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इस समय लाखों लोग दिल्ली , अहमदाबाद, सूरत , मुंबई और छोटे-बड़े शहरों में सिर पर गठरी या झोला लेकर चलते नजर आएंगे. शौक से तो अपने घरों को छोड़कर बाहर मजदूरी करने नहीं आए थे. जरुर कोई मजबूरी है. सबसे कम जमीन दलितों के पास है उसके बाद आदिवासी फिर पिछड़े आते हैं. छोटी- मोटी किसानी भी होती तो अपने गांव में गुजरा कर लेते .
कोरोना महामारी के समय दुनिया की किसी सरकार ने आर्थिक नीति में बदलाव नहीं किया बल्कि सभी वर्गों को जितना हो सके नकदी देकर मदद करने का प्रयास किया. जब 20 लाख करोड़ पैकेज की घोषणा हुई, शुरू में लगा कि मजदूरों को बड़ी राहत मिलने वाली है. जब अर्थशास्त्रियों ने पैकेज का रेशा- रेशा उधेड़ा तो पता लगा एक प्रतिशत से भी कम राहत पैकेज है और शेष कर्ज आदि के रूप में घोषणा की गयी है.
यह भी संभव है कि मजदूरों को सरकार ने पूरे मन से तंत्र को लगा कर के घर पहुंचाने का काम नहीं किया क्योंकि ये दलित-पिछड़े हैं. भारत सरकार का तंत्र इतना मजबूत है कि चाहे तो इनको घरों तक पहुंचा सकती है . पूर्व सेना अधिकारी का भी बयान आया है कि हमलोग इंतजार कर रहे हैं कि मदद करने का मौका मिले. इस वीभत्स समस्या से निबटने के लिए सेना को लगा दिया जाना चाहिए. 12617 ट्रेन हैं, यानी 2.3 करोड़ यात्री प्रतिदिन ढोने की क्षमता है, अगर इच्छा शक्ति और इमानदारी से उनका युद्धस्तर पर ट्रेन चलाई जाती होता कब का मजदूर वतन वापसी कर गए होते.
23 मार्च की रात को लॉकडाउन घोषित किया गया और केवल चार घंटे का समय दिया गया. हुक्मरानों को क्या यह पता नहीं था कि जो मजदूर पंजाब, दिल्ली, हरियाणा, सूरत, मुंबई आदि देश के अलग हिस्सों में काम कर रहे हैं, खेतों में काम कर रहे हैं. वो बाहर पम्पिंग सेट या खेत खलिहान में ही सो जाते हैं . तमाम रिक्शाचालक, फैक्ट्री मजदूर, दुकानों एवं रेस्टोरेंट आदि पर काम करने वाले भी वही पर सो जाते हैं. रेलवे प्लेटफोर्म या पुल के आसपास इधर-उधर लाखों लोग सोते हुए मिल जाते हैं. इनके लिए लॉक डाउन का क्या मतलब है? कुछ पैसे इनके पास थे , उससे कुछ गुजारा किया, कुछ समाज के लोगों ने मदद की और सरकार की तरफ से भी सहयोग दिया गया. लेकिन अंत में आते-आते खाना भी मिलना बंद हो गया और रहने की समस्या भी बड़ी होती गयी. ऐसे में सैकड़ों हजारों किलोमीटर की दूरी पैदल ही तय करने को मजबूर हुए. 27-28 मार्च को पूरी तस्वीर उभर कर आ गयी थी, जब यूपी और दिल्ली कि सीमा पर लाखों मजदूर इकठ्ठा हुए थे. उसके बाद दबाव और समझा बुझाकर उनको वापस लाया गया . कुछ समय के लिए ये मजदूर रुक तो गए लेकिन चोरी छिपे पैदल, रेल की पटरी पर चलकर और गांव के अंदर से रात में निकल गए.
पीएम केयर फण्ड खुला, इसमें हजारों करोड़ जमा हुए, विश्व बैंक से सहयोग मिला, सरकार के पास तो पैसा है ही. उसका थोड़ा सा हिस्सा भी इस्तेमाल किया गया होता तो ट्रेनों और बसों से इनको पहुंचा दिया गया होता. जो भी कारण रहा हो मई की शुरुआत में इनको भेजने का निर्णय लिया गया .
प्रक्रिया इतनी जटिल बनाई कि मजदूर के लिए तो लगभग असंभव था. मजदूरों से ऐप डाउनलोड और रजिस्ट्रेशन के लिए कहा गया. हेल्पलाइन पर कोई फोन उठाने वाला नहीं है, फिर भी दूसरों से सहारा लेकर कुछ पैसे खिलाकर इस प्रक्रिया को कुछ मजदूरों ने जैसे तैसे अंजाम दिया लेकिन ट्रेन के टिकट की समस्या आ खड़ी हुई. 2 मई को रेलवे ने सर्कुलर जारी किया कि राज्य सरकार मजदूरों से पैसा लेकर टिकट दे . बहुतों के पास तो था नहीं, पर इधर-उधर से जुगाड़ करके खरीद लिया. जब कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने कहा कि कांग्रेस उनके टिकट का भार उठाएगी तो बहुत बड़ा विवाद शुरू हो गया . इसके बावजूद भी सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगी , लगता है जैसे कि मजदूरों से सरकार बदला ले रही हो.
आर्थिक मदद करने के बजाय निजीकरण शुरू कर दिया . हवाई अड्डे का निजीकरण, सैन्य क्षेत्र में निगमीकरण का मतलब आखिरकार निजीकरण और सार्वजनिक उपक्रम की सभी कंपनियों में निजीकरण की इजाजत. कोयला खदान के निजीकरण से दलित-आदिवासी-पिछड़ों की संगठित क्षेत्र की नौकरियां खत्म हो जाएंगी. सरकारी क्षेत्र में ही आरक्षण के जरिए नौकरी मिलती थी, वो रास्ता भी बंद कर दिया गया है. उत्तर प्रदेश और बिहार में मजदूर जमींदारों एवं साहूकारों के यहां काम करने के लिए मजबूर होंगे, जहां जात-पात बढ़ेगा. शहरों कि तुलना में वेतन भी कम होगा, आमदनी भी कम होगी. दुनिया के और देशों में कोरोना से राहत के लिए मजदूरों के बैंक अकाउंट में सीधे राहत पॅकेज का 30.7 फीसदी दिया गया जबकि भारत में यह 0.7 फीसदी था . हालात और सवर्णवादी सत्ता, दोनों की मार से सबसे ज्यादा प्रभावित दलित, आदिवासी और पिछड़े ही होंगे.
( लेखक डॉ उदित राज पूर्व लोकसभा सदस्य और वर्तमान में कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं )
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Published: 21 May 2020,12:42 AM IST