मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019''केबल कार से केदारनाथ'', विकास के इस मॉडल से उत्तराखंड पर टूट सकता है पहाड़

''केबल कार से केदारनाथ'', विकास के इस मॉडल से उत्तराखंड पर टूट सकता है पहाड़

चारधाम यात्रा मार्ग को ऑल वेदर रोड कहा गया लेकिन वो टिकाऊ होने के बजाय पहले से अधिक टूट रही है

हृदयेश जोशी
नजरिया
Updated:
<div class="paragraphs"><p>पीएम मोदी केदारनाथ में&nbsp;</p></div>
i

पीएम मोदी केदारनाथ में 

फोटो- पीटीआई

advertisement

साल 2013 की केदारनाथ (Kedarnath) आपदा के बाद 11,000 फुट से अधिक ऊंचाई पर बसे इस तीर्थ के पुनर्निमाण के वक्त जाने माने भू-विज्ञानी डॉ नवीन जुयाल ने चेताया था कि यहां भारी निर्माण और सीमेंट या लोहे का अनियन्त्रित प्रयोग भविष्य में इस संवेदनशील क्षेत्र में आपदा का कारण बन सकता है. जुयाल ने वैज्ञानिक शब्दावली सोलीफ्लक्शन को समझाते हुये कहा था कि जिन इलाकों में भारी बर्फ जमती है, वहां गर्मियों में बर्फ के पिघलने पर किस तरह पोपली मिट्टी के खिसकने का खतरा बना रहता है. लेकिन जब होड़ चुनाव जीतने की हो तो पर्यावरणीय सरोकार और वैज्ञानिक तर्कों को सुनने के बजाय नेता ‘विकास’ का ही ढिंढोरा ही पीटते हैं.

आपदाओं की नई पटकथा

डॉ जुयाल और दूसरे जानकारों ने जब ऐसी चेतावनी दी थी तब नरेंद्र मोदी केंद्र में सत्तासीन नहीं हुये थे. लेकिन केदारनाथ में ताबड़तोड़ निर्माण का सिलसिला शुरू हो चुका था. इस तथ्य को सिर्फ एक संयोग कहकर नहीं टाला जा सकता कि जब से केदारनाथ और उत्तराखंड के पहाड़ों पर विकास का बुलडोजर चलना तेज हुआ है, तभी से आपदाओं का क्रूर सिलसिला बढ़ता गया है.

इस साल फरवरी में चमोली में हुई आपदा और मानसून में हुई कई घटनायें और फिर हाल में कुमाऊं की बर्बादी इसका गवाह है. उत्तराखंड में इन आपदाओं में इसी साल 250 से अधिक लोगों की जान जा चुकी है और बड़ी आर्थिक क्षति हुई है.

वैसे तो हिमालय में आपदाओं का इतिहास काफी पुराना और लम्बा है लेकिन साल 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद बर्बादी की पटकथा बड़े सुनियोजित तरीके से लिखी जा रही है. विकास के नाम पर हर प्रोजेक्ट को राष्ट्रीय सुरक्षा और धार्मिक भावनाओं से जोड़ा जा रहा है और पर्यावरणीय सरोकारों को हाशिये में डाल दिया जाता है.

शुक्रवार 5 नवंबर को केदारनाथ पहुंचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में “पहाड़ के पानी और पहाड़ की जवानी” की बड़ी पुरानी कहावत का इस्तेमाल किया और दावा किया कि उनकी सरकार “विकास योजनाओं” के जरिये इन दोनों को (पानी और जवानी) बचाने की कोशिश कर रही है. जबकि सच यह है कि पहाड़ का पानी अब जीवनदायी होने के बजाय या तो बेतरतीब बने बांधों में कैद हो कर रह गया है या बाढ़ के रूप में बार-बार आपदाओं का कारण बन रहा है.

चुनाव के साथ जुड़ी विकास योजनाएं

प्रधानमंत्री ने शुक्रवार 5 नवंबर को राज्य में 225 करोड़ रुपये की विकास योजनाओं का ऐलान करते हुये ये भी कहा कि इस सदी का तीसरा दशक उत्तराखंड का होगा और पिछले 100 साल में यहां जितने पर्यटक नहीं आए वो अगले 10 सालों में आएंगे. इसमें कोई शक नहीं कि विकास और टूरिज्म को रोजगार से जोड़ना बड़ा ही नेक खयाल है और पूरे देश की तरह उत्तराखंड में पसरी बेकारी और गरीबी से लड़ने के लिये प्रभावकारी योजनायें जरूरी हैं. ये भी सच है कि धार्मिक और नेचर टूरिज्म यहां के कई लोगों के लिये रोजी का एकमात्र जरिया है.

लेकिन करीबी नजर से देखें तो उत्तराखंड में जिस तरह के विकास और योजना के खाके को बढ़ावा दिया जा रहा है वह कुछ ठेकेदारों और कंपनियों के लिये भले ही मुफीद हो लेकिन आम जनता को उससे कुछ खास नहीं मिल रहा और यहां की पारिस्थितिकी के वह खिलाफ है.

उत्तराखंड में पिछले विधानसभा चुनावों से ठीक पहले 2016 में विकास और खुशहाली का ऐसा ही झुनझुना थमाया गया था. तब प्रधानमंत्री ने 12,000 करोड़ रुपये की चारधाम यात्रा मार्ग की घोषणा की थी. इस यात्रा मार्ग का निर्माण पर्यावरणीय नियमों की अनदेखी और जंगलों के अंधाधुंध कटान के कारण चर्चा में रहा है और जानकारों ने इस पर अपना विरोध जताया है. चारधाम यात्रा मार्ग को ऑल वेदर रोड कहकर प्रचारित किया गया लेकिन वो टिकाऊ होने के बजाय पहले से अधिक टूट रही हैं.

हिमालयी ग्लेशियरों पर संकट बढ़ता जा रहा है क्योंकि उनके एकमात्र कवच जंगलों को हम लगातार काट रहे हैं और इन वनों से निकलने वाली जलधारायें (जो गंगा और यमुना जैसी ग्लेशियरों से निकलने वाली नदियों को ताकत देती हैं) सूख रही हैं. कितने नीति नियंता इस बात की परवाह करते हैं कि रामगंगा, कोसी, सरयू, गगास और गौला जैसी नदियां जंगलों से ही निकलती हैं और भागीरथी, अलकनन्दा और मंदाकिनी जैसी नदियों की ताकत बनती हैं.
ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

प्राकृतिक नहीं मानवजनित हैं आपदा

अक्सर आपदाओं को क्लाइमेट चेंज या प्राकृतिक प्रकोप कहकर टाल दिया जाता है, लेकिन सच ये है कि इक्का दुक्का घटनाओं को छोड़कर अधिकांश आपदायें मानव जनित होती हैं और नदी तल पर कब्जा, गैरकानूनी निर्माण और खराब नगर प्रबंधन इसके पीछे होता है. शहरों में बाढ़ क्लाइमेट चेंज के कारण नहीं बल्कि नालियों को साफ न करने और तालाबों पर भवन निर्माण कर देने और कचरा प्रबंधन की विफलता से आ रही हैं, उसी तरह हिमालय पर जंगलों और पहाड़ों का नष्ट होना और टिकाऊ विकास के खिलाफ काम करना बर्बादी की बड़ी वजहें हैं.

दिल्ली-मेरठ हाइवे या मुंबई-पुणे हाइवे जैसी सड़कों को उत्तराखंड में बनाने की जो योजना ऑल वेदर रोड के नाम पर प्रचारित की गई वह असल में पहाड़ के भूगोल के हिसाब से फिट थी ही नहीं. यही वजह है कि हर साल ये सड़कें बह जा रही हैं और जनता के पैसे की बर्बादी के साथ पर्यावरण का ऐसा नुकसान हो रहा है जिसकी भरपाई नहीं हो सकती.

सीमावर्ती क्षेत्रों में चौड़ी नहीं बल्कि टिकाऊ सड़कें चाहिये जो जंगलों और ढलानों के सुरक्षित रहने पर ही बन सकती हैं लेकिन सरकार इससे कोई सीख लेने को तैयार नहीं बल्कि उसके इरादे कई संवेदनशील इलाकों में सड़कें बनाने के ही नहीं सुरंगें खोजने के भी हैं. इन योजनाओं के खिलाफ पर्याप्त वैज्ञानिक चेतावनियां दी जा चुकी हैं.

इस मॉडल से क्या बढ़ रहा है रोजगार?

प्रधानमंत्री मोदी द्वारा सीधे केबल कार से केदारनाथ पहुंचने की बात न केवल पर्यावरणीय सरोकारों की अनदेखी है बल्कि धार्मिक यात्रा के फलसफे से भी मेल नहीं खाती. प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर केदारनाथ मार्ग की पैदल यात्रा करने वाले जानते हैं कि वहां चलकर पहुंचने का परिश्रम, श्रद्धा और कुदरती खूबसूरती के साथ मिलकर कैसा त्रिआयामी आनंद पैदा करता है. लेकिन कभी बेहद शान्त रहने वाला केदारनाथ अब हेलीकॉप्टरों के कर्कष शोर से भरा होता है. यह हेलीकॉप्टर खुल्लमखुल्ला अदालत द्वारा तय नियमों की अनदेखी करते रहे हैं और इनका निरंतर शोर संरक्षित केदार घाटी में पक्षियों और जानवरों के अस्तित्व के लिये संकट बन रहा है.

यात्रा अगर आहिस्ता चलेगी तो यात्री इन इलाकों में अधिक रुकेंगे और खर्च करेंगे यानी स्थानीय दुकानदारों, ढाबा या चाय वालों, व्यापारियों और सामान ढोने वालों और तमाम लोगों को फायदा होगा. हेलीकॉप्टर और फर्राटेदार हाइवे सिर्फ चुनिंदा कंपनियों और ट्रेवल एजेंट्स के लिये हैं क्योंकि देहरादून से सुबह चला यात्री रात तक वापस पहुंच जाता है.

धर्म और प्रकृति के रिश्ते की समझ

जाने माने ट्रैवल राइटर बिल एटकिन ने सिर्फ पैसे और संसाधनों की ताकत से संवेदनशील इलाकों में निर्माण की इस निर्रथकता को रेखांकित किया है. एटकिन लिखते हैं कि सिखों ने हेमकुण्ड साहिब के पुरातन गुरुद्वारे – जो बहुत छोटे आकार का था – की जगह एक विराट गुरुद्वारा खड़ा कर दिया जो वहां के भूगोल और पारिस्थितिकी से मेल नहीं खाता जबकि हिन्दुओं ने अपने तीर्थस्थानों पर अधिक छेड़छाड़ न करने के महत्व को समझा है, लेकिन केदारनाथ में लगातार हो रहे निर्माण को देखते हुये कहना मुश्किल है कि क्या सतत और समावेशी विकास और संतुलन की हिन्दुओं की समझ अब भी बरकरार है?

केदारनाथ में चौराबरी झील के टूट जाने के बाद अब कई सदियों तक उसका फिर से भरना मुमकिन नहीं है लेकिन सरकार ने केदारनाथ मंदिर को भविष्य में किसी बाढ़ से रोकने के नाम पर इसके पीछे एक विहंगम दीवार खड़ी कर दी है. ग्लेशियर विज्ञानी डीपी डोभाल के साथ जब 2018 में मैंने चौराबरी लेक का दौरा किया था तो उन्होंने इस दीवार को बेवजह का खर्च बताया था.

प्रधानमंत्री ने यह भाषण एक ऐसे वक्त दिया है जब ग्लासगो में जलवायु परिवर्तन महासम्मेलन चल रहा है और भारत की उसमें महत्वपूर्ण भूमिका है. खुद मोदी इस सम्मेलन में लाइफस्टाइल फॉर इन्वारेन्मेंट (पर्यावरण से मेल खाती जीवनशैली) का नारा देकर लौटे हैं लेकिन प्रकृति ने बार-बार यह बताया है कि वह खोखले नारों के हिसाब से नहीं चलती. उससे होने वाली हर छेड़छाड़ का हिसाब वर्तमान या भावी पीढ़ी को देना ही पड़ता है.

(हृदयेश जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन और ऊर्जा क्षेत्र से जुड़े विषयों पर रिपोर्टिंग करते हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार लेखक के हैं. इससे क्‍विंट की सहमति जरूरी नहीं है.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 06 Nov 2021,06:54 PM IST

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT