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UAPA और PMLA ही नहीं, नई भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के तहत भी जमानत उतनी ही मुश्किल

नए नागरिक सुरक्षा कानून में सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों की अनदेखी की गई है.

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भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में ही जमानत का मूल सिद्धांत छिपा है. जैसा कि इस अनुच्छेद में कहा गया है, “जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा; किसी भी व्यक्ति को कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा किसी अन्य प्रकार से उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा." इस प्रकार यह न केवल किसी व्यक्ति को स्वतंत्रता देने की बात करता है, बल्कि यह भी बताता है कि कानून के तहत निर्धारित प्रक्रिया के अलावा किसी दूसरी तरह से किसी व्यक्ति की आजादी को दांव पर नहीं लगने दिया जाएगा.

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वहीं, प्रक्रियात्मक नियम, जो गिरफ्तारी और हिरासत की इजाजत देता है, इस बात का भी भरोसा दिलाता है कि कोई आरोपी कई तरह से जमानत की मांग कर सकता है, गिरफ्तारी से पहले भी, और वैधानिक जमानत भी.

दंड प्रक्रिया संहिता (CrPc) की धारा 436-438 में जमानत की जो प्रक्रिया बताई गई है, उसके तहत आरोपी जमानत पर रिहाई की मांग के लिए सत्र न्यायालय या हाईकोर्ट जा सकता है. अगर आरोप की गंभीरता को देखते हुए जांच 60 या 90 दिनों में पूरी नहीं होती तो हिरासत में रहने वाला व्यक्ति सीआरपीसी की धारा 167 के तहत नियमित जमानत के लिए अदालत जा सकता है.

हाल ही में भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (दूसरी), 2023 को पारित किया गया है जोकि सीआरपीसी का स्थान लेती है. इसकी धारा 478 से 483 में जमानत का एक नया प्रकार दिया गया है.

बीएनएसएस (BNSS) की धारा 480 (1) में एक वाक्य है, "जमानत पर रिहा किया जा सकता है". इसके अनुसार निम्नलिखित स्थितियों में कोई जमानत नहीं मिलेगी: (क) जब यह मानने का उचित आधार लगता हो कि व्यक्ति ने ऐसा अपराध किया है, जिसमें मौत या उम्रकैद की सजा मिलती है, (ख) अपराध संज्ञेय है और व्यक्ति को मौत, उम्रकैद या सात साल या उससे अधिक के कारावास से दंडनीय अपराध का दोषी ठहराया गया है; या व्यक्ति को किसी संज्ञेय अपराध के दो या दो से अधिक अवसरों पर दोषी ठहराया गया हो, जिसके लिए तीन साल या उससे अधिक, लेकिन सात साल से कम कारावास की सजा हो सकती है. 480(1) में दो स्थितियों के अलावा जमानत अर्जी के लिए कोई और नियम नहीं हैं.

बीएनएसएस में जिस एक बात की पूरी तरह अनदेखी की गई है, वह है सतेंद्र कुमार अंतिल मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला. इस फैसले में सीआरपीसी की धारा 41-क का पालन करने, गिरफ्तारी के लिए स्थायी आदेश प्राप्त करने, गैर जमानती वॉरंट जारी करने की शर्त पूरी करने का आदेश दिया गया था. इसके अलावा अदालत ने कहा था कि जमानत पर फैसला करते समय बाकी सभी बातों पर भी विचार किया जाना चाहिए.

BNSS के तहत जमानत क्यों मुश्किल है?

बीएनएसएस का खंड 479(1), "विचाराधीन कैदी को अधिकतम अवधि तक हिरासत में रखा जा सकता है" से संबंधित है, और यह सीआरपीसी की धारा 436क से मेल खाता है. यह स्पष्ट करता है कि उम्रकैद की सजा वाले अपराध का दोषी विचाराधीन कैदी सिर्फ अपनी हिरासत की अवधि के आधार पर रिहाई का पात्र नहीं है. खंड 479(1) पहली बार के अपराधी को अधिकतम सजा के एक तिहाई के बराबर सजा काट लेने पर रिहा करने की इजाजत देता है.

खंड 479(2) की शब्दावली अजीब है. उपधारा में कहा गया है कि "जहां एक व्यक्ति के खिलाफ एक से अधिक अपराध या कई मामलों में जांच, पूछताछ या मुकदमा लंबित है, उसे अदालत द्वारा जमानत पर रिहा नहीं किया जाएगा." यह स्पष्ट नहीं है कि क्या यह केवल धारा 481(1) के तहत विचाराधीन कैदियों की रिहाई पर लागू होता है या इसे मानक जमानत के लिए भी माना जा सकता है.

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अगर इस खंड का इस्तेमाल बीएनएसएस की धारा 478 से 483 के तहत भी जमानत के अधिकार को नकारने के लिए किया जाता है तो गंभीर परिणाम होंगे. अगर इस व्याख्या का इस्तेमाल किया जाता है, तो किसी को जमानत देने से इनकार करने के लिए केवल उनके खिलाफ कई आरोप दर्ज करना या किसी झूठी पुलिस रिपोर्ट में कई अपराधों को शामिल करना काफी है. संहिता में दो अलग-अलग अभिव्यक्तियों का इस्तेमाल किया गया है, जो उल्लेखनीय है: (क) एक से अधिक अपराध और (ख) कई मामले.

इसके अलावा बीएनएसएस में अग्रिम जमानत के प्रावधानों को हटा दिया गया है. यह खंड इस बारे में कुछ नहीं कहता कि अग्रिम जमानत किन मानदंडों के आधार पर दी जाएगी, यानी बेंच को ऐसी अर्जी पर अपने विवेक के आधार पर सुनवाई करनी होगी. वे धाराएं जिनमें अग्रिम जमानत का अनुरोध करने वाले आरोपी व्यक्ति की भौतिक उपस्थिति का आश्वासन देना या अर्जी पर सुनवाई के दौरान सरकारी वकील को सुनवाई का उचित अवसर प्रदान करना जरूरी था, को समाप्त कर दिया गया है.

यहां सुशीला अग्रवाल मामले का जिक्र करना जरूरी है. इस मामले में अग्रिम जमानत की अवधि के संबंध में हाईकोर्ट और सत्र न्यायालय को अधिकार दिए गए थे. इसके अलावा यह जानना भी जरूरी है कि क्या अग्रिम जमानत की अर्जी पर विचार करने वाली अदालत, अर्जी के समय आरोपों और जांच के चरण के आधार पर यह निर्धारित कर सकती है कि जमानत मुकदमा खत्म होने तक बरकरार रहेगी या आरोप दायर होने तक लागू रहेगी. यह स्पष्ट किया जाना चाहिए कि अगर मामले की जांच के दौरान अतिरिक्त सबूत मिलते हों, जो आरोपी को फंसाते हों और अधिक गंभीर अपराध जोड़ते हों तो भी क्या अग्रिम जमानत बरकरार रहेगी.

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विशेष कानूनों के तहत जमानत

भारतीय आपराधिक कानून का मूलभूत सिद्धांत है, किसी के निर्दोष होने का पूर्वानुमान, यानी दोषी साबित होने तक निर्दोष होना. बीएनएसएस भी इसी सिद्धांत पर आधारित है. लेकिन कुछ भारतीय कानून इस नियम की अनदेखी करते हैं. यह रवैया उन कानूनों में ज्यादा दिखाई देता है जिन्हें 'असाधारण' अपराधों से निपटने के लिए ‘विशेष’ तौर पर बनाया गया है. जैसा कि कुछ लोग दलील देते हैं कि ऐसे अपराधों से सामान्य आपराधिक कानूनों के जरिए निपटा नहीं जा सकता. लेकिन इस नियम की अनदेखी, असंवैधानिक है और ‘विशेष’ आपराधिक कानूनों में दो चरणों पर मौजूद है, यानी जमानत देना और फैसला सुनाना. इन कानूनों में जमानत देने की शर्तों बहुत कठोर हैं, इसलिए इन मामलों के तहत अदालतों से जमानत हासिल करना बहुत चुनौतीपूर्ण हो जाता है.

UPA (गैरकानूनी गतिविधियां [निवारण] अधिनियम) और PMLA (धन शोधन निवारण अधिनियम) जैसे विशेष आपराधिक कानूनों में जमानत की सीमित शर्तें हैं जो जमानत को एक अपवाद और जेल को एक अधिकार बनाती हैं.

यूएपीए और पीएमएलए के तहत आरोपी को लेकर आपराधिक मनःस्थिति की धारणा है, जो प्राकृतिक न्याय और जमानत के सिद्धांत पर चोट करती हैं.

यूएपीए की धारा 43डी(5) के तहत अगर किसी आरोपी के खिलाफ प्रथम दृष्टया मामला बनता है, तो जमानत लेना सबसे मुश्किल काम है. इसके अलावा इस कानून में अग्रिम जमानत का प्रावधान नहीं. इसका यह मतलब है कि किसी को भी ऐसे अपराध के शक पर हिरासत में लिया जा सकता है जिसके लिए जमानत की कोई उम्मीद नहीं, चूंकि उसके आतंकवादी गतिविधियों और समूहों से जुड़े होने के संभावित कारण और कमजोर सबूत हैं.

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यूएपीए से जुड़े कई मामलों, जैसे जहूर अहमद शाह वटाली और अनूप भुइयां मामला, में अदालतों ने आरोपियों की बहुत कम या बिल्कुल मदद नहीं की. अनूप भुइयां (समीक्षा) मामले ने तो एक बहुत खतरनाक मिसाल कायम की है. इसमें कहा गया है कि अगर कोई व्यक्ति किसी संगठन के गैरकानूनी संगठन माने जाने के बाद भी उसका सदस्य बना रहता है, तो उसे कानून के तहत दंड का सामना करना पड़ेगा.

पीएमएलए एक मनी-लॉन्ड्रिंग विरोधी कानून है और धारा 19 के तहत ईडी अधिकारियों को किसी को गिरफ्तार करने का अधिकार देता है. इसके तहत अगर ईडी के उच्च अधिकारियों के पास यह "विश्वास करने का कारण" है कि उसके पास मौजूद सबूतों के आधार पर कोई व्यक्ति मनी लॉन्ड्रिंग का दोषी है तो वे उसे हिरासत में ले सकते हैं. यानी ईडी द्वारा हिरासत में लिए जाने का खतरा हमेशा मौजूद रहता है, खासकर पीएमएलए की धारा 45 के तहत जमानत रिहाई के लिए कठोर शर्तों को देखते हुए.

हालांकि "विश्वास करने का कारण" जैसे शब्द इशारा करते हैं कि ईडी अधिकारियों को गिरफ्तारी की जरूरत का हमेशा आकलन करना चाहिए और इस तरह के विश्वास को तर्कसंगत होना चाहिए लेकिन ऐसा आम तौर पर होता नहीं. इसलिए अदालतों को इन मानदंडों के आधार पर आकलन करना चाहिए कि रिमांड सही है या नहीं.

बीएनएसएस में जमानत को और सख्त बना दिया गया है, और विशेष आपराधिक कानूनों के तहत भी जमानत हासिल करना करीब-करीब नामुमकिन है. अब समय आ गया है कि सतेंद्र कुमार अंतिल मामले में अदालत के फैसले का संज्ञान लिया जाए और भारत में जमानत कानून पेश किया जाए.

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संविधान और भारतीय आपराधिक कानूनों के सिद्धांतों पर कायम रहने के लिए जमानत कानून हमारी सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए, जहां जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार सबसे महत्वपूर्ण हों और इस बात पर ध्यान दिया जाए कि लोगों को हिरासत में रखना नहीं, उनकी रिहाई जरूरी है.

(कुमार कार्तिकेय एक लीगल रिसर्चर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)

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