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वैश्विक स्तर पर दक्षिणपंथी आंधियां चल रही हैं, जिसमें अन्य विचारधाराओं को अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. खासकर वामपंथ घनघोर आलोचना का शिकार है. यहां तक कि इसका चित्रण इतने नकारात्मक रूप में किया जा रहा है कि लगता है भारत की तमाम समस्याओं के लिए वामपंथ ही जिम्मेवार है.
दक्षिणपंथ का वामपंथ पर सबसे बड़ा प्रहार इतिहास लेखन को लेकर है. इनका कहना है कि वामपंथ ने भारतीय इतिहास लेखन को विकृत किया, जिससे आम-जनमानस में राष्ट्रीय भावना का विकास नहीं हो पाया. हालांकि भारतीय इतिहास लेखन में वामपंथ का बहुत बड़ा हस्तक्षेप और योगदान रहा है.
इससे राष्ट्रीय भावना की क्षति हुई है, इसे मानना इसलिए स्पष्ट रूप से गलत होगा, क्योंकि राष्ट्रीय भावना का निर्माण महज पाठ्य-पुस्तकों तक सीमित नहीं है. समाज और संस्कृति भारतीय चेतना के मूलभूत तत्व हैं और राष्ट्रवाद का प्राण भी इसी में बसता है. समाज का निर्माण व्यक्तियों से होता है और संस्कृति का निर्माण क्षेत्रीय अस्मिता से और यह भारत में बिना किसी प्रतिकार के सतत रूप से चलता आ रहा है. न तो समाज कमजोर हुआ और न संस्कृति नष्ट हुई.
जल-जंगल और जमीन- क्या इसका प्रश्न एक राष्ट्रवादी प्रश्न नहीं है! जल-जंगल और जमीन दक्षिणपंथियों की तरफ से वामपंथ का सबसे उपेक्षित विश्लेष्णात्मक पक्ष रहा है. जिसे कभी भी दक्षिणपंथियों ने न तो स्वीकारा और न सराहा. वामपंथ की सबसे बड़ी शक्ति का श्रोत है- ‘पावर टू पीपुल’. मतलब इसका सीधे जनता के मुद्दो से जुड़ना जिसका आमतौर पर दक्षिणपंथ में अभाव रहा है. वामपंथ ने भारतीय संस्कृति के विभिन्न आयाम जैसे लोक-कला और संगीत, लोक-संस्कृति, लोक-दर्शन, लोक-अर्थव्यवस्था आदि विषयों को बड़े प्रभावी तरीके से उठाया है. और इस तरह से राष्ट्र के भीतर मिट रहे समुदायों को पहचान दिलाने में सार्थक भूमिका निभाई है.
स्वतंत्रता के बाद जिस प्रकार विकास के नाम पर जनजातीय समाज का विस्थापन हुआ वह दक्षिणपंथियों के विमर्श का कभी कोई हिस्सा नहीं बन पाया, बल्कि कई बार तो वह इस राज्य प्रायोजित हिंसा का सक्रिय हिस्सा भी रहा. आप तमाम दक्षिणपंथी विचारकों पर विचार कर लें वे शायद ही कभी जनजातियों के मुद्दो पर मुखर हुए हैं. इतना ही नहीं इन्होने जनजातियों के जीवन दर्शन को बड़ी मुश्किल से एक जीवन दर्शन के रूप में स्वीकारा. आप इसे समाजविज्ञानी जीएस घुरये के लेखन में भी देख सकते हैं जिनके लिए जनजाति ‘पिछड़े हिन्दू’ से अधिक कुछ नहीं थे.
पूर्वोत्तर और अंडमान निकोबार को अगर छोड़ दिया जाये तो भारत के समस्त आदिवासी बहुल क्षेत्र किसी न किसी रूप में बहिष्करण के शिकार हैं. विकास के नाम पर विस्थापन और पुनर्वास के नाम पर धोखाधड़ी यह एक जगजाहिर तथ्य है.
सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि भारत में संसाधन बहुल क्षेत्र पर भारत के सबसे गरीब लोग निवास करते हैं. इन असहाय और निर्धन बना दिए गए लोगों की पीड़ा पर बोलने-लिखने वाले आमतौर पर वामपंथ से जुड़े लोग ही हैं. इसमें यह जरुरी नहीं कि जनजातियों के पास अपनी कोई आवाज ही नहीं है, लेकिन जनजातियों की अधिकतर आवाज वामपंथियों के आवाज से मेल खाती है. वामपंथ पूंजी की तानाशाही के विरुद्ध आवाज उठाते हैं. चुंकि पूंजी की तानाशाही संसाधन संपन्न क्षेत्र दिखती है.
संसाधन संपन्न वैसे क्षेत्र हैं जहां जल, खनिज और जमीन की प्रचूरता होती है. ऐसे क्षेत्र पूंजी के तानाशाहों और लुटेरों के लिए दोहन के माध्यम से अतिरिक्त पूंजी का निर्माण करने के लिए मनपसंद जगह होती है. और इन क्षेत्रों की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि यहाँ भारत के सबसे निर्दोष और सांस्कृतिक रूप से खुशहाल लोग रहा करते हैं. ये निर्दोष लोग बहुतायत में जनजाति हैं. जिनके पास पूंजी के तानाशाहों के विरुद्ध लड़ने के लिए आधुनिक तर्क और उपक्रम नहीं होते. इन परिस्थितियों में वामपंथ, जनजातियों की मदद करके शक्ति के असुंतलन को भरने का कार्य करते हैं. और इसके लिए वामपंथ जनजातियों की जनचेतना को जागृत करने का प्रयास करते हैं.
अब यह सबसे बड़ा प्रश्न है कि क्या माओवाद भी एक वामपंथ है? तो इसका उत्तर है नहीं. माओवाद वामपंथ नहीं है. दक्षिणपंथियों की सबसे बड़ी कमजोरी माओवाद को वामपंथ से जोड़कर देखने से है और संभवत वे ऐसा जानबूझकर करते हैं. भारत में विचारधाराओं के मूल्यांकन की सबसे बड़ी कमी विषयों के अतिवादी विश्लेषण से है.
ओड़िशा में अपने क्षेत्रकार्य के दौरान मैंने एक वामपंथी चिन्तक को यह स्पष्ट रूप से बोलते हुए सुना कि बालको कम्पनी की तरफ से पहाड़ पर विष्फोट से वहां स्थित नरसिंह भगवान के मंदिर में दरार आ गयी. हो सकता है कि एक आदर्श वामपंथी के तौर पर उनके ह्रदय में धार्मिक मान्यताओं के प्रति ज्यादा झुकाव न हो लेकिन गंधमरदान पर्वत को बचाने की लड़ाई में उस पर्वत से जुड़ी धार्मिक मान्यताएं जैसे हनुमान जी का संजीविनी बूटी लाने की कहानी या फिर नरसिंह देव का मंदिर का भी बचाव हुआ. इस पर्वत को बचाने के लिए वर्तमान के कोई चर्चित दक्षिणपंथी आगे नहीं आये.
इस तरह नियमगिरि में डोंगरिया कंध की देवभूमि और उनके देव ‘नियमराजा’ को खनन कम्पनी के घोषित विनाश से बचाने में बामपंथी विचारधारा के योगदान को हम नहीं नकार सकते. यहां भी आंदोलन जनजातीय परिवेश, नियमगिरि पर उनकी आर्थिक एवं धार्मिक निर्भरता केंद्र बिंदु में था. वामपंथी जितने डोंगरिया के परिवेश को लेकर चिंतित थे उतने ही उनके धार्मिक एवं सांस्कृतिक अस्तित्व और पहचान को लेकर भी. यहाँ वामपंथ प्रतिवाद की आवाज है.
व्यक्तिगत रूप से मैंने यह महसूस किया है कि भारतीय वामपंथ की तुलना में यहां का दक्षिणपंथ अधिक अपरिपक्व दर्शन है. अभी इसे और अधिक विचार के स्तर पर मजबूत होने की जरुरत है. इसमें समावेशी सोच की अभी पर्याप्त कमी देखी जा सकती है. भारत में दक्षिणपंथ का आदर्श कहां है? गो-गंगा और गायत्री की सबसे बड़ी दुर्दशा तो इनके धार्मिक आस्था के केन्द्रों में ही है.
इसी तरह संकीर्ण स्थानों पर गो-पालन करने के कारण गायों को इतनी छोटी रस्सियों से बांधा जाता है कि वो अपना गर्दन ऊपर नहीं उठा सकती हैं. बारिश के दिनों में सैकड़ों गायें बिजली के खम्बों से करंट का शिकार होकर मर जाती है. और यही हाल गंगा का भी है. नमामि गंगे परियोजना में क्या साफ किया जा रहा है कहने की कोई जरुरत नहीं. दक्षिणपंथियों को वामपंथ नाम का एक झुनझुना मिल गया है जिसे हर समस्या के लिए जिम्मेदार ठहराकर वे अपना वजूद बचाते रहते हैं.
वामपंथ की आलोचना तो की जा सकती है लेकिन इसे नकारा नहीं जा सकता. इसके योगदान वहां तक हैं जहां तक आधुनिक पूंजी से पोषित दक्षिणपंथ न पहुंच सकते हैं और न पहुंचना चाहते हैं. राष्ट्रीयता आमलोगों से निकलती है. लोक-दर्शन ही राष्ट्रीयता का दर्शन है और इस मामले में वामपंथ अधिक लोकोन्मुखी है. इसमें अधिक राष्ट्रीय-चेतना के भाव हैं.
आभार: इस लेखन में वैचारिक सहयोग के लिए अपने मित्र केयूर पाठक का आभार.
(इस आर्टिकल में लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इसमें सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 14 Nov 2022,10:49 AM IST