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तेलंगाना के मुख्यमंत्री और टीआरएस नेता के.चंद्रशेखर राव ने जब समय से पहले चुनाव कराने का फैसला किया, तब उनमें जबरदस्त आत्मविश्वास दिख रहा था. वास्तव में उन्होंने विधानसभा और संसदीय चुनावों को एक साथ कराने के बीजेपी के विचार का खुलकर समर्थन किया था, लेकिन जल्द ही उन्होंने भाषा बदल ली और समय पूर्व चुनाव का माहौल बना दिया.
तार्किक तौर पर देखें तो ऐसा इसलिए था क्योंकि वो नहीं चाहते थे कि लोकसभा चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी और कांग्रेस की लड़ाई में क्षेत्रीय पार्टी टीआरएस कहीं खो जाए. इसके अलावा राव को लगा कि संसदीय चुनाव से पहले विधानसभा चुनाव में स्पष्ट जनादेश लेकर वो टीआरएस की ताकत और बढ़ा लेंगे.
लेकिन जैसे-जैसे तेलंगाना मतदान की ओर बढ़ने लगा, सवाल उठने लगे कि क्या केसीआर को अपने दांव की कीमत चुकानी पड़ेगी? घोषणा के वक्त कांग्रेस उधेड़बुन में थी, लेकिन ऐसा लगता है कि बीते दो महीने में कांग्रेस ने खुद को चाक-चौबंद किया और सितम्बर में जो टीआरएस अजेय दिख रही थी, अब वैसी नहीं रह गई
मूलरूप से जो बदलाव हुआ है वो ये कि कांग्रेस एक गठबंधन में जुड़ गई और वह भी तेलुगु देशम पार्टी, वामपंथी और तेलंगाना जन समिति की एकजुट ताकत के साथ. गठबंधन के तीन सहयोगियों, जिनमें टीजेएस 2018 में बनी है, के पास 40 फीसदी साझा वोट हैं जो टीआरएस को 2014 में मिले 34.5 फीसदी वोट से ज्यादा हैं.
यह महत्वपूर्ण है क्योंकि सबसे ज्यादा अंतर से जीत के नजरिए से देखें तो 2014 टीआरएस के लिए सर्वश्रेष्ठ चुनावी अवसर था.
संयुक्त आंध्र प्रदेश में इसे 2004 में 6 फीसदी और 2009 में 4 फीसदी वोट मिले और 2004 में तब इसे सबसे ज्यादा 26 सीटें मिली थीं जब इसने कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था.
इस पर दोबारा गौर करने की जरूरत है कि 2004 और 2009 के बीच उन जिलों में कांग्रेस का वर्चस्व था जिनसे तेलंगाना का निर्माण हुआ. लेकिन, 2014 में आंदोलन और फिर आन्ध्र प्रदेश को बांटने के फैसले के बाद टीआरएस एक चुनावी लहर पर सवार हो गया. तेलंगाना क्षेत्र के वोटरों में इसकी हिस्सेदारी 34.5 फीसदी (62 सीट) पहुंच गयी.
हालांकि कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने आंध्र प्रदेश को बांटने का फैसला लिया था, लेकिन तेलंगाना के वोटरों में इसका मतलब सिर्फ टीआरएस था और पार्टी नेता केसीआर को तेलंगाना में चैम्पियन के तौर पर देखा गया.
जिस चुनाव में टीआरएस ने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया और जिसमें टीआरएस को मिले वोटों के मुकाबले गठबंधन के साझेदारों का साझा गणित कहीं बेहतर रहा था, क्या वह गणित विगत पांच वर्षों में नाटकीय तरीके से बदल सकता है? इस सवाल का जवाब पाने के लिए यह अहम है कि 2014 में टीआरएस को मिले वोट का गहराई से अध्ययन किया जाए.
पहली बात ये है कि टीआरएस के लिए जो वोटों में उछाल आया, उसकी वजह एससी-एसटी और पिछड़े वोटों का बड़े पैमाने पर कांग्रेस से छिटककर टीआरएस में आना रहा. राज्य में सवर्ण रेड्डी के नेतृत्व में पिछड़े, मुस्लिम और एससी-एसटी वोटों की गोलबंदी ही कांग्रेस के गणित का आधार रही थी.
केसीआर का सामाजिक कल्याण योजनाओं और लोकप्रिय राजनीति पर फोकस करना इसीलिए महत्वपूर्ण है. वर्तमान मुख्यमंत्री को उम्मीद है कि इन योजनाओं से पिछड़े और एससी-एसटी वोटों का आधार मजबूत होगा और वे पार्टी से जुड़े रहेंगे.
लेकिन कांग्रेस इन जातियों में अपने खोए जनाधार को दोबारा हासिल करने के लिए जबरदस्त प्रयास कर रही है. आर्थिक रूप से पिछड़े समाज के निचले तबके में एंटी इनम्बेन्सी बहुत मजबूत है और कांग्रेस को उम्मीद है कि वह इसी के बूते खड़ी हो जाएगी. हो सकता है कि इससे पूरी क्षतिपूर्ति ना हो, लेकिन पार्टी उम्मीद कर रही है कि वह पूर्व में अपने आधार को एक बार फिर हथिया लेगी.
2014 में टीआरएस की ओर गए वोट का दूसरा बड़ा हिस्सा था तत्कालीन टीडीपी वोट, जिसने तेलंगाना बनाने के कांग्रेस के रुख की वजह से पार्टी छोड़ दी थी. टीडीपी एक ऐसी पार्टी के रूप में देखी जाती थी जिसने आन्ध्र क्षेत्र को आगे बढ़ाया और इस तरह उसने तेलंगाना में अपनी बड़ी मौजूदगी खो दी.
परंपरागत रूप से जो वोट कांग्रेस विरोधी रहे, उसके बारे में भी माना जा सकता है कि वह टीडीपी से भी दूर रहे और वह आम तौर पर टीआरएस के साथ हो गए. यह भी याद रखने की जरूरत है कि 2001 में केसीआर खुद टीडीपी से अलग हुए थे.
2014 में जनादेश पाने के बाद से पिछले पांच साल में टीआरएस ने तेलंगाना को कांग्रेस के साथ दो ध्रुवीय बना दिया है. यही वजह है कि कांग्रेस की विरोधी और तेलुगू गौरव की प्रतीक मूल पार्टी टीडीपी को वोटों के फायदे के लिए तेलंगाना में कांग्रेस पर ही निर्भर होना पड़ा है.
हालांकि पुरानी टीडीपी के वफादारों का एक तबका ऐसा है जो खास तौर से खुद को अपने मूल आन्ध्र क्षेत्र से जुड़ा पाता है, जो पार्टी के साथ बना रहा है और जिनकी संख्या आन्ध्र प्रदेश से सटे इलाकों में व हैदराबाद शहर में ज्यादा है. ये वोट गठबंधन के गणित का आधार है.
ये सारे कारण इशारा करते हैं कि तेलंगाना में वोटों का गणित भले ही पांच सालों में बदल गया हो, लेकिन गठबंधन का गणित एक ऐसा फैक्टर है जिसे भेद पाना मुश्किल है और इसके पीछे मजबूत चुनावी तर्क भी हैं. सवाल ये है कि क्या केसीआर का करिश्मा इस अंक गणित पर भारी पड़ने वाला है?
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल है@TMVRaghav. यह लेखक के विचार हैं और इसमें व्यक्त नजरिया उनका अपना है. द क्विन्ट का न इससे सरोकार है और न ही इसके लिए उत्तरदायी है)
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