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अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन और अमेरिकी इस बार सही साबित हुए. वे लोग पिछले दो महीने से चेतावनी दे रहे थे कि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन(vladimir putin) यूक्रेन पर हमला करने की योजना बना रहे हैं. बहुत से देश, जिसमें फ्रांस, जर्मनी, चीन और भारत भी शामिल है, यह मानते थे, या मानना चाहते थे कि रूस गीदड़ भभकी दे रहा है और असल में ऐसा नहीं करेगा.अब, वे हालात से निपटने के लिए हाथ-पैर मार रहे हैं.
एक बात जो आप रूसियों के बारे में कह सकते हैं, वह यह है कि वे अपने मकसद के पक्के होते हैं. राष्ट्रपति पुतिन ने बृहस्पतिवार को राष्ट्र के नाम अपने संदेश में साफ कहा था.
चूंकि सैन्य क्षमता आधुनिक देशों की खास विशेषता होती है, इसलिए यूक्रेन को सैन्य मुक्त करने का मतलब है, नेशन स्टेट के रूप में उनसे अस्तित्व को ही खत्म कर दिया जाएगा.
यूरोप का सबसे बड़ा देश, अगर यूरोप के दूसरे सबसे बड़े देश पर परंपरागत तरीके से हमला कर रहा है तो यह यूरोप के इतिहास में एक जबरदस्त मोड़ लेकर आने वाला है. लेकिन इसका असर निश्चित तौर पर भारत और चीन सहित विश्व के दूसरे देशों पर भी पड़ेगा.
फिलहाल भारत चुप्पी साधे बैठा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पुतिन से बुधवार को बात की और उनसे कहा कि “कूटनीतिक बातचीत के रास्ते पर लौटने के लिए सभी पक्षों की ओर से साझा कोशिश की जानी चाहिए.”लेकिन फिर भी भारत ने रूस की कार्रवाई पर खेद प्रकट नहीं किया है और ठोस रुख अख्तियार नहीं किया है.भारत और चीन इस बात की पैरवी कर रहे थे कि इस उलझन को 2014-15 के मिन्स्क समझौते के आधार पर सुलझाया जाए. इस तरह यूक्रेन सरकार की अथॉरिटी बनी रहती और स्वायत्तता भी. लेकिन अब बात हाथ से निकल चुकी है.
हत्या की ही तरह युद्ध को किसी भी स्थिति में सही नहीं ठहराया जा सकता. हां, इसके लिए आत्मरक्षा की दुहाई जरूर दी जाती है. पुतिन ने संयुक्त राष्ट्र के चार्टर आर्टिकल 51 का हवाला दिया है जिसमें कहा गया है कि सदस्य देशों को आत्मरक्षा में कार्रवाई करने का अधिकार है. पुतिन ने कहा कि वह यूक्रेन से अलग हुए डोनेट्स्क और लुहांस्क पीपुल्स रिपब्लिक की तरफ से कार्रवाई कर रहा है- यह बात और है कि हमले के तीन दिन पहले ही रूसियों ने सुविधाजनक तरीके से इन दोनों का निर्माण किया है.
इस हमले के साथ ही यूरोप का सुरक्षा का वह दायरा छिन्न भिन्न हो गया है जो दूसरे महायुद्ध के अंत के साथ कायम हुआ था. यह वह दायरा था जिसने संयुक्त यूरोप के राजनैतिक सपने को साकार किया था.
अब इस पूरे इलाके को यह समझना होगा कि वह कैसे इस स्थिति से निपटेगा. इसका असर उसकी सुरक्षा और स्थिरता, दोनों पर पड़ेगा. न सिर्फ यूरोप, बल्कि यूरेशिया पर भी.
रूस अपनी सुरक्षा को लेकर हमेशा से फिक्रमंद रहा है. और इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि नाटो और यूरोपीय संघ ने उसकी इस आशंका का भरपूर फायदा उठाया. उसने रूस को यूरोपीय प्रॉजेक्ट का हिस्सा बनाना तो दूर, उसकी इस कमजोरी को अनदेखा करके, नब्बे के दशक में नाटो को यूरोप में फैलने दिया.
इसका नतीजा जॉर्जिया-रूस युद्ध के रूप में नजर आया. इस जंग में जॉर्जिया अबखाजिया और दक्षिणी ओसेतिया गंवा बैठा. अब यूक्रेन की बारी है और ऐसा बिल्कुल नहीं कहा जा सकता, कि किसी अनहोनी की चेतावनी नहीं दी गई थी.
रूस और नाटो के रिश्ते बहुत खराब चल रहे हैं और इसका सबसे बुरा असर हथियारों से जुड़े समझौतों पर पड़ा है जिन्होंने शीत युद्ध वाले यूरोप को स्थिरता दी थी- जैसे यूरोप में परंपरागत बल (सीएफई) समझौता, मध्यम दूरी परमाणु शक्ति (आईएनएफ) संधि, या ओपन स्काई संधि.
आज रूस जो किया, बहुत गलत किया. लेकिन इसकी वजह से अमेरिका और उन यूरोपीय देशों की करतूतों को माफ नहीं किया जा सकता, जिन्होंने रूस की कठिन स्थितियों का बकायदा गलत तरीके से इस्तेमाल किया.
वे कह सकते थे कि उन्होंने यूक्रेन को बफर देश के तौर पर मान्यता दी हैजो तटस्थ है. लेकिन उन्होंने न सिर्फ यूक्रेन को अत्याधुनिक एंटी एयर और एंटी टैंक मिसाइलें दीं, बल्कि अपने ट्रेनर भी वहां भेजे. अब वे कह रहे हैं कि मौत से संघर्ष करना यूक्रेन का कर्तव्य है, जबकि इस संघर्ष में कामयाबी की उम्मीद बहुत कम है.
अब हम कहां जाएं?
इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है. रूसियों का दावा है कि उनकी कृत्यको जंग नहीं कहा जा सकता, बल्कि “यह यूक्रेन को सैन्य मुक्त, नाजी मुक्त करने का विशेष सैन्य अभियान है.” चूंकि कोई संप्रभु देश अपनी मर्जी से सैन्य मुक्त नहीं होना चाहेगा, इसलिए रूस का फौरी मकसद यह है कि वह रौब दिखाकर यूक्रेन को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर करे. जहां तक ‘नाजी मुक्ति’ का सवाल है, तो यह यूक्रेन की राजनीति को सभी राष्ट्रवादी तत्वों से मुक्त करने का एक कूट संकेत है.
रूसियों के दिमाग में एक किस्म का “फिनलैंडीकरण” चल रहा है जोकि दूसरे महायुद्ध के बाद फिनलैंड से मुकाबला करने वाली सैन्य परिस्थितियों से पैदा हुआ था. या यह मास्को ही तय कर सकता है कि क्या यूक्रेन को भी बेलारूस जैसा बनाना है, जिस पर एक तरह से रूस का ही शासन चलता है.
वैसे यकीनन, संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों के लिए यह एक उल्लेखनीय स्थिति है. इजरायलियों ने सैन्य कब्जे के जरिए फिलिस्तीन के उदय को रोका, और रूस संयुक्त राष्ट्र के एक सदस्य को अपनी सेना को खत्म करने और अपनी राजनीति में आमूल चूल परिवर्तन करने को मजबूर कररहा है.
बायडेन ने टिप्पणी की है, कि “पूरी दुनिया यूक्रेन के लिए दुआ मांग रही है” लेकिन भारत के लिए यह सुर बेसुरे हैं. 20 नवंबर 1962 को जब भारतीय सेना पूर्वी सेक्टर में धराशाई हो गई थी, पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, “मेरा दिल असम के लोगों के लिए धड़क रहा है.” तब नेहरू पर आरोप लगा था– हालांकि यह गलत था- कि उन्होंने असम को उसके हाल पर छोड़ दिया. अब, इतिहास बायडेन पर क्या फैसला सुनाएगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह इस अभूतपूर्व स्थिति को कैसे संभालते हैं. क्योंकि दूसरे महायुद्ध के बाद पहली बार दो देशों के बीच युद्ध हो रहा है.
संयुक्त राष्ट्र पहले ही साफ कर चुका है कि वह इस जंग का हिस्सा नहीं बनेगा. इसका जवाब यह होगा कि रूस पर प्रतिबंध लगाए जाएं. इसलिए देखना यह है कि इसका क्या असर होगा. इसमें कोई शक नहीं है कि अमेरिका पर रूस को चोट पहुंचाने का विश्व स्तरीय दबाव है. लेकिन इससे क्रेमलिन का बर्ताव बदलेगा, इसमें भी शक है. जैसा कि पुतिन के लहजे और रूस के उलाहनों से पता चलता है- रूस हाथ मिलने की बजाय, वार करता रहेगा- कम से कम, जब तक पुतिन मौजूद हैं.
इस हमले ने चीन और भारत के सामने अलग-अलग विकल्प पेश किए हैं.चीन की दुविधा तभी साफ हो गई जब उसकी प्रवक्ता हुआ छुनइंग ने बृहस्पतिवार सुबह इस बात से इनकार किया कि बीजिंग यूक्रेन का साथ दे रहा था. उन्होंने कहा था, कि “चीन यह नहीं देखना चाहता था जो यूक्रेन में आज हो रहा है.” चीनी लंबे समय से सभी देशों की संप्रभुता पर जोर दे रहा है, और नहीं चाहता कि उसके मामले में दखल दिया जाए. चीन की इस पहल उसकी स्थिति को कमजोर करती है.
इसके मद्देनजर बीजिंग को उस संयुक्त बयान पर पछतावा होना चाहिएजिस पर उसने 4 फरवरी को रूस के साथ दस्तख किए थे. उस बयान में कहा गया था कि दोनों देशों के बीच के बंधनों की "कोई सीमा नहीं" हैऔर उनके बीच "सहयोग का कोई 'निषिद्ध' क्षेत्र नहीं है".
बीजिंग इस बात से खुश हो सकता है कि यूरोपीय संकट अमेरिका को अपना ध्यान भारत-प्रशांत से दूर करने के लिए मजबूर करेगा. लेकिन यह हमला बीजिंग के लिए भी नुकसानदेह होगा क्योंकि यूरोप उसका प्रमुख बाजार और टेक्नोलॉजी सोर्स है. इसके अलावा यूक्रेन के चीन के साथ घनिष्ठ संबंध रहे हैं क्योंकि वहीं से उसने सैन्य टेक्नोलॉजी हासिल की है.
भारत की दुविधा कम जटिल नहीं है. हम रूस पर हथियारों के लिए निर्भर हैं. कुछ कूटनीतिक हथियारों और प्लेटफॉर्मों के लिए जरूरी तकनीक उसी से लेते हैं, जैसे मिसाइल और न्यूक्लियर प्रोपेल्ड पनडुब्बियां. फिर, एस 400 मिसाइलों की खरीद को लेकर सीएएटीएसए यानी काउंटरिंग अमेरिकाज़ एडवाइजरीज़ थ्रू सैंक्शंस एक्ट की तलवार भी हमारे सिर पर लटक रहा है. तय है कि रूसी हथियारों के व्यापार से नाखुश अमेरिका इसी को एक बड़ा हथियार बनाएगा.
ऐसी स्थिति में, “अगर तुम हमारे साथ नहीं, तो हमारे खिलाफ हो” वाला तर्क लागू होता है. इससे टकराव भी पैदा हो सकता है. इस सच्चाई के बावजूद कि भारत-प्रशांत कूटनीतिक दस्तावेज में बायडेन प्रशासन ने इस बात की पुष्टि की है कि “क्वाड की प्रेरक शक्ति” में भारत की बड़ी भूमिका है और उसे मदद देने की जरूरत है.
बात यह है कि अमेरिका की हमेशा से नीति रही है कि यूरेशिया में किसी बड़े नेता को उभरने न दिया जाए. लेकिन अटलांटिक सागर के परे के देशों के साथ रिश्ते जोड़ने को भी प्राथमिकता दी गई है, जोकि राष्ट्रीय सुरक्षा और संपन्नता का सैद्धांतिक आधार है. अब, जब यूरोप की सुरक्षा को खतरा है, अमेरिका को फिर से अपनी भारत-प्रशांत नीति का आकलन करना चाहिए. और जब रूस अंतरराष्ट्रीय अपमान का सामना कर रहा है, भारत को अपने रुख को बदलना पड़ सकता है.
(लेखक, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन, नई दिल्ली के डिस्टिंग्विश्ड फेलो हैं. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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