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समकालीन भारतीय कविता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर केदारनाथ सिंह का 19 मार्च, 2018 को निधन हो गया. उन्हें 1989 में साहित्य अकादमी और 2013 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.
नवंबर 1934 में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में जन्मे केदारनाथ सिंह ने अपना शैक्षिक कैरियर एक स्थानीय कॉलेज से शुरू किया था. हाल ही प्रकाशित इंडिया टुडे के साहित्य वार्षिकांक 2017-18 में उन्होंने स्वीकार किया था कि वे एक सामान्य सी जगह पर पढ़ा रहे थे.
उन्हें नामवर सिंह जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी लेकर आए थे. इसे उनकी विनम्रता भी कह सकते हैं कि वे खुले तौर पर यह स्वीकार करने का साहस रखते थे. इस विनम्रता के साथ साहित्य में उनकी कभी भी नजरंदाज न की जा सकने वाली मौजूदगी थी.
वे साहित्य को एक राष्ट्रीय कल्पना का हिस्सा मानते थे, जिसमें देश के कोने-अंतरे शामिल थे. उसमें हर आवाज शामिल थी. “साहित्य की चिंताओं को राष्ट्रीय होना होगा. उसे उन चिंताओं को संबोधित करना होगा जो देश के अलग-अलग कोनों से उठ रही हैं.”
उन्होंने यह बातें उस समय कही थी, जब वे ‘उजास- हमारे समय मे कविता’ नामक एक आयोजन में इलाहाबाद में 20 और 21 जून 2015 को बोल रहे थे. इस आयोजन में पूरे देश से हिंदी कविता के कवि और श्रोता आए थे और मुझे इस कार्यक्रम की प्रेस रिलीज बनाने की जिम्मेदारी दी गयी थी.
मुकुटधर पांडेय का हवाला देते हुए इस कार्यक्रम का उद्घाटन भाषण देते हुए केदारनाथ सिंह ने आगे कहा था कि कविता जीवन में उत्पन्न हुए संकटों की पुकार का जवाब है. वास्तव में कविता को जीवन को प्रस्तुत करने वाला बनना होगा.
अपने पूरे रचनासमय में उनकी कविता जीवन को और उसे बनाने वाली भाषा के पक्ष में खड़ी रही. वे कविता में नामालूम चीजों को बहुत ही नामालूम तरीके से ले आते थे, आहिस्ता से. फिर वे उनकी कविता का हिस्सा हो जाती थीं. उनकी प्रतिनिधि कविताओं के संकलन की पहली ही कविता है:
जैसे चींटियां लौटती हैं
बिलों में
कठफोड़वा लौटता है
काठ के पास
वायुयान लौटते हैं एक के बाद एक
लाल आसमान में डैने पसारे हुए
हवाई-अड्डे की ओर
ओ मेरी भाषा
मैं लौटता हूँ तुम में
जब चुप रहते-रहते
अकड़ जाती है मेरी जीभ
दुखने लगती है
मेरी आत्मा
भाषा उनके लिए अपनी आत्मा से मिलने की जुगत थी, तो उसे अनावृत करने का उपाय भी. उन्होंने सरल लेकिन उदात्त तरीके से हिंदी कविता पर लगातार लिखा. उनकी कविता जितना अपने पाठकों को आकर्षित करती थी, उनके जीवन में शामिल हो जाती थी, उतनी ही वह आलोचकों के लिए चुनौतीपूर्ण थी. पहली नजर में काफी सरल लगने वाली केदारनाथ सिंह की कविताएं एक पॉलिटिकल टोन लिए होती थीं. उनकी कविता पानी में घिरे हुए लोग जितनी बाढ़ की विभीषिका के बारे में बात करती है, उतनी ही वह लोगों की जिजीविषा और उनकी राजनीति के बारे में बात करती है:
मगर पानी में घिरे हुए लोग
शिकायत नहीं करते
वे हर कीमत पर अपनी चिलम के छेद में
कहीं न कहीं बचा रखते हैं
थोड़ी-सी आग
जैसा कवियों की आदत होती है कि वे सूरज-चांद-सितारों की बात करते हैं. लेकिन कुछ और कवि हैं जो इनसे प्यार करते हैं. उनकी कविता में यह प्यार बार-बार उमग आता है. केदारनाथ सिंह भी ऐसे ही हैं.
नागर्जुन, और थोड़ा-बहुत त्रिलोचन के बाद वे एक विलक्षण कवि हैं, जो सृष्टि को उसकी पूर्ण अर्थवत्ता के साथ अपनी कविता में लाते हैं. उनके लिए मनुष्य कोई इतना ज्यादा महान नहीं है कि उसके आगे कठफोड़वा या चींटी को भुला दिया जाय. मनुष्य का घर जिस पृथ्वी पर है, जिसे वह प्यार करता है:
एक दिन
हंसी-हंसी में
उसने पृथ्वी पर खींच दी
एक गोल-सी लकीर
और कहा – यह तुम्हारा घर है
मैंने कहा –
ठीक, अब मैं यहीं रहूंगा.
लेकिन जब चला-चली की बेला आएगी, तो वह इन सबको समेटता हुआ जाएगा. उसे इस धरती के बचे रहने में विश्वास है. अगर कहीं नहीं तो कम से कम उसकी हड्डी में ही रहेगी :
मुझे विश्वास है
यह पृथ्वी रहेगी
यदि और कहीं नहीं तो मेरी हड्डियों में
यह रहेगी जैसे पेड़ के तने में
रहते हैं दीमक
जैसे दाने में रह लेता है घुन
यह रहेगी प्रलय के बाद भी मेरे अन्दर
यदि और कहीं नहीं तो मेरी जबान
और मेरी नश्वरता में
यह रहेगी
केदारनाथ सिंह ने बहुत ही खुबसूरत प्रेम कविताएं लिखीं, लेकिन उनके लिए प्रेयसी अलग से कोई उपादान नहीं है बल्कि वह इसी सृष्टि में शामिल है:
तुम हिलीं
जैसे हिलती है पत्ती
जैसे लालटेन के शीशे में
कांपती हो बत्ती !
तुमने छुआ
जैसे धूप में धीरे- धीरे
उड़ता है भुआ.
नितांत मनो-दैहिक संदर्भों में वे बहुत ही कम शब्दों में बात कह जाते है. वे कहीं भी लाउड नहीं होते हैं. अपनी भौतिक काया की तरह वे कविताओं में ज्यादा स्थान नहीं घेरते हैं लेकिन उनकी कल्पना और बिम्ब पाठक की चेतना में टंके रह जाते हैं. हाथ पर शायद ही इतनी छोटी और खूबसूरत किसी और ने लिखी हो :
उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए.
केदारनाथ सिंह एक उम्दा कवि होने के साथ-साथ बेहतरीन शोधकर्ता रहे हैं. हिंदी कविता के बिंब विधान पर जब उनका काम आया था तो उसने आलोचकों और विद्यार्थियों का ध्यान खींचा था. वे विंब की ताकत जानते थे. वे जानते थे कि मनुष्य अपने कल्पना लोक में कितना उर्वर, राजनीतिक और फितनागर हो सकता है.
उन्होंने भारतीय साहित्य में बाघ की उपस्थिति पर सोचा और बाघ जैसी कालजयी कविता लिखी. इस कविता के बारे में उन्होंने खुद ही कहा है कि बाघ हमारे लिए आज भी हवा-पानी की तरह प्राकृतिक सत्ता है, जिसके होने साथ हमारे अपने होने का भवितव्य जुड़ा हुआ है. इस प्राकृतिक बाघ के साथ उसकी सारी दुर्लबता के बावजूद-मनुष्य का एक ज्यादा गहरा रिश्ता है, जो अपने भौतिक रूप में जितना आदिम है, मिथकीय रूप में उतना ही समकालीन. बाघ इसी समकालीनता को हिंदी कविता के पाठक के सामने रखती है-
कथाओं से भरे इस देश में
मैं भी एक कथा हूं
एक कथा है बाघ भी
इसलिए कई बार
जब उसे छिपने को नहीं मिलती
कोई ठीक-ठाक जगह
तो वह धीरे से उठता है
और जाकर बैठ जाता है
किसी कथा की ओट में
( इस आर्टिकल के लेखक रमाशंकर सिंह भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान के फेलो हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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