advertisement
दो शहर, दो तारीख मगर दर्द एक सा. दोनों जगह दो परिवारों ने जवान बेटा खोया. जिस संतान को पाल पोसकर बड़ा किया हो उसकी हत्या कर दी जाए, तो जिंदगी कितनी मुश्किल हो जाती है इसका अंदाजा वही लगा सकते हैं, जिनके साथ ऐसा हुआ हो. हम तो बस सोच सकते हैं और अपनी-अपनी संवेदना शक्ति के हिसाब से उनकी पीड़ा महसूस करने की कोशिश कर सकते हैं. लेकिन इस कोशिश में अंतर उतना ही होगा जितना अंतर किसी काल्पना और वास्तविकता में होता है.
ताजा घटना पश्चिम बंगाल के आसनसोल की है. वहां कुछ बलवाई मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नाम का सहारा लेकर हैवान बन गए. उन्होंने सिबतुल्ला रशीदी की हत्या कर दी. उसकी उम्र महज 16 साल थी. उसने जवानी में पहला कदम रखा था. कितने सपने उसकी आंखों में होंगे, कितनी जिंदगियां उसके खाते में होंगी, लेकिन वहशी दरिंदों ने सब कुछ छीन लिया. लेकिन कत्ल क्या सिर्फ उसी का हुआ है? जब किसी की हत्या होती है तो क्या सिर्फ वही मरता है? और वह बाप कैसा होगा जो अपने बेटे के कत्ल का बदला नहीं लेना चाहेगा?
क्यों कह रहा है कि अगर किसी ने बदले की कार्रवाई की तो वह आसनसोल छोड़ कर चला जाएगा? क्या वह अपने बेटे सिबतुल्ला से मोहब्बत नहीं करता था? सवाल अनंत हैं. उन सवालों पर गौर करने के बाद मैं बस यही कह सकता हूं कि सिबतुल्ला के पिता इमाम मौलाना इम्दादुल रशीदी बड़े दिल वाले हैं. तभी उन्होंने कहा है कि वह किसी और बाप को बेटा खोते हुए नहीं देखना चाहते हैं. कोई और घर उजड़ते हुए नहीं देखना चाहते हैं. आसनसोल मौलाना इम्दादुल रशीदी का गुनहगार है और मौलाना रशीदी का दिल देखिए उन्होंने आसनसोल का सजा देने की जगह उसका गुनाह माफ कर दिया है.
ये भी पढ़ें- आसनसोल: हिंसा में बेटे की मौत के बाद भी इमाम ने की शांति की अपील
दूसरी घटना इसी साल फरवरी की है. देश की राजधानी दिल्ली में अंकित सक्सेना नाम के युवक की हत्या कर दी गई. मारने वाले मुसलमान थे. उन्होंने अंकित की हत्या इसलिए की कि वो उनकी बेटी के मोहब्बत करता था. वो लड़की भी अंकित से प्रेम करती थी. नफरत से भरे घरवाले मोहब्बत बर्दाश्त नहीं कर सके. उन्होंने अंकित के मां-बाप के सामने उसका गला रेंत दिया. अंकित की उम्र सिर्फ 23 साल थी. पूरी जिंदगी सामने पड़ी थी. सोचता हूं कि आखिर कोई इंसान किसी इंसान की हत्या कैसे कर सकता है? ऐसा करने से पहले तो उसने खुद की भी हत्या की होगी. या वह यकीनन जेहनी तौर पर बीमार लोग होंगे जो हाथों में हथियार लेकर किसी को मारने निकल पड़ते हैं.
ये भी पढ़ें- वीडियो | दोस्तों की यादों में अंकित सक्सेना, जो रुलाकर चला गया
अंकित की हत्या के बाद कुछ लोगों को इसमें अवसर नजर आ रहा था. लेकिन अंकित के पिता यशपाल सक्सेना भले इंसान हैं. उन्होंने ऐसा करने से रोक दिया.
जिसकी आंखों के सामने पुत्र कत्ल हुआ हो, वह पिता संवेदनाओं पर काबू रखते हुए शांति बनाए रखने की अपील कर रहा हो… आखिर असली नायक वह नहीं तो और कौन है?
वर्तमान दौर खतरनाक है. ऐसा लगता है कि शिकारी घात लगाए बैठे हैं. उनकी कोशिश है कि किसी भी तरह देश में साम्प्रदायिक हिंसा फैल जाए. इसलिए बार-बार चिंगारियां भड़काई जा रही हैं. बीते कुछ महीनों पर गौर कीजिए. कासगंज, भागलपुर, समस्तीपुर औरंगाबाद, नवादा, आसनसोल… उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल. जगह और राज्य बदलते हैं लेकिन सच एक सा है. कभी 26 जनवरी का जुलूस तो कभी रामनवमी का. जुलूस के दौरान हिंसा.
इससे पहले बिहार के भागलपुर में क्या हुआ? एक अन्य केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे का बेटा अर्जित शाश्वत हिंसा भड़काता है. जब दबाव में पुलिस कार्रवाई करती है तो फरार हो जाता है. समाजवादी सिद्धांतों में यकीन रखने वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार असहाय दिख रहे हैं. क्योंकि जिस बैसाखी के सहारे वो खड़े हैं वह उसी केंद्रीय मंत्री की पार्टी की है. क्या आपको इन सबमें कोई डिजाइन नजर नहीं आता? अगर नहीं नजर आता तो सीधा अर्थ है कि आप सोचने-समझने की शक्ति खो चुके हैं.
अगर कोई डिजाइन नजर आता है तो खुद से यह सवाल पूछना होगा कि यह क्यों हो रहा है? 2019 के लिए? खुद से यह सवाल भी पूछना होगा कि जो देश 1947 की भीषण हिंसा देख चुका हो, लाखों लोगों का नरसंहार देखा हो, करोड़ों परिवारों को उजड़ते देखा हो, उस देश के लोगों में पुरखों की दरिंदगी पर शर्मिंदगी की जगह बदले की भावना क्यों है? समाज के निर्माण में कुछ तो खोट है.
आजाद हिंदुस्तान के हुक्मरानों ने जो नींव रखी, उसमें कुछ तो गड़बड़ी है. तभी समाज की सामूहिक चेतना गलत दिशा में मुड़ गयी. ये विकृत सामुहिक चेतना नहीं है तो क्या है कि जो लोग लहू के प्यासे हैं, वही हमारे नायक हैं. तो फिर ये सामुहिक चेतना सही दिशा में कैसे आएगी? क्या इसका कोई हल है भी या नहीं?
हल है. यकीनन है. लेकिन इसके लिए समाज को यशपाल सक्सेना और मौलवी इम्दादुल रशीदी जैसे लोगों की ओर मुड़ना होगा. उनका कहा सुनना होगा. ना कि बाबुल सुप्रियो और अर्जित शाश्वत की बातों को. बाबुल और अर्जित जो देश बनाना चाहते हैं उसमें सभी असुरक्षित होंगे. सोचिए कोई घर से निकला हो किसी जरुरत को पूरा करने के लिए और वापस नहीं लौटे तो यह कितनी भयानक सूरत होगी?
इन लोगों के समाज में बेकसूरों की चीख-पुकार सुनाई देती है और इतना घनघोर अंधेरा कि कुछ भी नजर नहीं आता. न इंसान, न इंसानियत. इसलिए समाज को और देश को इस अंधेरे से बचाना है तो यशपाल और इम्दादुल रशीदी की ओर मुड़ना होगा. ये सिर्फ दो व्यक्ति नहीं हैं. ये उन सभी का प्रतिनिधित्व करते हैं जो अब भी इसलिए संघर्ष कर रहे हैं कि भारत की सामुहिक चेतना नफरत की जगह प्रेम की बुनियाद पर निर्मित हो.
यह भी देखें: आसनसोल हिंसा पर हिंदू और मुसलमान बता रहे हैं 2 अलग कहानियां
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: 02 Apr 2018,12:49 PM IST