालिबान खुद को सुरक्षित करने में कामयाब रहा है.
इस सरकार के मुखिया के तौर पर मुल्ला हसन अखुंद को चुना गया है वहीं उसके दो प्रतिनिधि के रूप में मुल्ला गनी बरादर और अब्दुस सलाम हनफी शामिल हैं. इनके अलावा कार्यवाहक विदेश मंत्री के तौर पर आमिर खान मोत्ताकी को सरकार में शामिल किया गया है.
हनाफी, मोत्ताकी और बरादर तीनों एक ही उम्र वर्ग के हैं. ये 2001 की पहली तालिबान सरकार का भी हिस्सा रहे हैं और बाद में कतर में राजनीतिक आयोग की हुई स्थापना में भी ये शामिल थे.
इसके बाद शेर मोहम्मद स्टानिकजई हैं, जिन्हें पिछली सरकार द्वारा उप विदेश मंत्री के रूप में नियुक्त किया गया था और उन्होंने दोहा में बरादर के दूसरे कमांड के रूप में कार्य किया था.
व्यापक तौर पर देखा जाए तो ये वे लोग हैं, जिन्होंने चीन सहित विदेशी सरकारों के साथ बातचीत की है और अधिकांश सरकारों द्वारा इनको स्वीकार करने की संभावना भी है. जिसमें भारत भी शमिल हो सकता है.
इनमें एक अन्य खेमा भी है, ये उन लोगों से बना है जो पिछली सरकार का हिस्सा थे और जिन्हें ग्वांतानामो खाड़ी में कैद करके रखा गया था.
इस खेमे में नूरुल्लाह नूरी शामिल है, जिसे सीमा और जनजातीय मामलों जैसा अहम मंत्रालय मिला है. यह एक महत्वपूर्ण पद है जो पहले हक्कानी के पास था. पाकिस्तान बॉर्डर की सुरक्षा को सुरक्षित करने और उनके जादरान जनजाति से मिठास बढ़ाने के नूरी को यह भूमिका दी गई है. नूरी के पास उत्तरी गठबंधन के पूर्व नेताओं को पसंद करने का कोई कारण नहीं है, क्योंकि उन्हाेंने उसे अमेरिका को सौंप दिया और आखिरकार उन्हें बंदी बना लिया गया था.
सूचना और संस्कृति विभाग का कार्यवाहक मंत्री खैरुल्ला खैरख्वा को बनाया गया है ये भी कंधारी है. इसके अलावा कंधार के ही मोहम्मद फाजिल मजलूम को उप रक्षा मंत्री का दायित्व दिया गया है, इसे पाकिस्तान सीमा पर पकड़ा गया था.
पुराने चेहरे और जेल में जा चुके लोगों के बाद तीसरा और सबसे खतरनाक समूह हक्कानी है. जिसने अमह विभागों पर कब्जा जमाया है. खूंखार आतंकी सिराजुद्दीन हक्कानी को गृह मंत्रालय जैसा अहम विभाग दिया गया है. सिराजुद्दीन के सिर पर 5 मिलियन डॉलर का ईनाम है.
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्टों के अनुसार, उसके संगठन में सबसे सक्षम और अच्छी तरह से सुसज्जित सशस्त्र लड़ाके हैं और उसका समूह क्षेत्रीय विदेशी आतंकवादी समूहों के साथ-साथ तालिबान और अल-कायदा के बीच प्रमुख संपर्क के साथ-साथ आउटरीच और सहयोग के लिए प्रमुख केंद्र के तौर पर भी कार्य करता है. ऐसे में काबुल में इनसे सावधान रहने की जरूरत है.
गृह मंत्रालय आंतरिक मंत्रालय है, जो पहले अमरुल्ला सालेह के पास था. इस विभाग में अफगान नेशनल पुलिस सहित 99,000 बलों का स्टाफ है, जो सामान्य पुलिस की तुलना में एक अर्धसैनिक बल से अधिक है. इनके पास देश के अंदर खुफिया ताकत है.
हक्कानी के सहायक पूर्व खुफिया अधिकारी और नजीबुल्लाह हक्कानी के चचेरे भाई मौलवी नूर जलाल होगा. इसे टेलिकॉम विभाग दिया गया है. खलील हक्कानी जो काबुल पर वास्तविक मुख्य सचेतक के रूप में अधिकार कर रहा है, ऐसा प्रतीत हो रहा है कि उसको शरणार्थी मंत्री के पद पर नियुक्त किया गया है. इस भूमिका में वह पाकिस्तान में शरणार्थियों की आमद को रोकने और उन्हें देश के भीतर स्थानांतरित करने के लिए जिम्मेदार होगा, जैसा कि इस्लामाबाद मांग करता है.
इनमें मुल्ला उमर का बेटा मुल्ला याकूब भी शामिल है. यह महत्वपूर्ण है कि शुरू में उसे गैर-कंधारी सिराजुद्दीन को संतुलित करने और आंदोलन को गुटों में विभाजित होने से रोकने के लिए प्रमुख प्रांतों में सैन्य अभियानों का नेतृत्व करने के लिए नियुक्त किया गया था. उसने लगभग अपना पूरा जीवन पाकिस्तानी मदरसों में बिताया है, जहां वे अपने पिता के करीबी प्रमुख अधिकारियों की मदद से प्रमुखता से उभरा.
अमेरिका के साथ पिछले साल हुए समझौते के ठीक बाद उसे मिलिट्री कमीशन का प्रमुख बनाया गया था. सैन्य आयोग के प्रमुख के रूप में उसकी नियुक्ति को सिराजुद्दीन की तुलना में उनके प्रभाव और स्थिति को बढ़ावा देने के रूप में देखा जा रहा है.
एक्सपर्ट्स का मानना है कि उसकी नियुक्ति को सउदी ने भी समर्थन दिया था, क्योंकि उसने ईरानी समर्थित इब्राहिम सदर की जगह ली थी. लेकिन यहां भी ध्यान देने वाली बात है कि याकूब को मुल्ला मोहम्मद फाजिल द्वारा सहायता प्रदान की जाएगी, जो पुराने गार्ड और दोहा समूह को शक्ति का एक नया स्रोत प्रदान करेगा.
एक स्तर पर देखें तो अफगानिस्तान में की गईं नियुक्तियां बोर्ड प्रतिस्पर्धियों को शामिल करने और गुट को एकजुट रखने की तालिबान की क्षमता को दर्शाती है. यही मुल्ला उमर ने किया था और अब ऐसा प्रतीत हो रहा कि वर्तमान अमीर, हैबतुल्लाह अखुंदज़ादा ने भी यही किया है, जबकि वह रहस्यमय तरीके से अभी भी लापता है.
लेकिन जब मुल्ला उमर ने ऐसा किया था तब तालिबान एक साझा दुश्मन से लड़ रहा था. लेकिन अब यह जीत के बाद मिले उपहार का समय है.
समूह के बीच विभाजन को देखे तो पुराने समूह के सभी लोग लड़े, शासन किया और फिर एक साथ छिप (मुख्य रूप से पाकिस्तान में) गए, वहीं हक्कानी और आईएसआई से जुड़े दोस्तों को सभी विभागों में देखा जा सकता है.
इस बीच, ईरान अपने शियाओं के लिए "समावेशीता" के लिए घोर अवहेलना से पहले से ही नाखुश है और रूस के लिए पाकिस्तान-चीन गठबंधन की जीत की शक्ति को देखने और देखने की संभावना नहीं है.
वहीं भारत के पास भाग लेने या न लेने का विकल्प है. रूस और चीन की तरह अमेरिका भी इसके प्रभाव से दूर हो गया है.
हालांकि, जब विवाद बिगड़ता है तो समर्थन और सहायता के लिए एक निष्पक्ष देश की मांग की जाएगी. दोनों ही द्विपक्षीय संबंधों में मजबूत बिंदु हैं. लेकिन समस्या यह है कि इन प्रतिद्वंद्वी खेमों के बीच नेवीगेट करना मुश्किल होगा.
दिल्ली को तब तक इंतजार करना होगा जब तक कि नए आंतरिक मंत्री को "रावलपिंडी शूरा" में अपने आकाओं से सुरक्षा का आश्वासन नहीं मिल जाता. यह सब आसान होने वाला नहीं है, उस विशेष शूरा को खतरनाक रूप से छोटे स्वभाव के लिए जाना जाता है. ऐसे में पाकिस्तान अपना रास्ता नहीं बना पाएगा.
इस स्थिति में दूसरों के लिए वास्तविक सहायता और मार्गदर्शन देने की गुंजाइश है और यह कुछ अच्छी कार्रवाई करने का समय हो सकता है.
(डॉ. तारा कर्था इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एंड कंफ्लिक्ट स्टडीज़ (आईपीसीएस) की डिस्टिंग्विश्ड फेलो हैं. वह @kartha_tara पर ट्विट करती हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)