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ये बात 1934-35 के आसपास की है. लाहौर के एक जाने-माने पंडित या कहें ज्योतिषी ने दस-बारह साल के एक लड़के का हाथ देखा और उसकी दादी से कहा कि ये लड़का ‘मलेच्छ विद्या’ (अंग्रेजी) पढ़ेगा और 'उड़न खटोले' पर खूब उड़ेगा.
देश में अंग्रेजों की हुकूमत थी. भारत-पाकिस्तान के बीच सरहद की लकीरें नहीं खिंची थीं. वो लड़का शहर के मशहूर डॉक्टर का बेटा था. परिवार के पास अच्छी-खासी जायदाद थी.
शहर में नाम था, लेकिन उस लड़के को पढ़ने में ज्यादा मन नहीं लगता था. अपने पोते के भविष्य लिए चिंतित होकर उसकी जन्मकुंडली बनवाती रहती थीं. तब किसे पता था कि एक दिन भारत की सरहदों से पाकिस्तान नाम के एक और मुल्क का जन्म होगा और लाहौर की जड़-जमीन से बेदखल होकर अपने परिवार के साथ दिल्ली आने वाले वही लड़का आगे चलकर कुलदीप नैयर के नाम से दुनियाभर में जाना-पहचाना जाएगा.
95 साल के थे कुलदीप नैयर. उम्र के इस पड़ाव पर भी सत्ता, सियासत और समाज को लेकर इस कदर होशमंद और फिक्रमंद थे कि लगातार कॉलम लिख रहे थे. सेमिनारों में अपनी बात रख रहे थे. देश के मौजूदा हाल पर तल्ख टिप्पणियां कर रहे थे. कुलदीप नैयर अपनी पीढ़ी के आखिरी पत्रकार थे, जिन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के कब्जे में भी हिन्दुस्तान को देखा और आजाद होते हुए भी.
'द टाइम्स' ‘यूएनआई’, ‘द स्टैट्समैन' और ‘इण्डियन एक्सप्रेस' के लिए अलग-अलग दौर में दशकों तक काम करने वाले कुलदीप नैयर का जाना पत्रकारिता के इतिहास पुरुष के जाने की तरह है.
कुलदीप नैयर भारत-पाक के बीच बेहतर रिश्तों के ताउम्र हिमायती रहे.सरहद के दोनों तरफ उनके चाहने वालों की तादाद उन्हें हर दौर में दुश्मनी के पैरोकारों से अलग खड़ा करती रही . भारत-पाक मैत्री की वकालत करने की वजह से उन्हें पाकिस्तान समर्थक घोषित करके निशाने पर लिया जाता रहा.
उन्होंने अपनी किताब में लिखा है, ‘मुझे पहले भी पाकिस्तान समर्थक घोषित करके बदनाम किया जाता रहा है, लेकिन अमेरिका के एक सेमिनार में हिस्सा लेने की वजह से इस बार एक टीवी चैनल ने मुझे सीधे-सीधे राष्ट्र -विरोधी बुद्धिजीवी ठहरा दिया. मुझे ये देखकर हैरानी होती है कि हमारे अमरीका, ब्रिटेन, जर्मनी और दूसरे देशों द्वारा दी गई शानदार दावतें उड़ाने में सबसे आगे रहते हैं . उन्हें किसी तरह का संकोच नहीं होता, लेकिन पाकिस्तान का नाम आते ही मुंह बिचकाने लगते हैं. ये दोहरा मापदंड क्यों?‘
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कुलदीप नैयर अपने विरोधियों और आलोचकों की परवाह किए बगैर आखिरी दम तक भारत-पाक के बीच संवाद सेतु से बनने वाले बेहतर रिश्तों की हिमायत करते रहे. देश को धर्मनिरपेक्षता के धागे से बांधे रखने के पक्षधर रहे. इस वजह से उन्हें कई बार धमकियां भी मिली. बकौल नैयर:
इन्द्रकुमार गुजराल ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में कुलदीप नैयर को राज्यसभा के लिए मनोनीत करवाया था. कुछ ही महीनों बाद गुजराल सत्ता से रुखसत हो गए. 1998 के चुनाव के बाद वाजपेयी के नेतृत्व में गठबंधन की सरकार बन गई. उन दिनों कुलदीप नैयर राज्यसभा में भारत-पाक मैत्री या कश्मीर मुद्दे पर संवाद जारी रखने की अपनी पक्षधरता की वजह से कई बार बीजेपी सदस्यों की हूटिंग के शिकार हुए.
एक बार उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के एक भाषण के दौरान बीजेपी ने उनकी एक टिप्पणी पर खूब बवाल मचाया था. उस हंगामे का जिक्र करते हुए कुलदीप नैयर ने लिखा था:
एक बार तो प्रधानमंत्री वाजपेयी ने भी अपने भाषण के दौरान उनकी खाली सीट की तरफ इशारा करते हुए पूछा, ‘कहां चले गए? पाकिस्तान?’. कुछ वामपंथी सदस्यों ने वाजपेयी के इस तरीके पर एतराज जताया. कुलदीप नैयर जैसे ही सदन में लौटे, उन्हें इस बात की जानकारी दी गई. नैयर ने जब वाजपेयी से इस बारे में पूछा, तो उन्होंने कहा कि ‘सिर्फ मजाक में ऐसा कहा था’. इस वाकये का जिक्र भी कुलदीप नैयर ने अपनी किताब 'बियांड द लाइंस में किया है.
कुलदीप नैयर ने देश के विभाजन का दंश भी झेला और अपनी जमीन से बेदखल होने का संताप भी. सियालकोट में जन्मे, लाहौर में पले बढ़े और सरहद की लकीरें खिची तो इस पार आ गए. नेहरू, गांधी, पटेल, शास्त्री, राजेन्द्र प्रसाद, पंत, मौलाना आजाद लेकर जेपी तक, सबके करीब रहकर सबको समझा और अपने जीवन को इस को दौर को आजाद मुल्क के इतिहास से जोड़कर एक शानदार किताब लिखी -'बियांड द लाइंस', जो हिन्दी में अनुदित होकर ’एक जिंदगी काफी नहीं' के नाम से छपी.
इस किताब के पहले चैप्टर -'बचपन और बंटवारा' में नैयर साहब ने अपने बारे में लिखा है:
‘जिंदगी में हर नई शुरुआत अपने आपमें अनोखी होती है. मेरी अपनी मिसाल भी एक नमूना है. मैं गलती से पत्रकारिता में आ गया. मैं वकालत के पेशे में आना चाहता था, जिसके लिए लाहौर यूनिवर्सिटी से डिग्री भी हासिल की लेकिन इससे पहले कि मैं अपने शहर सियालकोट में अपने आपको एक वकील के रूप में रजिस्टर करवा पता, इतिहास बीच में आ घुसा और भारत का बंटवारा हो गया. मैं दिल्ली आ गया, जहां मुझे एक उर्दू अखबार ‘अंजाम’ में नौकरी मिल गई. मैं पत्रकारिता के पेशे में आगाज की बजाय अंजाम से दाखिल हुआ. इसलिए मैं हमेशा कहता हूं कि मेरे सहाफात का आगाज अंजाम से हुआ.’
कुलदीप नैयर का जीवन, उनकी पत्रकारिता और आजादी के बाद की भारतीय सियासत को समझने के लिए ये एक बेहतरीन किताब है . कुलदीप नैयर का परिवार जब बंटवारे के बाद लाहौर से बेदखल होकर हिन्दुस्तान आया, तब उनके पिता साठ साल के हो चुके थे. आजादी के कुछ ही महीनों पहले उनके डॉक्टर पिता ने लाहौर में नया मकान, नई डिस्पेंसरी और बहुत सी दुकानें बनवाई थीं और अपनी जमापूंजी खत्म कर डाली थी. ऐसे वक्त में बंटवारे ने उन्हें तोड़ दिया. कुलदीप नैयर खुद लिखते हैं -
बंटवारे की फांस उनके भीतर धंसी रही. जो होना था, वो तो हो गया लेकिन कुलदीप नैयर हमेशा दो मुल्कों की दुश्मनी को दोस्ती में बदलने की कवायद के सबसे बड़े पैरोकारों में से एक रहे.
गांधी की हत्या के तुरंत बाद मौके पर पहुंचने वाले पत्रकारों में कुलदीप नैयर ही थे. उन दिनों नैयर साहब एक उर्दू अखबार ‘अंजाम’ में काम कर रहे थे. कुलदीप नैयर ने अपनी किताब में लिखा है:
30 जनवरी 1948 का दिन सर्दियों के किसी भी दूसरे दिन की तरह था. सुहानी धूप और ठंडक भरा. दफ्तर के एक कोने में पीटीआई की टेलीप्रिंटर लगातार शब्द उगल रहा था. डेस्क इंचार्ज ने मुझे लंदन की खबर अनुवाद करने के लिए दे दी. मैं धीरे -धीरे चाय पीते हुए काम कर रहा था कि टेलीप्रिंटर की घंटी बजी. मैं लपककर टेलीप्रिंटर के पास पहुंचा और मैंने उस पर उभरा फ्लैश पढ़ा - ‘गांधी शॉट’. मेरा एक सहकर्मी मुझे मोटरबाइक पर बिड़ला हाउस ले गया. मैंने शोक का माहौल देखा. गवर्नल जनरल लॉर्ड माउंटबेटन को वहां पहुंचते और महात्मा के शरीर को सलामी देते देखा. कुछ ही दूरी पर पटेल, नेहरू और रक्षा मंत्री बलवेद सिंह इस चिंता में उलझे थे कि कैसे देश को किसी अनहोनी या हिंसा से बचाया जाए. तभी ये तय हुआ कि रेडियो पर ऐलान किया जाए कि मारने वाला मुसलमान नहीं था ताकि मुसलमानों को कातिल मानकर उनके खिलाफ न हिंसा भड़क जाए.
इसके बाद का पूरा घटनाक्रम कुलदीप नैयर ने अपनी किताब में चश्मदीद की तरह ही लिखा है .
कुलदीप नैयर के लिए उर्दू पत्रकारिता से अंग्रेजी पत्रकारिता में दाखिल होने का रास्ता नौकरी गंवाने और दिल्ली में धक्के खाने के बाद खुला. हुआ यूं कि दिल्ली से छपने वाले उर्दू अखबार ‘अंजाम’ के मालिक ने उन्हें सिर्फ इस बात पर निकाल दिया कि कुलदीप नैयर पाकिस्तान चले गए उनके भाई की सपंत्ति छुड़ाने में कामयाब नहीं हो सके.
बेरोजगार नैयर को उनके एक दोस्त ने बल्लीमारान से छपने वाले दूसरे उर्दू अखबार ‘वहादत’ में नौकरी लगवा दी. वहीं उनकी मुलाकात उर्दू शायर हसरत मोहानी से हुई. उन दिनों नैयर साहब को उर्दू में शायरी लिखने का भी शौक हो गया गया था. नैयर साहब ने हसरत मोहानी को अपने लिखे कुछ शेर दिखाए.
बकौल कुलदीप नैयर, “मोहानी ने मेरे शेर को महज तुकबंदी बताते हुए दो सलाह दी. पहला, उर्दू पत्रकारिता का भारत में कोई भविष्य नहीं, इसे छोड़ दो. दूसरा, उर्दू शेर-शायरी से तौबा कर दो. मैंने उनकी दोनों सलाहें मान ली. मैंने शेर -शायरी छोड़ दी और ‘वहादत’ से इस्तीफा देकर युनाइटेड स्टेट्स इन्फॉरमेशन सर्विस में भर्ती हो गया’. इस नौकरी में उनका मन नहीं रमा तो पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए अमेरिका चले गए.”
तभी पंचवर्षीय योजना के प्रचार विभाग के लिए एड-हॉक पर कुछ भर्तियां हुई और उन्हें पीआईबी में नौकरी मिल गई. इस नौकरी में रहते हुए कुलदीप नैयर ने सत्ता के गलियारे और गलीचों के नीचे छिपे सच को देखा.
नेहरू की ताजपोशी और उनके ताज से झांकते कांटों को भी कुलदीप नैयर ने देखा और आजादी की लड़ाई के योद्धाओं से बनी उनकी कैबिनेट में चल रही भीतरी उठापटक को भी. कुलदीप नैयर ने बतौर सूचना अधिकारी कुलदीप नैयर प्रधानमंत्री नेहरु और उनके बाद पीएम बने लालबहादुर शास्त्री के दिनों को देखा भोगा है. यहां तक कि जब 1966 में प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री का ताशकंद में रहस्यमय हालातों में निधन हुआ, तब भी कुलदीप नैयर उनके प्रेस सलाहकार के तौर पर साथ थे.
जब आजाद भारत के बुनियाद की ईंटें रखी जा रही थीं, तो कुलदीप नैयर चश्मदीद बनकर इतिहास बनते देख रहे थे. उन्होंने पीआईबी में सूचना अधिकारी सरकारी नौकरी की. लालबहादुर शास्त्री से लेकर पंत तक साथ बतौर सूचना अधिकारी रहे. उस दौर में पीटीआई के लिए काम किया. संसद, साउथ ब्लॉक और नार्थ ब्लॉक की सियासत को भीतरी दरवाजे में दाखिल होकर भी देखा और दूर रहकर भी. नेहरू- इंदिरा की कांग्रेस को चढ़ते भी देखा और गिरते भी.
जेपी आंदोलन और इमरजेंसी के दौर में कुलदीप नैयर देश के सबसे बड़े और चर्चित पत्रकारों में थे. इमरजेंसी के दौर में जब खुशवंत सिंह मठाधीश इंदिरा गांधी और संजय गांधी की शान में ढोल-मजीरे बजा रहे थे, तब कुलदीप नैयर जैसे लड़ाके पत्रकार-संपादक ही थे, जो सलाखों की परवाह किए बगैर चौथे खंभे की बुनियाद थामे बैठे थे.
एक तरफ अखबारों का गला घोंटकर घुटने पर लाने की कवायद में जुटी संजय गांधी की सेना और दूसरी तरफ कुलदीप नैयर जैसे इमरजेंसी पर लिखी उनकी किताब EMERGENCY RETOLD और बियांड द लाइंस में उस दौर की दास्तान दर्ज हैं.
कुलदीप नैयर की तरफ से तैयार प्रस्ताव पर करीब सौ पत्रकारों ने दस्तखत किए थे और उसे पीएम, प्रेसिडेंट और सूचना प्रसारण मंत्री को भेज दिया गया. कुछ ही मिनटों बाद संजय गांधी के हुकुम के गुलाम और इंदिरा गांधी की किचन कैबिनेट के ताकतवर सदस्य वी सी शुक्ला ने कुलदीप नैयर को फोन करके मिलने बुलाया.. उनका पहला सवाल था - ‘ वह लव लेटर कहां है ?’
कुलदीप नैयर ने हंसते हुए कहा, ‘मेरी तिजोरी में’. नैयर को बेफिक्र देखकर वीसी शुक्ला ने पैंतरा बदला. धमकाने वाले अंदाज में कहा, ‘ मुझसे बहुत से लोग कह चुके हैं कि आपको गिरफ्तार कर लेना चाहिए. आपको कभी भी गिरफ्तार किया जा सकता है.’
सरकार और शुक्ला जैसे मंत्रियों को इतनी ताकत उन बड़े पत्रकारों के समर्थन से भी मिली थी, जो इमरजेंसी लगाने के लिए इंदिरा गांधी को बधाई देने पहुंचे थे. जिस दिन वीसी शुक्ला ने कुलदीप नैयर को गिरफ्तारी का डर दिखाने के लिए बुलाया था, उसी दिन इंडियन एक्सप्रेस में उनका साप्ताहिक कॉलम छपा था, ‘नॉट एनफ मिस्टर भुट्टो’ .
लेख लिखा तो गया था पाकिस्तान के बारे में लेकिन इशारा भारत के हालात की तरफ था. पाकिस्तान में जुल्फीकार अली भुट्टो और फील्ड मार्शल अयूब खान के कार्यकाल की तुलना करते हुए नैयर ने लिखा था, ‘सबसे बुरा कदम उन्होंने लोगों का मुंह बंद करके उठाया है. प्रेस के मुंह पर ताला लगा है और विपक्ष के बयानों और विपक्ष के बयानों को सामने नहीं आने दिया जा रहा है. मामूली सी आलोचना भी बर्दाश्त नहीं की जा रही है.’
वीसी शुक्ला ने नैयर को कहा कि ‘सरकार में बैठे लोग बेवकूफ नहीं है. कोई भी समझ सकता है कि इमरजेंसी और इंदिरा गांधी की बात की जा रही है.’ कुलदीप नैयर ने इमरजेंसी और इंदिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ ऐसा मोर्चा खोल रखा था कि सरकार के सिपहसालार बौखलाए हुए थे . सेंसर को चमका देने के लिए कुलदीप नैयर ने वीसी शुक्ला की धमकी के बाद दो और लिखे. इस बार दोनों लेखों में अमेरिका के बहाने इशारों में भारत की बात की गई.
कुलदीप नैयर ने 10 जुलाई 1975 को लिखा - प्रजातंत्र का उपदेश देने वालों के हाथ खून से रंगे पाए गए. राष्ट्रपति निकसन किसी भी दूसरे राष्ट्रपति की तुलना में ज्यादा मतों से जीते थे फिर प्रेस और जनमानस के आगे उन्हें झुकना पड़ा और सत्ता से बाहर होना पड़ा. इस लेख के छपते ही सेंसर अधिकारियों ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ को निर्देश दिया कि कुलदीप नैयर या उनके किसी छद्म नाम से कोई भी लेख सेंसर को दिखाए बिना अखबार में नहीं छपना चाहिए. इसी के बाद कुलदीप नैयर की गिरफ्तारी हो गई थी.
सभा-गोष्ठियों में जाकर अपनी बात कहते रहे. अस्सी-नब्बे साल का आदमी थक जाता है . मौन हो जाता है. चुप हो जाता है लेकिन कुलदीप नैयर नब्बे पार करके भी अपनी उम्र को चुनौती देकर सक्रिय बने रहे. दस दिन पहले भी उन्होंने कुछ पत्रकारों की तरफ से शुरू हुई एक बेवसाइट को लॉन्च किया था. दो दिन पहले ही उनका लेख अखबारों में छपा था. आज उनके जाने की खबर आई है .
मोदी सरकार की नीतियों की आलोचना की वजह से कई बार सोशल मीडिया पर उन्हें भी गालियां दी गईं, लेकिन उन्होंने परवाह नहीं की. संघ और बीजेपी की विचारधारा से अपनी नाइत्तेफाकी का इजहार अपने आखिरी लेखों में भी करते रहे, तब भी जब इसी जून महीने में इमरजेंसी को याद करते हुए पीएम मोदी ने उनकी तारीफ की. और तो और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह 'संपर्क फॉर समर्थन' अभियान'के तहत उनसे मिलने उनके दरवाजे तक गए, लेकिन मोदी सरकार की नीतियों के खिलाफ कुलदीप नैयर के लेखों की धार कम न हुई.
हिन्दू -मुसलमान के नाम पर होने वाली सियासत और पाक से नफरत की छतरी तानकर राजनीतिक गोटियां सेट करने वालों के खिलाफ आखिरी दम तक लिखने-बोलने वाले कुलदीप नैयर उस हिन्दुस्तानी तहजीब और रवायत के पैरोकार थे, जो बांटता नहीं , जोड़ता है. नेताओं से अपनी निकटताओं के बदले राजदूत और राज्यसभा की कुर्सी मिलने को लेकर कुछ लोगों ने समय पर उनकी आलोचना भी की.
बीजेपी और संघ विरोधी लेखों के लिए बीजेपी नेता उनसे नाराज रहा करते थे और इमरजेंसी विरोधी तेवरों की वजह से कांग्रेस के बहुत नेताओं ने लंब समय तक उनसे दूरी बनाए रखी.
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Published: 23 Aug 2018,08:55 PM IST