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जब चंद जवानों ने 100 दुश्मनों को धूल चटाई थी,1971 जंग के मैदान का आंखों देखा हाल

Vijay Diwas पर 1971 भारत-पाकिस्तान युद्ध के एक सैनिक याद कर रहे हैं 'भाई खान वाला खू' की लड़ाई की कहानी

कर्नल प्रोबीर कुमार सुर
नजरिया
Updated:
<div class="paragraphs"><p>1971 भारत-पाकिस्तान युद्ध: कर्नल प्रोबीर कुमार सुर (दाएं) और उनकी टीम</p></div>
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1971 भारत-पाकिस्तान युद्ध: कर्नल प्रोबीर कुमार सुर (दाएं) और उनकी टीम

(फोटो: लेखक/Altered by Quint)

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(इस आर्टिकल को दोबारा पब्लिश किया जा रहा है, पहली बार इसे 16 दिसंबर 2021 में पब्लिश किया गया था)

1971 में पाकिस्तान में एक विवादास्पद चुनाव और गृह युद्ध के बाद करीब एक करोड़ शरणार्थी पूर्वी पाकिस्तान, जो अब बांग्लादेश है, से भारत पहुंच गए थे. फिर जब भारत ने पूर्वी पाकिस्तान की आजादी को अपना समर्थन दिया तो 3 दिसंबर को पाकिस्तान ने उत्तरी पूर्वी भारत के 11 एयरफील्ड्स पर बम बरसाए. इसके बाद तीसरा भारत-पाक युद्ध शुरू हो गया.

मेरी बटालियन, राजपूताना राइफल्स की तीसरी बटालियन 3 दिसंबर, 1971 को राजस्थान सेक्टर के किशनगढ़ में तैनात थी. हमें 5 दिसंबर, 1971 को सुबह छह बजे तक इस्लामगढ़ पर कब्जा करने की जिम्मेदारी दी गई थी और हमने कामयाबी हासिल कर ली.

सुबह 8 बजे: 8 दिसंबर को स्पेशल मिशन शुरू हुआ

8 दिसंबर, 1971 की सुबह, कमांडिंग ऑफिसर (सीओ) ने एकाएक मुझे अपने बंकर में बुलाया. चूंकि मैं इंटेलिजेंस ऑफिसर था, मुझे उम्मीद थी कि वह मुझे अपने साथ ब्रिगेड या आस-पास की बटालियन तक चलने को कहेंगे. लेकिन हैरानी और जोशो-खरोश की बात यह थी कि मुझे एक स्पेशल मिशन पर जाने को कहा गया. मुझे पाकिस्तान के अंदर 15 किलोमीटर तक, भाई खान वाला खू जाना था. मिशन यह था कि वहां पाकिस्तान पोस्ट की टोह लेनी है और अगर मुमकिन हुआ तो उस पर कब्जा करना है.

इंटेलिजेंस रिपोर्ट में लिखा था- “उम्मीद है कि उस पर पाकिस्तानी सेना की एक टुकड़ी का कब्जा है.”

भाई खान वाला खू लोगोंवाल सेक्टर जैसे नाजुक इलाके में था. इस्लामगढ़ पर कब्जा करने के बाद हमें अब इस्लामगढ़ से आगे- भाई खान वाला खू तक बढ़ना था और 12 इनफेंटरी डिविजन को दोनों तरफ से महफूज करना था.

मैं (तब लेफ्टिनेंट प्रबीर सूर) 22 साल का ऑफिसर था, और सिर्फ 14 महीने पहले मुझे 3 राजपूताना राइफल्स में कमीशन मिला था. और अब मुझे युद्ध में अपने देश की तरफ से एक अहम मिशन को पूरा करना था.

ब्रीफिंग पूरी करने के बाद सीओ ने मुझसे पूछा, “कोई शक, ऑफिसर, जिसे दूर करने की जरूरत है?” इस पर मैंने जवाब दिया, “नहीं सर, कोई शक नहीं है.” लेकिन मैं जानता था कि मुझे इस मिशन को कामयाब बनाने के लिए कुछ भी करना होगा. “सर, मुझे जो टुकड़ी दी गई है, उससे मैं वाकिफ नहीं हूं.” मैंने सीओ से कहा. “मैं अनुरोध करूंगा कि चार्ली कंपनी की टुकड़ी को हमारे साथ शामिल किया जाए. मैं एक महीने के लिए मिजोरम में उनके साथ था. वहां मैंने उनके साथ उग्रवादी विरोधी गतिविधियों में हिस्सा लिया था. मैं यह गुजारिश भी करना चाहता हूं कि मेरे इंटेलिजेंस सेक्शन के नायक राजेंद्र सिंह को भी इसमें शामिल किया जाए. वह रेगिस्तानी इलाके में नैविगेशन में माहिर है,” मैंने उनसे कहा.

सीओ ने मेरी दोनों बातें मान लीं. फिर मैं अपनी टीम तैयार करने के लिए निकल गया.

अपनी टीम के साथ सीओ

(फोटो: लेखक)

दोपहर 12.30 बजे: 9 दिसंबर को ‘घुसपैठ पूरी हुई’

धूप निकली हुई थी, लेकिन वह सर्दियों का मौसम था. इसलिए अगली सुबह ठिठुरन भरी थी. गर्म चाय का घूंट भरते हुए मैं खुद को मानसिक रूप से आगे के टास्क के लिए तैयार कर लिया था. मैंने अपने एक्विपमेंट्स कई बार चेक किए, खास तौर से मेरी कार्बाइन मशीन गन और एम्यूनिशन पाउच की तीन मैगजीन्स. किशनगढ़ किले के सामने दुर्गा माता मंदिर के पास मैं अपनी मिशन टीम से मिला. हर सैनिक के माथे पर ‘लाल टीका’ लगा हुआ था, सभी निर्भीक थे.

भारतीय सैनिकों का समूह

(फोटो: लेखक)

हमने 12.30 पर दुश्मन के अज्ञात इलाके के भीतर घुसना शुरू किया. इंटेलिजेंस ऑफिसर सिंह ने टुकड़ी की अगुवाई की. ऊंटों पर सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) ने टुकड़ी के दक्षिणी हिस्से को कवर किया. हम खुशकिस्मत थे कि हमें एक सिविलियन दिखा और हमने उसे पकड़ा. पूछताछ करने पर पता चला कि वह पास के गांव में रहता है. उसने बताया कि पाकिस्तान की सैनिक टुकड़ी भाई खान वाला खू की चौकी पर तैनात है.

अनमने ढंग से उसने हमारी पेशकश मंजूर की कि वह हमें रास्ता दिखाएगा. दुश्मन पता न लगा पाए, इसलिए हम दबे पांव अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ रहे थे. जैसे ही हमने अपनी ऑब्जर्वेशन पोस्ट बनाई, मैंने बटालियन के मुख्यालय को एक रेडियो संदेश भेजा: “घुसपैठ पूरी हुई”.

रात 8 बजे: दुश्मन की सिर्फ एक पलटन नहीं थी

अंधेरा घना था और रेतीले टीलों पर तेज हवा चल रही थी, जिससे तापमान और भी सर्द हो रहा था. दक्षिण में एक गाड़ी की हेडलाइट भाई खान वाला खू की ओर आती दिखाई दी. हवलदार जय नारायण फुर्ती से उठ खड़ा हुआ. मैं समझ गया कि उसका इरादा गाड़ी पर घात लगाने का है. मुझे उसे रोकना और समझाना पड़ा, “हमारे सामने एक बड़ा काम है. हम खुद को बेनकाब करने का जोखिम नहीं उठा सकते." जैसे ही रोशनी करीब आई, हमने महसूस किया कि यह एक छोटा वाहन था. शायद पोस्ट कमांडर चौकी लौट रहा था? उस गाड़ी की रफ्तार से मुझे दुश्मन की पोजीशन का अंदाजा हो गया था - वह शायद केवल 900 से 1000 मीटर दूर था. मैंने एक ग्रुप को उत्तर में एक और ऑब्जर्वेशन पोस्ट बनाने का आदेश दिया, और फिर खुद एक गश्ती दल की अगुवाई की.

देर रात को एक गाड़ी की हेडलाइट भाई खान वाला खू की ओर आती दिखाई दी.

(इलस्ट्रेशनः निरुपमा विश्वनाथ)

हवा बंद थी और स्टोर में हथियार जमा करने और दुश्मन सैनिकों के जोर जोर से बातें करने का शोर मेरे कानों में पड़ा. मैं चौकन्ना हो गया. कुछेक को लगा कि दुश्मन ने हमें घेर लिया है. मैं भी थोड़ा बेचैन हो गया. लेकिन मुझे मिलिट्री एकैडमी की अपनी ट्रेनिंग याद आई. ऐसे हालात में यह सामान्य था. मैंने सबसे एलर्ट रहने को कहा और यह भी कि वे घबराएं नहीं. उन्हें भरोसा दिलाया कि हम दुश्मनों से ज्यादा ताकतवर हैं.

अब तक मुझे विश्वास हो गया था कि दुश्मन की सिर्फ एक पलटन नहीं है, और उन्हें काबू करना हमारी ताकत से बाहर की बात है. मैंने अपने सीओ को हालात की जानकारी दे दी लेकिन उन्होंने मुझे दुश्मन पर हमला करने का आदेश दिया. उन्होंने कहा कि जनरल ऑफिसर कमांडिंग ने उन्हें तुरंत कार्रवाई करने का निर्देश दिया था, चाहे कितने भी लोग मारे जाएं. इस आदेश ने मुझे भौंचक्का कर दिया. मैंने सूबेदार शंभू राम को बुलाया और उनसे हमले की तैयारी करने को कहा.

सूबेदार 1965 का भारत-पाक युद्ध भी लड़ चुके थे. उन्हें विश्वास था कि ताकत और गोलीबारी के बिना, हम मारे जाएंगे. अब आगे बढ़ते, इससे पहले सीओ ने दोबारा सोचा.

उन्होंने बताया कि युद्ध का और साजो-सामान रास्ते में है, और उसे लेकर मेजर जे आर राजपूत, हमारे कंपनी कमांडर आ रहे हैं.

सुबह 4.30: तड़के हमले की तैयारी

सारा साजो-सामान 10 दिसंबर सुबह पहुंचा. मैंने मेजर जे आर राजपूत को ब्रीफ किया और उन्होंने तय किया कि सूरज की पहली किरण फूटने के साथ हमला किया जाएगा.

5 बजे: सबने अपनी घड़ियां मिलाईं, फिर कंपनी कमांडर के ग्रीन सिग्नल का इंतजार करने लगे. मुझे एहसास हो रहा था कि हमारे सैनिक उतावले हो रहे थे, जोश और बेचैनी दोनों मिल गए थे. मेजर राजपूत ने मुझे एक कोने में बुलाया और व्हिस्की की एक छोटी बोतल निकाली. कुछ घूंट भरे और मेरी तरफ बोतल बढ़ाई. मैंने विनम्रता से इनकार कर दिया. आसमान में रोशनी नजर आ रही थी.

हम सावधानी से और आराम से आगे बढ़े. मुझे किसी भी पल खतरे की आशंका थी. लगभग 200 मीटर आगे बढ़ने के बाद, आगे चलने वाले सैनिक अचानक रुक गए और झुक गए. मैं आगे बढ़ा. तभी मेरे पॉइंट्स मैन ने मुझे दिखाया कि सामने कुछ चमक रहा है. यह बंदूक की बैरल थी जो एक कैमाफ्लॉज नेट से ढंके बंकर से झांक रही थी. मैं खुश हो गया. आखिर हमें दुश्मन की पोजीशन का पता चल गया था.

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सुबह 6.15 मिनट: पाकिस्तानी ब्रेन मशीनगनों का आक्रमण

रेडियो के जरिए मैंने मेजर राजपूत को पोजीशन की जानकारी दी. कुछ ही पल के बाद वह मेरे पास पहुंच गए थे. उन्होंने पूरी पलटन को हमले के लिए तैयार रहने को कहा. अब दुश्मन से सिर्फ 600 मीटर की दूरी पर जंग का मैदान जीवंत हो उठा. पाकिस्तानी ब्रेन मशीनगनों ने हम पर गोलियां बरसाईं. प्रशिक्षण के दौरान मुझे इसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं किया गया था.

मेरे सैनिक उलझन में पड़ गए. उन्होंने कवर ढूंढना शुरू किया. एक जवान दौड़ पड़ा. उसने कहा कि कंपनी कमांडर को चोट लगी है और उन्होंने अपना आदेश दिया है कि मैं कमान संभालूं. दुश्मन अंधाधुंध फायरिंग कर रहा था, मशीन गन के अलावा दो इंच के मोर्टार बमों की भी बारिश हो रही है.

मेरे सैनिक खुले में थे. सुबह की रोशनी में साफ दिखाई दे रहे थे. हां, सिर्फ झाड़ियों के पीछे छिप सकते थे. मैं जानता था कि अब करो या मरो की स्थिति है.

"हर आदमी की अपनी किस्मत होती है", मैंने सैनिकों से कहा.

"हर इंसान, हर जवान अपनी किस्मत लेकर आता है. या तो उसकी किस्मत में जिंदगी लिखी है या फिर मौत. पर अगर हमारी किस्मत में आज जंग में शहीद होना है - तो याद रखो कि एक नहीं, कम से कम दस दुश्मन को साथ लेके मरो."

सभी सैनिकों ने योद्धाओं की तरह जवाब दिया. वे निडर होकर सामना करने को तैयार हो गए.

अब तक यह तय था कि दुश्मन की संख्या ज्यादा थी. वे करीब 100 सैनिक थे. दूसरी ओर हमारी गिनती कम थी. मैं न तो डरा हुआ था और न ही पहल करने से हिचक रहा था. हां, इस बात का एहसास जरूर था कि बहुत से लोगों की जान मेरे हाथ में है. हमने तुरंत एक फायरबेस स्थापित किया जिसमें एक मिडियम मशीन गन, एक लाइट मशीन गन और दो इंच मोर्टार शामिल थे. इसने दुश्मन पर अच्छा असर किया.

प्रह्लाद सिंह का बलिदान

हालांकि, हमारी स्थिति काबू में थी लेकिन दुश्मन की गिनती को देखकर साफ था कि अगर उससे आमने-सामने दो-दो हाथ किए जाएं तो हमारा सत्यानाश होगा. ब्रेन मशीन गन/बीएमजी को कब्जे में लेना जरूरी था. इसलिए हमने एक ऐसी रणनीति अपनाई जो सरल थी लेकिन परंपरागत नहीं थी. जितना मुमकिन था, तीनों पलटनों को दुश्मन के करीब पहुंचना था. हमें रेतीले मैदान की झाड़ियों और सिलवटों को कवर के तौर पर इस्तेमाल करना था. मैंने 9वीं पलटन से कई टुकड़ियां लीं और इस योजना को अंजाम दिया.

(फोटो: लेखक)

इस बीच नायक भंवर सिंह ने दुश्मन पर दाहिने तरफ पर भारी मोर्टार फायर किए. इसके चलते हमारा दल दुश्मन की मशीन-गन पोस्ट के 50 मीटर करीब तक पहुंच गया और वह भांप नहीं पाया. लेकिन अचानक उन्होंने हमें देख लिया और सीधे हम पर गोलियां चलानी शुरू कर दीं. मेरे बगल में राइफलमैन प्रहलाद सिंह ने मुझे जमीन पर जोर से धक्का दिया. उसने मेरी जान बचाई लेकिन खुद गोली का शिकार हो गया. मेरे पास इसके अलावा कोई रास्ता नहीं था कि अपने वफादार दोस्त को फर्स्ट एड के लिए छोड़कर आगे बढ़ जाता.

नायक मीर सिंह ने दुश्मन की पोजीशन के बहुत करीब जाकर एक हथगोला फेंका. उसकी बहादुरी की वजह से हमारा दल ब्रेन मशीन गन बंकर के ठीक पीछे पहुंच गया. मैंने उत्साहित होकर सैनिकों को संगीन ठीक करने और आखिरी 40 मीटर आगे बढ़ने का आदेश दिया.

दोनों दिशाओं से हमले और हमारी युद्ध गर्जना ने बंकर में छिपे दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए. उन्होंने सफेद कपड़ा लहराया. 28वीं बलूच रेजिमेंट के 10 पठान रहम की गुहार लगा रहे थे.

सैनिक के लिए कठोर होना जरूरी है लेकिन उसका करुणामय होना भी उतना ही अहम है. हमने उनका आत्मसमर्पण मंजूर किया और उन्हें युद्ध बंदी बना लिया.

कैसे पाकिस्तान सैनिक आखिरी तक बहादुरी से लड़ता रहा

दूसरी तरफ की लड़ाई जारी थी. मैं अपनी बची हुई 9वीं पलटन लेकर उस तरफ चल दिया. वहां दुश्मन से भिड़ंत हो रही थी. एक एक करके हमने दुश्मन के बंकर और खाइयां साफ कीं, जबकि गोलियां बराबर दागी जा रही थीं. डूंगा राम, हरनारायण, जिले सिंह, मीर सिंह, कमल सिंह, ईश्वर सिंह, निहाल सिंह, मेरी बटालियन के सभी जवान और मेरे इंटेलिजेंस सेक्शन के राजेंद्र, हमारे मिशन को पूरा करने के लिए दृढ़ थे.

इस मौके पर मैं सीओ का शुक्रिया अदा कर रहा था कि उन्होंने मुझे मेरी टीम चुनने दी- इन जांबाज सैनिकों और धुंआधार खिलाड़ियों के साथ मैं पहले भी दुश्मनों से लोहा ले चुका था. इस आखिरी हमले में उनमें से तीन गंभीर रूप से घायल हो गए, जिनमें हवलदार डूंगा राम और हरनारायण शामिल थे. एक गोली डूंगा राम के फेफड़ों में लगी थी. उसका काफी खून बह रहा था. मेरे बगल में लेटे हुए, दर्द से कराहते हुए, वह मुश्किल से होश में था. स्टरलाइज़्ड कॉटन पैक से मैंने उसके घाव पर पट्टी बांध दी और उसे मॉर्फिन शॉट दिया. मैं उसकी जिंदगी के लिए प्रार्थना कर रहा था.

जब तक हमने पश्चिमी हिस्से का सफाया किया, मेजर राजपूत आ गए. उनके घावों की मरहमपट्टी हो चुकी थी. उनकी मौजूदगी से हममें जोश आया. हमने हथियारों से लैस और 14 सैनिकों को युद्ध बंदी बना लिया. लेकिन लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई थी. 28वें बलूच के एक रेंजर ने आत्मसमर्पण करने से इनकार कर दिया. घिरे होने के बावजूद उसने बहादुरी से लड़ाई लड़ी. हम पर लगातार गोलियां चलाता रहा, जबकि उनके साथी सैनिकों ने आत्मसमर्पण कर दिया था या वे भाग खड़े हुए थे. लगभग आधे घंटे की लड़ाई के बाद वह अपने देश की रक्षा करते हुए शहीद हुआ.

एक जंग जिसे भुलाया नहीं जा सकता

चूंकि हमारे पास भारतीय तिरंगा नहीं था, इसलिए हमारी यूनिट ने एक साथ मिलकर राष्ट्रगान गाया. यह मेरी जिंदगी का सबसे भावुक और अहम क्षण था, जो गर्व और खुशियों से भरा था. इस क्षण ने मुझे मेलविल डी मेलो की सुरीली आवाज की याद दिला दी जो मैंने बचपन में रेडियो पर सुनी दी. 1964 में टोक्यो ओलंपिक के दौरान जब भारतीय हॉकी टीम ने पाकिस्तान को हराकर गोल्ड मेडल जीता था, तब रेडियो ब्रॉडकास्टर मेलविल ने ही इस जीत की खबर दी थी.

जल्द ही अल्फा कंपनी, आर्टिलरी और बटालियन डॉक्टर पहुंच गए. वह हमें आराम देने के लिए 15 किलोमीटर का रास्ता तय करके आए थे. जब उसने मुझे बताया कि डूंगा राम होश में है और बच जाएगा, तब मुझे तसल्ली हुई. हमने बहादुर लांस नायक शेर खान सहित शहीद दुश्मन सैनिकों को सम्मान के साथ और जिनेवा कन्वेंशन के मुताबिक दफनाया. रात भर की चौकसी और चार घंटे की भीषण लड़ाई के बाद मैं थक कर चूर हो गया था, भूखा था. इसलिए मैं खेजड़ी के पेड़ के नीचे आराम करने के लिए लेट गया.

हमारे पास भारतीय तिरंगा नहीं था इसलिए हमारी यूनिट ने मिलकर राष्ट्रगान गाया.

(इलस्ट्रेशनः निरुपमा विश्वनाथ)

10 दिसंबर 1971 को ऑल इंडिया रेडियो ने रात 9 बजे के अपने बुलेटिन में भाई खान वाला की लड़ाई की खबर दी. फिर भी मेनस्ट्रीम मीडिया ने इस जीत को बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं दी. न ही उस जंग के सैनिकों के साहस और समर्पण को वीरता पुरस्कारों से नवाजा गया. यह जंग का एक विरोधाभास है कि सैनिकों को सिर्फ मरणोपरांत सम्मानित किया जाता है. इसके बावजूद भारत के सैनिक निष्ठा और समर्पण के साथ अपने कर्तव्यों का पालन करते रहते हैं.

(लेफ्टिनेंट प्रोबीर सुर और उनके साथी सैनिकों ने 24 युद्धबंदियों को ऊंटों के जरिए बटालियन मुख्यालय तक पहुंचाया. चार्ली कंपनी के सैनिकों को बहादुरी के लिए एक सेना पदक, डिस्पैच में दो उल्लेख, और एक सीओएएस प्रशस्ति पत्र से नवाजा गया था.)

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Published: 16 Dec 2021,09:17 AM IST

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