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भारत में आपराधिक कानूनों का विस्तार चिंताजनक, 3 नए क्रिमनल लॉ में बड़ी खामियां

Criminal Law: इनका मकसद न्याय प्रणाली में ब्रिटिश छाप को मिटाना बताया गया है, पर वे इस पर खरे नहीं उतरते.

नवीद अहमद
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>क्रिमनल लॉ का ड्राफ्ट कैसे तैयार न किया जाए, तीन नए बिल देते हैं सीख </p></div>
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क्रिमनल लॉ का ड्राफ्ट कैसे तैयार न किया जाए, तीन नए बिल देते हैं सीख

(फोटो: क्विंट हिंदी)

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Criminal Law: 25 दिसंबर को औपनिवेशिक दौर के तीन कानूनों भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी), भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) और दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CRPC) की जगह लेने वाले तीन विधेयकों को राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गई. जब केंद्र सरकार तीन कानूनों को अधिसूचित कर देगी तो भारतीय न्याय संहिता अधिनियम, 2023 (BNS) आईपीसी (IPC) की जगह लेगा, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) सीआरपीसी की जगह और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (बीएसए) आईईए (IEA) की जगह ले लेंगे.

भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली (सीजेएस) को बदलने का दावा करने वाले ये कानून, संसद से कई विपक्षी नेताओं के निलंबन के बीच पारित किए गए.

लेकिन इन विधेयकों और भारतीय न्याय प्रणाली पर उनके असर पर बहस करने की बजाय न्याय प्रणाली का भारतीयकरण करना जरूरी है, इसपर विमर्श हावी हो गया. यह बात और है कि इन नए कानूनों से जुड़े मुद्दे उन्हें समस्याग्रस्त तरीके से लागू करने से परे हैं.

3 नए कानूनों की बड़ी कमियां

अगस्त में इन बिलों को सदन के पटल पर रखते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि ये बिल भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली को औपनिवेशिकरण से मुक्त करेंगे और ब्रिटिश शासन की छाप को मिटाएंगे. उन्होंने इस बात पर जोर दिया था कि भारतीय न्याय प्रणाली अब ‘सजा’ नहीं, ‘इंसाफ’ पर जोर देगी. हालांकि, यह सिर्फ बयानबाजी साबित हुई.

इन महत्वाकांक्षी लक्ष्यों को हासिल करने के लिए न तो कोई रणनीति बनाई गई, न ही रोडमैप तैयार किया गया. असल में इन कानूनों में भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली के औपनिवेशिक तत्वों की पहचान करने और उन्हें खत्म करने की कोई कोशिश नहीं की गई है.

ये कानून उसी औपनिवेशिक आधार पर काम करते हैं, जिनमें क्रिमनल लॉ को काबू में करने और उनके दिमाग में आतंक पैदा करने का एक जरिया के रूप में देखा जाता है.

इसके अलावा उनमें वैसे ही अस्पष्ट और अनेकार्थी प्रावधान हैं, जो बोलने और अभिव्यक्ति को अपराध बनाते हैं और जिनका दुरुपयोग किया जा सकता है. यानी देश की आपराधिक न्याय प्रणाली के औपनिवेशिकरण को खत्म करने की कोई कोशिश नजर नहीं आती.

अगर पुराने कानूनों को बदलने और नए सिरे से शुरुआत करने को कोशिश की जा रही थी तो इस बात का पूरा मौका था कि आजादी के बाद के भारत में अपराध को समझने और उस पर काम करने के लिए एक व्यापक और लंबी अवधि वाली निरंतर प्रक्रिया का खाका तैयार किया जा सके. इससे न केवल न्याय प्रणाली में ब्रिटिश शासन की छाप को मिटाया जा सकता था, बल्कि उसे अधिक संवेदनशील और तर्कसंगत बनाया जा सकता था.

इन कानूनों का मसौदा तैयार करते समय एक चूक हो गई. कानून के असर का कोई आकलन नहीं किया गया. ये खास तौर से जरूरी था क्योंकि ये कानून समय पर निर्णय देने, फॉरेंसिक का इस्तेमाल करने, ट्रायल और जांच प्रक्रियाओं के दौरान तकनीक के इस्तेमाल पर जोर देते हैं. इन प्रावधानों की जरूरत, उनकी क्षमता और व्यावहारिकता के मूल्यांकन के लिए ऐसा आकलन अहम होता है लेकिन इनकी पूरी तरह से अनदेखी की गई.

विश्व स्तर पर कानून निर्माण की प्रक्रियाओं के दौरान ऐसे आकलन किए ही जाते हैं, जिनमें नए कानूनों की वित्तीय क्षमता और मानवाधिकारों पर उनके असर का विश्लेषण किया जाता है.

इससे कुछ कानूनों के आपराधिकरण करने की जरूरत, उनके प्रवर्तन की व्यावहारिकता का आकलन किया जा सकता है और इस बात को प्रोत्साहन मिलता है कि नीतिगत उद्देश्यों को हासिल करने के क्या कोई दूसरे विकल्प मौजूद हैं.

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कानूनों में कोई सुरक्षा उपाय नहीं किए गए

भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली को ब्रिटिश दौर की सोच से निकालने के नजरिये और तरीके, दोनों की कमी होगी तो यह तय है कि ज्यादातर कानून व्यवस्था में सिर्फ दिखावटी बदलाव करते हों, बल्कि कई बार पिछले दौर के अवशेषों को ही संभालते रहते हों. साथ ही कुछ महत्वपूर्ण समस्याओं को दूर भी न करते हों. हुआ भी यही है.

तो ये कानून मौजूदा समस्याएं से दूर-दूर तक वास्ता नहीं रखते जोकि नीचे दिए गए मामलों में साफ नजर आता है:

अत्यधिक अपराधीकरण

भारत में आपराधिक कानून का विस्तार चिंताजनक है, खासकर उन मामलों में जहां यह सामाजिक और नियामक मानदंडों को लागू करने की कोशिश करता है.

इससे भारत के विधायी परिदृश्य का अत्यधिक अपराधीकरण हो गया है, जिसमें 420 से अधिक केंद्रीय कानून हजारों फौजदारी अपराध संबंधी प्रावधान करते हैं, जैसे उद्योगों का पंजीकरण न करना, खातों को बरकरार न रखना, घरेलू पालतू जानवरों से पर्याप्त व्यायाम न कराना, और 10 रुपए से अधिक मूल्य के खजाने की सूचना न देना. ये सभी अपराध माने जाते हैं.

देश के आपराधिक कानूनों पर दोबारा विचार करते समय, सरकार इस समस्याओं का हल कर सकती थी और आपराधिक कानूनों की सीमाओं और उनकी उपयोगिता को समझ सकती थी. यह राज्य की अपराधीकरण की शक्ति को सीमित करने के विश्वव्यापी प्रयासों के अनुरूप भी होता.

व्यवस्था में भेदभाव करने वाले दस्तूर

विश्व स्तर पर देखा जाए तो भारत में आपराधिक कानून और उनके प्रवर्तन से हाशिए पर पड़े समुदायों पर गैर आनुपातिक रूप से ज्यादा असर नजर आता है.

आंकड़े बताते हैं कि मुसलमानों, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों पर बहुत ज्यादा पुलिसिया कार्रवाई की जाती है, और इसके परिणामस्वरूप, जेलों में उनका प्रतिनिधित्व बहुत ज्यादा है. पिछले पांच वर्षों में भारत के विचाराधीन कैदियों में से 30 प्रतिशत से अधिक और भारतीय जेलों में लगभग 35 प्रतिशत से अधिक दोषी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोग हैं.

इसी तरह भारत की जेलों में निवारक निरोध के बंदियों में मुसलमानों की संख्या 30 प्रतिशत से अधिक है, जो जनसंख्या में उनके अनुपात के दोगुने से भी अधिक है.

नए ठोस और प्रक्रियात्मक कानूनों को लागू करने से यह मौका भी मिलता है कि उन पूर्वाग्रहों को दूर किया जा सके, जिनके चलते अल्पसंख्यक और हाशिए पर पड़े दूसरे समूह सजा पाते हैं. हालांकि इस दस्तूर के खिलाफ कोई प्रक्रियागत और ठोस सुरक्षा उपाय देने की कोशिश नहीं की गई है.

अपराध रोकने के लिए हिरासत में लेना और पुलिस को अधिक शक्तियां

निवारक निरोध कानूनों, जोकि ब्रिटिश शासन के हित में थे, की पहुंच आजादी के बाद व्यापक हुई है और इस समय देश में कम से कम 25 ऐसे कानून मौजूद हैं.

विशेष निवारक निरोध कानूनों की ही तरह सीआरपीसी पुलिस को गिरफ्तारी की जबरदस्त ताकत देती है जोकि भारतीय लोगों पर पुलिसिया कार्रवाई के ब्रिटिश नजरिए से प्रभावित है. हर साल निवारक निरोध के कानूनों के चलते लगभग 80 लाख लोगों को गिरफ्तार किया जाता है जोकि इस बात का सबूत है कि इस ताकत का कैसे दुरुपयोग किया जाता है और लोगों की व्यक्तिगत आजादी का हनन किया जाता है. इस समस्या को हल करने की बजाय नए कानून पुलिस को और ताकत देते हैं.

ये सभी मुद्दे भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली को लेकर चिंता बढ़ाते हैं और नए कानून इन कमियों को दूर करने में नाकाम हैं. इसकी बजाय ये कानून मौजूदा व्यवस्था में अंग्रेजी शासन के निशान और पक्के करते हैं. सही में न्याय प्रणाली को आधुनिक बनाने और औपनिवेशिक चिन्हों से मुक्त करने के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है.

(नवीद महमूद अहमद विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी में सीनियर रेजिडेंट फेलो, क्रिमिनल जस्टिस हैं. यह एक ओपनियन पीस है और इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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