मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019भारत में टू फिंगर टेस्ट जारी है, क्योंकि वर्जिनिटी को लेकर हम अब भी भ्रम में हैं

भारत में टू फिंगर टेस्ट जारी है, क्योंकि वर्जिनिटी को लेकर हम अब भी भ्रम में हैं

Two Finger Test: ये मानकर चलना गलत है कि सेक्सुएली एक्टिव औरतों के साथ यौन उत्पीड़न नहीं हो सकता

माशा
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>भारत में Two Finger Test जारी है, क्योंकि वर्जिनिटी को लेकर हम अब भी भ्रम में हैं</p></div>
i

भारत में Two Finger Test जारी है, क्योंकि वर्जिनिटी को लेकर हम अब भी भ्रम में हैं

(फोटो- Altered By Quint)

advertisement

सुप्रीम कोर्ट ने रेप के मामलों में टू फिंगर टेस्ट (Two Finger Test) के इस्तेमाल पर रोक लगाई है और कहा है कि ऐसे टेस्ट करने वालों को दुर्व्यवहार का दोषी ठहराया जाएगा. यूं इस मामले पर अदालती फैसलों की भरमार है. इसी साल अप्रैल में मद्रास हाई कोर्ट की मदुरै बेंच ने भी तमिलनाडु सरकार को इस टेस्ट पर प्रतिबंध लगाने का निर्देश दिया था. सवाल यह है कि जिस प्रैक्टिस को सुप्रीम कोर्ट 2013 में ही असंवैधानिक बता चुका है, उसे अब तक क्यों जारी रखा गया है. क्या अदालती फैसलों को लागू करना जरूरी नहीं है?

टू फिंगर टेस्ट और औरत की प्राइवेसी

टू फिंगर टेस्ट एक ऐसी मेडिकल जांच होती है, जिसमें रेप सर्वाइवर के वेजाइना में एक या दो उंगलियां डालकर यह देखा जाता है कि उसके हाइमन की हालत क्या है और वेजाइन में कितना ढीलापन है. इस टेस्ट के जरिए यह पता लगाने की कोशिश की जाती है कि क्या रेप सर्वाइवर सेक्सुअल संबंधों की आदी है. 

सुप्रीम कोर्ट ने 2013 मे जब इस टेस्ट को बैन किया था तो उसकी वजह यह थी कि यह न सिर्फ अवैज्ञानिक है, बल्कि टेस्ट रेप सर्वाइवर को और उत्पीड़ित भी करता है. यह उसकी गरिमा को ठेस पहुंचाता है और उसकी प्राइवेसी का उल्लंघन करता है. रेप सर्वाइवर की सेक्सुल हिस्ट्री वैसे भी रेप की जांच में कोई मायने नहीं रखती क्योंकि सेक्सुअल हिंसा का सबसे बड़ा कारण कंन्सेट यानी सहमति का न होना है.

लेकिन ऐसा नहीं होता. जन साहस नाम की एक सोशल डेवलपमेंट सोसायटी ने 2018 में 200 ग्रुप रेप ट्रायल्स के रिकॉर्ड्स का अध्ययन किया था और उनमें से 80% मामलों में टू फिंगर टेस्ट किए गए थे. दक्षिण एशिया के बांग्लादेश, भूटान, मालदीव, नेपाल और श्रीलंका जैसे देशों में तो रेप सर्वाइवर की सेक्सुअल हिस्ट्री के विवरणों को सबूत के तौर पर पेश करने की भी इजाजत है.

और उसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं

टू फिंगर टेस्ट अवैज्ञानिक है क्योंकि सबसे पहले तो इसे वर्जिनिटी टेस्ट कहा जाता है, या पर वेजिनियम जांच. हाइमेन मौजूद है या नहीं, यह देखने के लिए जांच की जाती है. हाइमन जैसी पतली छिल्ली है तो माना जाता है कि रेप सर्वाइवर वर्जिन है. और यही मिथ है. इस छिल्ली का टूटना, रेप सर्वाइवर के सेक्सुअली एक्टिव होने का सबूत नहीं है. यह छिल्ली किसी भी वजह से टूट सकती है, जैसे स्पोर्ट्स में हिस्सा लेना, भागना दौड़ना, साइकिल चलाना, घुड़सवारी या टैंपोन्स का इस्तेमाल करना.

दिक्कत यह है कि रेप और सेक्सुएलिटी को एक साथ जोड़कर देखा जाता है. यह मानकर चला जाता है कि सेक्सुएली एक्टिव औरतों के साथ यौन उत्पीड़न नहीं हो सकता. चूंकि वर्जिनिटी यानी कुंवारापन भारत में गैर शादीशुदा महिलाओं का सबसे पहला गुण माना जाता है. लेकिन इस टेस्ट की एक दिक्कत यह भी थी कि शादीशुदा महिलाओं के साथ रेप की स्थिति में इस जांच का क्या मायने था?

इसीलिए बहुत से संगठनों ने इस टेस्ट को बंद करने के लिए याचिकाएं दायर कीं. निर्भया रेप केस के बाद जस्टिस वर्मा कमिटी ने भी इसका विरोध किया. इसके बाद 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस टेस्ट को वैज्ञानिक नहीं माना जाएगा, और इस बैन कर दिया.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

बैन का मतलब आखिर क्या होता है

यहां मुद्दा यह है कि बैन का मतलब, यह नहीं कि कोई कार्रवाई दंडनीय अपराध या गैर कानूनी है. बैन का मतलब यह है कि टू फिंगर टेस्ट के निष्कर्ष को अदालत में पेश नहीं किया जा सकता, यानी वह सबूत नहीं माना जाएगा. इसीलिए ऐसे टेस्ट होते रहे हैं, और ऐसे मामलों में प्रॉसीक्यूशन को यह साबित करना होता है कि जो टेस्ट किया गया है, वह अदालती आदेश की अवमानना है. ऐसे में अदालतों को भी सतर्क रहने की जरूरत होती है. हां, सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले से ऐसे टेस्ट करने वालों को भी सजा मिलनी आसान होगी.

मेडिकल प्रैक्टीशनर्स को भी टू फिंगर टेस्ट के बेबुनियाद होने के बारे में बताया जाए

मई 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने जब बैन वाला फैसला सुनाया था, तो यह भी कहा था कि सरकारों को यौन उत्पीड़न की पुष्टि करने के लिए बेहतर जांच प्रक्रियाओं का इस्तेमाल करना चाहिए.

 इसके बाद स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने रेप सर्वाइवर्स की मेडिकल और लीगल मदद करने वालों के लिए दिशानिर्देश जारी किए थे- गाइडलाइन्स एंड प्रोटोकॉल्स-मेडिको लीगल केयर फॉर सर्वाइवर्स/विक्टिम्स ऑफ सेक्सुअल वॉयलेंस. चूंकि स्वास्थ्य राज्य सूची में आने वाला विषय है तो यह राज्य सरकारों का भी काम है कि वे देखें कि इन दिशानिर्देशों का पालन हो रहा है या नहीं.

इसके लिए सबसे जरूरी यह है कि मेडिकल प्रैक्टीशनर्स को नई मेडिकल प्रक्रियाओं की जानकारी हो.  2020 में राष्ट्रीय मेडिकल कमीशन की एक एक्सपर्ट कमिटी ने मेडिकल शिक्षा संबंधी सुधारों पर सुझाव दिए थे. उसमें एमबीबीएस के पाठ्यक्रम में यौन उत्पीड़न के मौजूदा मेडिकल जांच प्रोटोकॉल में वर्जिनिटी टेस्ट हटाने को कहा था. फिलहाल उसमें हाइमन के मेडिकोलीगल महत्व और वर्जिनिटी को स्पष्ट करने जैसा मैटीरियल मौजूद है.

कमीशन ने फॉरेंसिक साइंस में बदलाव करने का भी सुझाव दिया था और कहा था कि स्टूडेंट्स को यह पढ़ाया जाना चाहिए कि टू फिंगर टेस्ट का कोई आधार नहीं है. चूंकि यह सब अब भी एमबीबीएस की किताबों में लिखा हुआ है तो मैडिकल प्रैक्टीशनर्स भी इस पर सवाल खड़े नहीं कर पाते.

होना यह चाहिए कि मेडिकल जांच की नई प्रक्रियाओं का पता लगाया जाए. विभिन्न देशों की कार्य पद्धतियों को समझा जाए. जैसे अमेरिका में सेक्सुअल असॉल्ट नर्स एग्जामिनर्स यानी सेन होती हैं. सेन ऐसी नर्सें होती हैं जिन्हें रेप सर्वाइवर्स के टेस्ट करने के लिए खास ट्रेनिंग दी जाती है. इसी तरह ऑस्ट्रिया, जर्मनी, आयरलैंड, ग्रीस, पुर्तगाल, पोलैंड, स्लोवेनिया और रूमानिया में सर्वाइवर्स की जांच के लिए अलग से प्रशिक्षण दिया जाता है. आयरलैंड में सेक्सुअल असॉल्ट ट्रीटमेंट यूनिट्स हैं. ऑस्ट्रिया, लक्समबर्ग और जर्मनी में चोट वगैरह के फोटोग्राफिक सबूत भी रखे जाते हैं.

रेप सर्वाइवर्स के भी हक हैं

यौन उत्पीड़न का सदमा अपने आप में बहुत बड़ा होता है. अक्सर रेप सर्वाइवर्स को यह पता नहीं होता कि अपराध की रिपोर्ट करना कितना जरूरी है और उनकी मेडिकल जांच कैसे की जाएगी. जैसा कि डॉ. मोहम्मद कादेर मीरन ने अपनी किताब पेशेंट्स राइट्स इन इंडिया में लिखा है, रेप सर्वाइवर्स से सबूत ऐसे जमा किए जाने चाहिए जो उन्हें परेशान न करें. इसके अलावा वह जांच मरीज की सहमति से की जानी चाहिए. 

अगर रेप सर्वाइवर नाबालिग है तो उसके माता-पिता से मंजूरी ली जानी चाहिए. उस प्रक्रिया के बारे में मरीज को ठीक से बताया जाना चाहिए. अगर मरीज किसी वजह से इनकार करता है, तो भी मेडिकल प्रैक्टीशनर उसका इलाज करने से इनकार नहीं कर सकता. अस्पताल और डॉक्टर को यौन हिंसा की खबर पुलिस को देनी चाहिए, लेकिन रेप सर्वाइवर या उसके माता-पिता की मंजूरी से.

मंजूरी या कन्सेंट मेडिकल एथिक्स का सबसे बड़ा सिद्धांत है. येल इंटरडिस्लिपनरी सेंटर फॉर बायोएथिक्स की बायेएथिस्ट लोरी ब्रूस ने अपने पेपर अ पॉट इग्नोर्ड बॉयल्स ऑन मे लिखा है कि रेप के बाद मुकदमों में जिस देह की बात की जाती है, वह मरीजों की होती है.

लेकिन उस पर मरीज की एजेंसी नहीं रह जाती- वह वकीलों, पुलिस और मेडिकल प्रैक्टीशनर्स का खिलौना बन जाती है. इस कन्सेंट की धज्जियां पहले हमलावर उड़ाता है. फिर कानूनी और पुलिसिया प्रक्रिया. जिसे ह्यूमन राइट्स वॉच जैसे संगठन वॉकिंग टॉकिंग क्राइम सीन कहते हैं. हां, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद रेप सर्वाइवर्स को कुछ राहत मिल सकती है. लेकिन उनके लिए यह राहत भी बहुत बड़ी है कि उनके अपराधी अच्छे आचरण के नाम पर जेल से छोड़े न जाएं. उन्हें इंसाफ के लिए बार राज्य और जगह न बदलनी पड़े. मुकदमा उनके अपने राज्य से बाहर न ले जाना पड़े. मीडिया यह सवाल कर पाए कि उन्हें उनके संघर्ष में अकेला क्यों छोड़ दिया?

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: undefined

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT