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दो महीने से पूरी दुनिया कोरोना की मार झेल रही है. इससे बचने के लिए दुनिया के कई देशों में लॉकडाउन किया गया. भारत में भी मोदी सरकार अबतक चार फेज में लॉकडाउन कर चुकी है. एक तरफ न्यूजीलैंड जैसे देश जहां कोरोना जैसी महामारी से पूरी तरह मुक्त हो गए हैं, वही भारत में नए मामले रुकने का नाम ही नहीं ले रहे हैं. जहां दुनिया के दूसरे देश की सरकारों ने लॉकडाउन के बाद कि स्थितियों से निबटने के लिए तैयारियां कि वहीं भारत में सरकार ने कभी थाली पिटवाई, कभी मोमबत्ती जलवाई तो कभी हेलिकॉप्टर से फूल बरसाए.
पूरी दुनिया में मूर्खता का ऐसा सार्वजनिक प्रदर्शन कहीं नहीं हुआ होगा. जब दुनिया इस महामारी से लड़ रही है, उसी समय विचार भी चल रहा है कि कोरोना महामारी से उबरने के बाद दुनिया में बदलाव आएगा. दुनिया के तमाम देशों में अगर इस तरह कि चर्चा हो रही है तो कोई वजह जरूर है. भारत में कोई बदलाव के आसार नहीं दिखते. दुनिया में ऐसा कोई एक देश भी नहीं है जब इस महामारी में सब एकजुट होकर ना लड़ रहे हों. भारत में ऐसा देखने को नहीं मिल रहा है. दलितों, मुसलमानों के ऊपर हमले तेज हुए. इस तरह से सामजिक एवं साम्प्रदायिक कोरोना का जहरीला असर कम नहीं हुआ, बल्कि बढ़ा ही है.
इस दौर में भी सरकार सुप्रीम कोर्ट के साथ मिलकर सांवैधानिक आरक्षण पर हमले कर रही है. सुप्रीम कोर्ट का आरक्षण विरोधी फैसला उस समय आया जब गरीब और मजदूर भूखे प्यासे जगह-जगह पर फंसे हैं. कोरोना महामारी के समय में उनकी समस्या के ऊपर सुनवाई करनी चाहिए था, लेकिन जब दलितों- आदिवासियों- पिछड़ों के आरक्षण का मामला आता है तो न्यायपालिका अतिरिक्त सक्रियता दिखाती है. अभी कोरोना महासंकट से जूझ रहे करोड़ों लोगों की समस्या दूर करनी चाहिए थी या एक पत्रकार को बेल देना? देश में इस संवेदनहीनता पर दबी जुबान में बहुत चर्चा है. जब देश असाधारण हालात से गुजर रहा हो तो भी गैर जरूरी विषय पर न्यायपालिका की तत्परता पर लोग चकित हैं. 22 अप्रैल को पांच जजों कि पीठ ने फैसला दिया कि जो दलित क्रीमी लेयर में आ गए हैं, उन्हें सूची से बाहर करने पर सरकार विचार करे. इन परिस्थितियों को देखते हुए क्या न्यायपालिका से निष्पक्षता की उम्मीद की जा सकती है.
ऐसे वक्त में बाबा साहब डॉ अम्बेडकर कि नजर में न्यायपालिका के चरित्र को समझना फिर से जरूरी हो गया है. अम्बेडकर ने सन 1936 में बाम्बे में ग्राम पंचायत की सभा में दिए अपने चर्चित भाषण में कहा था –
अंबेडकर ने आगे कहा था - 'ब्राह्मण बनाम बहुजन हित टकराव की स्थिति में ब्राह्मण कभी जज नहीं होता है, हमेशा पार्टी ही होता है. उसे फैसला करने का अधिकार देना न्याय की हत्या करना है. उसके फैसले बहुसंख्यक समाज के लिए वैसे ही अपमान के निशान है जैसे मनु समृति के विधान. एक आदमी जो खुद उसी वर्ग से है जिसने केस फाइल की है , क्या वो अपने समाज से प्रभावित नहीं हो सकता है? यहां सीधे-सीधे ब्राह्मणों का कॉनफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट शामिल है .'
जब पूरा देश सोशल मीडिया हो या प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया या अन्य कोई माध्यम लोगों की जान बचाने का इलाज आदि में जुटे हुए हों, तो उसका फायदा उठाकर सरकार दलित –पिछड़ा –आदिवासी विरोधी काम कर रही है. भाजपा शासित हर राज्य में बहुजनों की हकमारी जारी है. जबकि इस वक्त सरकार को कोरोना से लड़ने की तैयारी में लगना था. कोरोना महामारी से निबटने की जिस तरह की लचर तैयारी नजर आती है, उससे इतना तो स्पष्ट है कि सरकार की नजर में लोगों की जान की कीमत कुछ नहीं है. दुनिया का कोई भी देश अपने नागरिकों को इस तरह सड़क पर मरने के लिए नहीं छोड़ देता है. रेल की पटरियों से दर्जनों लोग कटकर मर गए, चौबीस घंटे में पहुंचने वाली ट्रेन नब्बे घंटे में पहुंच रही है, चालीस ट्रेनें तो रास्ता भटककर मजदूरों को कई दिनों से भारत दर्शन करवा रही हैं.
एक शंका यह भी है, चूंकि सरकार को पता है कि लगभग सभी मजदूर दलित-आदिवासी-पिछड़े-मुसलमान हैं इसलिए इनके साथ कीड़े मकोड़ों का व्यवहार किया जा रहा है. मोदी सरकार इवेंट मैनेजमेंट पर टिकी हुई सरकार है. शुरूआती दौर में थाली –ताली बजवाकर काम चला लेंगे लेकिन स्थिति इतनी भयंकर हो जाएगी इसका अनुमान नहीं था. देश में मजूदरों की बदतर हालत, गलत नीतियों से बदहाल अर्थव्यवस्था और सरकार की अधूरी तैयारी से किए गए लॉकडाउन से नागरिकों में उपजी हताशा से परेशान देश अब अपने पड़ोसी देशों से भी परेशान है. पीएम मोदी वास्कोडिगामा बनकर पूरी दुनिया का चक्कर लगाते रहे और इनकी इवेंट मैनेजमेंट टीम बताती रही कि सरकार की विदेश नीति कमाल की है. पर इसकी भी भद्द पिट गयी.
कितना अच्छा होता कि कोरोना महामारी से सीख लिया जाता और देश में एक व्यापक सामजिक परिवर्तन हो पाता. लगभग डेढ़ महीने से लोग घरों मे बंद हैं. सोचने-समझने और पढ़ने-लिखने का मौका सबको मिला होगा लेकिन सदुपयोग होते हुए नहीं दिख रहा है. आज भी ऐसी घटनाएं सामने आ रही हैं कि दलित होने की वजह से उनके हाथ का खाना नहीं खाया या मुस्लिम विक्रेता होने की वजह से सब्जी आदि नहीं खरीद रहे हैं. भेदभाव करने का कोई मौका लोग ऐसे समय में भी नहीं छोड़ रहे हैं.
मीडिया का एक अद्भुत चरित्र भारत में दिखता है एक तरफ दुनिया के दूसरे देशों में पत्रकार सत्ता से सवाल पूछते हैं तो भारत में पत्रकार विपक्ष से सवाल पूछते हैं. इस हास्यास्पद काम से मीडिया अब विश्वसनीय नहीं रह गया है.
हमारे लोग चर्चा करने में लगे हुए हैं कि कैसे दुनिया चीन की वस्तुओं का बहिस्कार करेगी, अमरीकी नीति क्या होगी आदि आदि. अंतर्राष्ट्रीय मसलों और ट्रंप पर चर्चा तो कर रहे हैं, लेकिन प्रश्न यह है कि क्या हम भारतीय लोग अपने ही देश और समाज की स्थिति कि दशा पर कुछ सोच या कर पा रहे हैं? सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न यह है . कोरोना के बाद जब दुनिया बदल रही होगी तो हम उसी दकियानुस्सी यथास्थितिवादी समाज में रह जाएंगे. जब सामाजिक बदलाव ही होता नहीं दिख रहा तो राजनितिक बदलाव होगा, इसकी कोई संभावना नहीं दिखती है.
{लेखक डॉ उदित राज परिसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष, पूर्व लोकसभा सदस्य और वर्तमान में कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं}
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Published: 28 May 2020,10:25 PM IST