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सरकार किसी की भी बने, इन 3 चुनौतियों को पार करना आसान नहीं होगा

नई सरकार को अपने कार्यकाल में तीन बुनियादी सवालों से जूझना होगा और तब तक 21वीं सदी के 25 साल निकल चुके होंगे

टीसीए श्रीनिवास राघवन
नजरिया
Updated:
सरकार किसी की भी बने, इन 3 चुनौतियों को पार करना आसान नहीं होगा
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सरकार किसी की भी बने, इन 3 चुनौतियों को पार करना आसान नहीं होगा
(फोटो: द क्विंट)

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इस महीने के आखिर तक नई सरकार बन चुकी होगी. चाहे किसी भी गठबंधन की सरकार बने, उसे अपने कार्यकाल में तीन बुनियादी सवालों से जूझना होगा और तब तक 21वीं सदी के 25 साल निकल चुके होंगे.

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  • इनमें से पहला सवाल यह है कि 21वीं सदी में भारतीय सत्ता का स्वभाव और शक्ल क्या होगी. एक राष्ट्र के रूप में वजूद बचाए रखने के लिए वह और कितनी दमनकारी बनेगी या उसे कितना दमनकारी होना पड़ेगा?
  • दूसरा बुनियादी सवाल भारतीय अर्थव्यवस्था के रूप-रंग से जुड़ा है. यह सरकार से कितनी आजाद होगी? आप देखेंगे कि यह पहले सवाल से गहरे तौर पर जुड़ा हुआ है.
  • तीसरा सवाल यह है कि हमेशा के लिए क्षेत्रीय और छोटे दलों के हाथ में सत्ता जाने से रोकने के लिए क्या बीजेपी और कांग्रेस साथ आ जाएंगी?

क्षेत्रीय और छोटे दल दो राष्ट्रीय पार्टियों के विकल्प के तौर पर उभर रहे हैं. यह कोरी बात नहीं है. ऐसा बिल्कुल हो सकता है.

आइए, सबसे पहले राजनीतिक पार्टियों से ही इस विमर्श की शुरुआत करते हैं. इस बार बीजेपी 437 और कांग्रेस 423 सीटों पर चुनाव लड़ रही है यानी दोनों पार्टियां मानती हैं कि 120-125 सीटों पर रेस में वे दूर-दूर तक नहीं हैं.

असल में ऐसी सीटें 220 तक हैं क्योंकि 2004 में बीजेपी और कांग्रेस ने मिलकर 282 सीटें जीती थीं, जबकि 262 सीटें अन्य पार्टियों के खाते में गई थीं. 2009 में बीजेपी और कांग्रेस ने मिलकर 322 सीटें जीतीं और 222 पर दूसरी पार्टियों ने कब्जा किया था. 2014 में इन दोनों ने मिलकर 326 सीटें जीतीं और अन्य के खाते में 218 सीटें गई थीं.

इसलिए अभी सबसे मौजूं सवाल यह है कि क्या देश में बीजेपी और कांग्रेस विरोधी माहौल और बढ़ा है, अगर ऐसा है तो भविष्य में दोनों को हाथ मिलाना पड़ सकता है. यह अगले दशक का सबसे बड़ा पॉलिटिकल डेवलपमेंट हो सकता है. हालांकि इसके लिए बीजेपी को हिंदुत्व को छोड़ना होगा और कांग्रेस को गांधी परिवार से दूरी बनानी पड़ेगी.

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अर्थव्यवस्था को ट्रैक पर लाने का है चैलेंज

लेकिन सिर्फ नए राजनीतिक तालमेल से देश का भला नहीं होगा. अर्थव्यवस्था की रफ्तार भी तेज करनी पड़ेगी. हाल ही में हार्वर्ड से ट्रेनिंग ले चुके एक भारतीय अर्थशास्त्री ने पूछा कि लोकतंत्र न होने के बावजूद चीन की अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन शानदार रहा है, जबकि लोकतांत्रिक देश होने के बावजूद इस मामले में भारत का रिकॉर्ड खराब है. उनका मानना है कि चीन में मजबूत सरकार और भारत में कमजोर सरकार की वजह से ऐसा हुआ.

यह कोई नई बात नहीं है. 1967 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित गुनार मिर्डल ने बड़ी विनम्रता के साथ कहा था कि भारत ‘सॉफ्ट’ स्टेट है. अब यह सवाल करने का वक्त आ गया है कि आर्थिक लक्ष्य हासिल करने के लिए सत्ता को किस हद तक दमनकारी होना चाहिए क्योंकि अभी तक तो सत्ता आर्थिक लक्ष्य हासिल नहीं कर पाई है.

सच कहें तो इसकी ताकत घटी है. इसी वजह से प्रॉडक्शन से जुड़ी चीजों की लागत काफी अधिक है. कई चीजों का उत्पादन करना आर्थिक तौर पर फायदेमंद नहीं है या कई प्रॉडक्ट्स के साथ ये दोनों ही समस्याएं हैं. उत्पादन लागत कम करने के लिए हमें खुद से यह सवाल करना होगा कि क्या सत्ता को और दमनकारी होना चाहिए? दुनिया के कई देशों में ऐसा हो चुका है और विकसित देश भी इस क्लब में शामिल रहे हैं.

भारत में संवैधानिक सीमाओं और राजनीतिक विरोध के चलते इस मामले में संतुलन बनाना आसान नहीं होगा. इसका एक रास्ता यह हो सकता है कि राज्यों को अधिक आजादी दी जाए. उसके लिए संविधान की कॉन्करेंट लिस्ट को हटाना होगा और कई आइटम को केंद्र की लिस्ट से हटाकर राज्यों की लिस्ट में डालना होगा.

इसके बदले राज्य, केंद्र को तय रकम का भुगतान कर सकते हैं और इसमें हर पांच साल के बाद संशोधन किया जा सकता है. यह आसान नहीं होगा, लेकिन 21वीं सदी की तो अभी शुरुआत ही हुई है. अगले 10 साल में हमें इन बुनियादी सवालों को हल करने की कोशिश करनी चाहिए.

सत्ता में सुधार है सबसे बड़ी चुनौती

सत्ता में सुधार सबसे मुश्किल काम है. कई देशों को इसका पहले तजुर्बा हो चुका है. दरअसल, आजादी के सिद्धांत का मतलब यह है कि जिन्हें सुधरने की जरूरत है, उन्हें खुद यह काम करना होगा.

संसद, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच इसे लेकर काफी समय से मतभेद बना हुआ है. आजादी को जो मतलब है, उसे देखते हुए इनमें से दो को मिलकर तीसरे को सुधारना होगा. इसके बिना कोई रिफॉर्म संभव नहीं है.

इसलिए अगली सरकार को मिलकर ऐसा रास्ता निकालना होगा, जिसमें इन तीनों में से दो मिलकर तीसरे के लिए रिफॉर्म का प्रस्ताव रखें. अगर इसके लिए संविधान में संशोधन की जरूरत हो तो उससे भी नई सरकार को पीछे नहीं हटना चाहिए. आखिर, इससे कहीं छोटी बातों के लिए संविधान में 100 से अधिक बार संशोधन हो चुके हैं.

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Published: 14 May 2019,08:36 PM IST

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