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एबीपी न्यूज और सीवोटर के ताजा सर्वे में अनुमान लगाया गया है कि उत्तर प्रदेश में, जहां जल्द ही चुनाव होने वाले हैं, चुनावी मुकाबला नजदीकी होता जा रहा है.
नवंबर के लिए सीवोटर ट्रैकर ने अनुमान लगाया है कि सत्ताधारी एनडीए करीब 217 सीटें जीत सकता है, जो कि 2017 के नतीजे से सौ सीटें कम है जबकि समाजवादी पार्टी के नेतृत्व वाला गठबंधन, जिसमें राष्ट्रीय लोक दल और सुहेलदेव भारती समाज पार्टी शामिल है, करीब 156 सीटें जीत सकता है. सर्वे में बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस को काफी पीछे दिखाया गया है, बहुजन समाज पार्टी को 18 और कांग्रेस को 8 सीटें मिलने का अनुमान जताया गया है.
महत्वपूर्ण बात ये है कि बीजेपी और समाजवादी पार्टी के बीच का अंतर पिछले एक महीने में कम हुआ है.
अक्टूबर के लिए सीवोटर ट्रैकर ने एनडीए को 245 और समाजवादी पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधन को 134 सीटें मिलने का अनुमान लगाया था, यानी दोनों के बीच 111 सीटों का अंतर. अनुमान के मुताबिक दोनों गठबंधन के बीच अब अंतर घटकर 61 हो गया है, एक महीने में 50 सीटों की कमी.
ये कमी ऐसे समय में आई है जब बीजेपी के अंदर फूट की चर्चा है-एक तरफ योगी आदित्यनाथ सरकार है और दूसरी तरफ पार्टी संगठन जिसे केंद्रीय नेतृत्व के एक वर्ग का समर्थन है.
तो उत्तर प्रदेश में बीजेपी की बढ़त कम होना किस बात का संकेत है? क्या सच में बीजेपी को चुनावों में बड़ा झटका लग सकता है?
मुख्य रूप से यूपी में तीन क्षेत्र हैं जहां बीजेपी को मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है- पश्चिमी यूपी, रोहिलखंड और पूर्वी यूपी और इन तीनों क्षेत्रों में बढ़त कम होने का सिलसिला अलग-अलग समय पर शुरू हुआ.
पश्चिमी यूपी
सहारनपुर जिले की कुछ सीटों को छोड़ दें तो बीजेपी ने 2017 में इस क्षेत्र में काफी अच्छा प्रदर्शन किया था. ऐसा 2013 की मुजफ्फरनगर हिंसा के बाद जाट वोटों के करीब-करीब पूरी तरह बीजेपी को मिलने के कारण हुआ था. लोकनीति-सीएसडीएस के सर्वे के मुताबिक 2019 के लोकसभा चुनाव में एनडीए का जाट वोट बैंक और मजबूत हुआ और पार्टी को समुदाय के 91 फीसदी वोट मिले.
इससे राकेश टिकैत और आरएलडी प्रमुख जयंत चौधरी की जाट समुदाय में बढ़ती लोकप्रियता को समझा जा सकता है. पिछले कुछ महीनों से ये साफ हो गया है कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी को ज्यादा नुकसान इसी क्षेत्र में हो रहा है. हालांकि नवंबर ट्रैकर ने एक और क्षेत्र -पूर्वी यूपी में बीजेपी को हो रहे नुकसान का खुलासा किया है जहां दो महीने पहले तक बीजेपी के लिए स्थिति उतनी खराब नहीं थी.
पूर्वी यूपी
इस क्षेत्र में जातिगत विभाजन काफी मजबूत है और सिर्फ ठाकुरों को आगे बढ़ाने की योगी आदित्यनाथ की छवि से लेकर समाजवादी पार्टी और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के बीच गठबंधन, कई कारक मिल कर बीजेपी के नुकसान को बढ़ा सकते हैं.
रोहिलखंड
नक्शा ये भी दिखाता है कि 2017 के विधानसभा चुनावों में विपक्ष सिर्फ दो क्षेत्रों रोहिलखंड और पूर्वी यूपी के आजमगढ़, जौनपुर और गाजीपुर जैसे जिलों के कुछ इलाकों में टक्कर दे सका था.
यहां तक कि लोकसभा चुनावों में भी उत्तर प्रदेश में यही वो मुख्य क्षेत्र थे जहां विपक्ष बीजेपी की लहर के सामने टिक सका था.
मुरादाबाद प्रशासनिक डिविजन में, जो मोटे तौर रोहिलखंड क्षेत्र के जैसा ही है, लोकसभा चुनावों में बीजेपी का पूरी तरह से सफाया हो गया था. मुरादाबाद, रामपुर, संभल, अमरोहा, बिजनौर और नगीना, सभी छह सीटों पर बीजेपी को महागठबंधन से हार का सामना करना पड़ा. ये ऐसे क्षेत्र भी हैं जहां मुसलमानों की संख्या अधिक है.
रोहिलखंड और पूर्वी यूपी, जहां 2019 में ही बीजेपी की कमजोरी दिखने लगी थी, की तुलना में पार्टी बुंदेलखंड, अवध और बघेलखंड क्षेत्र में मजबूत स्थिति में बनी हुई है. पश्चिमी यूपी में भी बीजेपी हाथरस, एटा, कासगंज, अलीगढ़, गाजियाबाद और गौतम बुद्ध नगर जैसे क्षेत्रों में अपनी पकड़ बनाए रख सकती है जबकि मुजफ्फरनगर, मेरठ, सहारनपुर, शामली, बागपत और हापुड़ में पार्टी को नुकसान हो सकता है.
सी वोटर का सर्वे बीजेपी की सीटों में बड़ी कमी को दिखाता है लेकिन पार्टी के वोट शेयर में गिरावट मामूली ही है.
असम में कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन की भी ऐसी ही स्थिति थी जिसे कमोबेश बीजेपी के बराबर बोट मिले लेकिन सीटें कम मिलीं क्योंकि उसके वोट कुछ क्षेत्रों में अधिक केंद्रित थे.
यूपी में, ऐसा लगता है कि एक और बात हुई है, पिछले चुनाव की तुलना में वोटों का दो भागों में ज्यादा विभाजन. 1990 और 2000 के दशक के अधिकांश समय में उत्तर प्रदेश में टॉप दो पार्टियों का संयुक्त वोट शेयर लगभग 50-55 फीसदी ही रहा है.
2017 में ये 62 फीसदी तक पहुंच गया था. अगर सीवोटर के अनुमानों पर भरोसा करें तो बीजेपी और समाजवादी पार्टी का वोट शेयर मिलाकर 70 फीसदी तक पहुंच सकता है जिससे संकेत मिलता है कि दोनों पार्टियां, खासकर समाजवादी पार्टी दूसरों का खेल बिगाड़कर आगे बढ़ रही है.
बीजेपी विरोधी वोटों के बड़े हिस्से पर समाजवादी पार्टी के कब्जा करने के साथ ही, कई सीटें जो गैर बीजेपी पार्टियों के बीच वोट बंटने के कारण हार गई थी, अब वहां मुकाबला कड़ा हो गया है.
इस बात में कोई शक नहीं है कि जमीनी स्तर पर बीजेपी को नुकसान हुआ है और ऊपर जिन तीन क्षेत्रों का जिक्र किया गया है वहां पार्टी को कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. पार्टी को योगी सरकार और पार्टी संगठन के बीच अंदरुनी कलह के कारण भी नुकसान उठाना पड़ सकता है.
लेकिन इन मुद्दों के बावजूद, राज्य में बीजेपी का दबदबा कायम है. इसे हराने के लिए बीजेपी के खिलाफ और समाजवादी पार्टी के पक्ष में एक बहुत मजबूत बदलाव की जरूरत होगी.
कितने बड़े बदलाव की जरूरत है, इसका अंदाजा लगाने के लिए आइए एक नजर डालते हैं 2017 में बीजेपी की जीत के स्वरूप पर.
इसका मतलब ये हुआ कि इन सीटों पर बीजेपी के खिलाफ और इसके मुख्य विपक्षी पार्टी के पक्ष में कम से कम पांच फीसदी वोटों के बदलाव की जरूरत होगी.
विपक्ष के लिए ज्यादा आसान वो 103 सीटें होंगी जिन पर एनडीए को 10 फीसदी के कम अंतर से जीत मिली है.
हालांकि, अगर विपक्ष अपनी सभी सीटें बचा ले और इन सभी 103 सीटों पर भी जीत हासिल कर ले तो भी एनडीए बहुमत के आंकड़े को पार कर लेगा जब तक कि बीजेपी के खिलाफ वोट में और बड़ा बदलाव न हो.
इससे ये समझा जा सकता है कि बीजेपी को सत्ता से हटाना विपक्ष के लिए कितना मुश्किल होगा.
ऐसे बदलाव तभी होते हैं जब सत्ता विरोधी लहर बहुत ज्यादा होती है या पूरे के पूरे सामाजिक समूह एक पार्टी से दूसरी पार्टी में चले जाते हैं. पश्चिमी यूपी के जाट वोटरों से एक बड़े बदलाव की उम्मीद की जा सकती है हालांकि ये बदलाव भी पूरे के पूरे वोटों का नहीं होगा.
लेकिन ये साफ नहीं है कि क्या इससे बड़ा बदलाव आ सकेगा.
हां, बीजेपी के कुछ नेता भी पार्टी छोड़ सकते हैं- कुछ असंतुष्ट नेता सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी समाजवादी पार्टी में जा सकते हैं या चुनाव से पूरी तरह दूर रह सकते हैं जिससे बीजेपी के जनाधार पर असर हो सकता है.
हालांकि इस तरह का बदलाव बीजेपी को सत्ता से हटाने के लिए काफी नहीं होगा.
हो सकता है कि समाजवादी पार्टी ने यूपी में 30 फीसदी वोटों को पार करने के लिए अपना पूरी कोशिश कर ली हो जो पार्टी ने अब तक राज्य में अपने दम पर हासिल नहीं किया है. पार्टी उम्मीद कर सकती है कि जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आएंगे, वो अधिक विपक्षी वोटों को एकजुटकरने में सक्षम होगी.
दूसरी ओर बीजेपी सत्ता विरोधी लहर से निपटने के लिए कई मौजूदा विधायकों का टिकट काट सकती है. ये संभवत: इसे और नुकसान को रोकने में मदद कर सकता है.
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